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लोकायत दर्शन किसे कहते हैं , चार्वाक विचारधारा क्या है , प्रतिपादक कौन है चार्वाक दर्शन के निर्माता कौन है

चार्वाक दर्शन के निर्माता कौन है लोकायत दर्शन किसे कहते हैं , चार्वाक विचारधारा क्या है , प्रतिपादक कौन है ?

चार्वाक विचारधारा या लोकायत दर्शन
बृहस्पति ने इस विचारधारा की नींव रखी तथा माना जाता है कि दार्शनिक सिद्धांत का विकास करने वाला यह सर्वाधिक पूर्ववर्ती विचारधाराओं में से एक है। यह दर्शन इतना प्राचीन है कि इसकी चर्चा वेदों तथा बृहदारण्यक उपनिषद में भी मिलती है। चार्वाक विचार प(ति मुक्ति प्राप्ति हेतु भौतिक दृष्टिकोण का मुख्य प्रतिपादक थी। चूँकि यह सामान्य-जन की ओर प्रवृत्त थी, इसे शीघ्र ही लोकायत या सामान्य जन से प्राप्त की संज्ञा प्रदान कर दी गयी।
लोकायत शब्द का एक अन्य अर्थ भौतिक तथा पदार्थ जगत (लोक) भी है। उन्होंने मनुष्य के निवास के लिए इस जगत से परे किसी अन्य जगत के प्रति पूर्ण उपेक्षा का तर्क दिया। उन्होंने पृथ्वी पर हमारे आचरण को नियंत्रित करने वाले किसी अलौकिक या दिव्य कारक के अस्तित्व का खण्डन किया। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति की आवश्यकता के विरोध में भी तर्क प्रस्तुत किए तथा ब्रह्म या ईश्वर के अस्तित्व को भी झुठलाया। वे स्पर्शयोग्य या मानव की ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभव किए जा सकने वाली किसी भी वस्तु के अस्तित्व में ही विश्वास करते थे। उनकी कुछ मुख्य शिक्षाएं निम्नलिखित हैंः
ऽ उन्होंने ईश्वर तथा पृथ्वी पर उनका प्रतिनिधिस्वरूप माने जाने वाले पुरोहित वर्ग का विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि एक ब्राह्मण अनुयायियों से उपहार (दक्षिणा) प्राप्त करने के लिए झूठे कर्मकांडों का सृजन करता है।
ऽ मनुष्य सभी गतिविधियों का केंद्र है तथा उसे जीवनपर्यंत स्वयं का आनंद उठाना चाहिए। उसे सभी पार्थिव वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए, तथा इन्द्रिय सुखों में लिप्त होना चाहिए।
ऽ चार्वाक विचारधारा के समर्थक आकाश की गणना को पांच आधारभूत तत्वों में नहीं करते हैं चूँकि यह मनुष्य की अनुभूति से परे है। इसलिए, उनके अनुसार ब्रह्माण्ड में केवल चार तत्व हैंः अग्नि, पृथ्वी, जल तथा वायु।
ऽ इस विचारधारा के अनुसार, इस विश्व के परे कोई अन्य जगत नहीं है, इसलिए मृत्यु मानव का अंत है, तथा सुख-भोग ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य होना चाहिए। इसलिए उन्होंने ‘खाओ, पीओ और मस्त रहो’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
भौतिक दर्शन आदर्शवादी विचारधाराओं पर हावी रहा। आदर्शवादी दार्शनिकों ने पूर्ववर्ती समूह द्वारा अनुशंसित भोग-विलासों की आलोचना के द्वारा इसका प्रत्युत्तर दिया। उनके अनुसार मनुष्य को ईश्वर तथा अनुष्ठानों के पथ का अनुसरण कर मुक्ति की ओर बढ़ना चाहिए। तथापि, दोनों ही विचारधाराएं पनपती रहीं तथा आने वाले दशकों में उनके सिद्धांतों की चर्चा से युक्त कई ग्रन्थ रचे गए।
पिछले वर्षों के प्रश्न . प्रारंभिक परीक्षा
2014
1. निम्नलिखित युग्मों में से कौन-सा भारतीय दर्शन की छः प्रणालियों का अंग नहीं है?
(अ) मीमांसा तथा वेदांत
(ब) न्याय तथा वैशेषिक
(स) लोकायत तथा कापालिक
(द) सांख्य तथा योग
2. भारत में दार्शनिक चिंतन के सन्दर्भ में, सांख्य विचारधारा के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करेंः
i. सांख्य दर्शन में पुनर्जन्म या आत्मा के देहांतरण के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया जाता।
ii. सांख्य दर्शन के अनुसार बाह्य प्रभाव या कारक नहीं बल्कि आत्म-ज्ञान ही मुक्ति का साधन है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(अ) केवल (i) (ब) केवल (ii)
(स) (i) और (ii) दोनों (द) न तो (i) न ही (ii)
उत्तर
1. (स) लोकायत तथा कापालिक दर्शन छः परम्परावादी विचारधाराओं में सम्मिलित नहीं हैं।
2. (ब) सांख्य दर्शन ईश्वर के अस्तित्व का खण्डन करता है। तथापि, पुनर्जन्म तथा आत्मा का देहांतरण संबंधी अवधारणा सांख्य विचारधारा में निहित हैं। मुक्ति स्व-चेतनता की सीमाओं के तिरोहित हो जाने से ही मिलती है।

mimamsa philosophy in hindi मीमांसा दर्शन क्या हैं , मीमांसा दर्शन के रचनाकार कौन है लेखक का नाम ?

मीमांसा विचारधारा
मीमांसा शब्द का वास्तविक अर्थ तर्क-पूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है। यह विचार पद्धति वेदों के भाग रहे संहिता तथा ब्राह्मणों के विश्लेषण पर केन्द्रित थी। उनका तर्क है कि वेदों में शाश्वत सत्य निहित है तथा वे सभी ज्ञान के भण्डार हैं। यदि व्यक्ति को धार्मिक श्रेष्ठता, स्वर्ग तथा मुक्ति प्राप्त करनी है, तो उसे वेदों के द्वारा नियत सभी कर्तव्यों की पूर्ति करनी होगी।
मीमांसा दर्शन का विस्तृत वर्णन अनुमानित रूप से ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में जैमिनी द्वारा रचित सूत्रों में प्राप्त होता है। इस दर्शन में अगला परिवर्धन उनके महानतम प्रतिपादकों में से दो . सबर स्वामी तथा कुमारिल भट्ट दृ के द्वारा किया गया था।
उनके अनुसार, मुक्ति अनुष्ठानों के निष्पादन से ही संभव है किन्तु वैदिक अनुष्ठानों के औचित्य तथा उनके पीछे छिपे तर्कों को समझना भी आवश्यक है। मुक्ति के उद्देश्य से अनुष्ठानों को पूर्णता से संपन्न करने के लिए उनमें निहित तर्क को समझना आवश्यक था। व्यक्ति के कर्म अपने गुण-दोषों के लिए उत्तरदायी होते हैं तथा गुण युक्त कर्मों के प्रभाव की अवधि तक व्यक्ति स्वर्ग का आनंद प्राप्त कर सकता है। किन्तु वे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं होंगे। मुक्ति को प्राप्त करने के पश्चात वे इस अनंत चक्र से छूट जाएंगे।
इस दर्शन का मुख्य बल वेदों के आनुष्ठानिक भाग पर था, यथा – मुक्ति की प्राप्ति हेतु व्यक्ति को वैदिक अनुष्ठानों का निष्पादन करना होता है। चूँकि अधिकाँश लोगों को इन अनुष्ठानों की उचित समझ नहीं होती, उन्हें पुरोहितों की सहायता लेनी होती है। इसलिए, इस दर्शन में विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक अंतर को निहित रूप से वैधता प्रदान की गयी। ब्राह्मणों के द्वारा इसका प्रयोग लोगों पर वर्चस्व स्थापित करने में किया गया तथा वे सामाजिक श्रेणी क्रम में उच्च स्थान पर बने रहे।

वेदान्त विचारधारा
वेदान्त दो शब्दों . ‘वेद’ तथा ‘अंत’, अर्थात वेदों का अंत . से बना है। यह विचारधारा उपनिषदों में वर्णित जीवन प्रणाली के दर्शन को स्वीकार करती है। इस दर्शन के आधार का निर्माण करने वाले प्राचीनतम ग्रन्थ ‘बादरायण’ द्वारा लिखित ब्रह्मसूत्र थे जिन्हें ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में लिखा तथा संकलित किया गया था। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही इस जीवन की वास्तविकता है, तथा शेष सभी बातें मिथ्या या माया हैं।
इसके अतिरिक्त, आत्मा या स्व-चेतना ब्रह्म के ही समान है। यह तर्क आत्मा तथा ब्रह्म को एक ही स्तर पर ला खड़ा करता है, तथा व्यक्ति को स्व का ज्ञान हो जाने पर वह स्वतः ही ब्रह्म की अनुभूति कर मुक्ति को प्राप्त हो जाएगा।
यह तर्क ब्रह्म तथा आत्मा को अविनाशी तथा शाश्वत बना देता है। इस दर्शन के सामाजिक निहितार्थ भी हुए, यथा सही आध्यात्मिकता व्यक्ति की जन्म तथा स्थानगत अपरिवर्तनीय सामाजिक तथा मूर्त स्थिति में निहित है।
यह दर्शन 9वीं शताब्दी में उपनिषदों तथा गीता पर टीका लिखने वाले शंकराचार्य के दर्शन संबंधी परिवर्धन के कारण विकसित हुआ। उनके द्वारा लाए गए परिवर्तन के पफलस्वरूप अद्वैत वेदान्त का विकास संभव हुआ। इस विचारधारा के एक अन्य दार्शनिक रामानुजन थे जिन्होंने 12वीं शताब्दी में कृतियों की रचना की। उनके परिवर्धन के कारण वेदान्त विचारधारा में कुछ मतभेद भी उत्पन्न हुए।

शंकराचार्य का दृष्टिकोण रामानुजन का दृष्टिकोण
उनके अनुसार ब्रह्म निर्गुण है। उनके अनुसार ब्रह्म के कुछ गुण भी होते हैं।
उनके अनुसार ज्ञान ही मुक्ति का मुख्य साधन है। उनके अनुसार श्रद्धा तथा समर्पण का अभ्यास मुक्ति प्राप्ति का साधन है।

वेदान्त के सिद्धांत ने कर्म के सिद्धांत को भी विश्वसनीयता प्रदान की। वे पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास करते थे। उनका ये भी मानना था कि व्यक्ति को अपने पिछले जन्म में किये गए कर्मों के परिणाम अगले जन्म में भी भुगतने होंगे। इस दर्शन के कारण कुछ लोगों को यह तर्क भी प्रस्तुत करने में सुविधा हुई कि कभी-कभी उन्हें पिछले जन्म में किये गए किसी बुरे कर्म के कारण इस जन्म में कष्ट उठाना पड़ता है तथा ब्रह्म प्राप्ति के अतिरिक्त इसका अन्य कोई समाधान उनके वश में नहीं है।
धर्म या शास्त्र विरोधी विचारधारा की तीन उप-शाखाएँ निम्नलिखित हैंः

बौद्ध दर्शन
इस विचारधारा के प्रतिपादक नेपाल की तराइयों में स्थित लुम्बिनी में ईसा पूर्व 563वीं शताब्दी में जन्मे गौतम बुद्ध को माना जाता है। उन्हें जीवन को बदल डालने वाली अनुभूतियों से गुजरना पड़ा तथा तथा 29 वर्ष की अवस्था में वे सांसारिक जीवन को त्याग कर जीवन के सत्य की खोज में निकल पड़े। कहा जाता है कि बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते समय उन्हें आत्म-बोध हुआ। तब से लेकर 80 वर्ष की अवस्था में अपनी मृत्यु तक, उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन यात्राएं करते तथा लोगों को मुक्ति तथा इस जीवन के चक्र से छुटकारा पाने की राह दिखाते हुए बिताया। उनकी मृत्यु के पश्चात ही उनके शिष्यों ने राजगृह में एक परिषद् का आह्नान किया जहां बौद्ध धर्म की मुख्य शिक्षाओं को संहिताबद्ध किया गया। वे शिक्षाएं निम्नलिखित थींः

शिष्य का नाम बुद्ध के पिटकों की रचना
उपाली विनय पिटक (बौद्ध मतावलंबियों के लिए व्यवस्था के नियम)
आनंद सुत्त पिटक (बुद्ध के उपदेश तथा सिद्धांत)
महाकश्यप अभिधम्म पिटक (बौद्ध दर्शन)

बौद्ध दर्शन के अनुसार, वेदों में निहित परम्परागत शिक्षाएं मानव मात्रा की मुक्ति के लिए उपयोगी नहीं भी हो सकती हैं तथा उन पर आँख मूँद कर विश्वास करना उचित नहीं है। जीवन संबंधी अपने अनुभवों को देखते हुए बुद्ध को यह अनुभूति हुई कि विश्व दुखःमय है तथा प्रत्येक मनुष्य को चार उदात्त सत्यों की अनुभूति के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रथम, मानव जीवन में दुःख है जो रुग्णता, पीड़ा तथा अंततः मृत्यु के रूप में व्यक्त होता है। जीवन तथा मृत्यु का चक्र भी पीड़ादायी है। प्रिय-वियोग भी मानव मात्रा के लिए पीड़ा का कारण होता है। द्वितीय, सभी कष्टों का मूल कारण इच्छा है। तृतीय, वह मानव को जीवन का नियंत्राण करने वाले आवेगों, इच्छाओं तथा भौतिक वस्तुओं के मोह को नष्ट करने का परामर्श देते हैं। इन आवेगों, मोह, ईष्र्या, दुःख, शंका तथा अहं का नाश मानव जीवन से दुःख तथा पीड़ा का नाश कर देगा। इससे सम्पूर्ण शान्ति तथा निर्वाण की प्राप्ति होगी।
अंततः, व्यक्ति को जीवन पर हावी सतत् कष्ट तथा निराशावाद से मुक्ति तथा आशावाद की ओर बढ़ना चाहिए। बौद्ध दर्शन के अनुसार, मुक्ति (निर्वाण) का मार्ग अष्टांग मार्ग है, जो निम्नलिखित रूप में स्थित हैः
ऽ सम्यक् दृष्टिः यह मार्ग सुनिश्चित करता है कि मनुष्य अपनी दृष्टि से अज्ञान का नाश करे। हमें स्वयं तथा विश्व के बीच के संबंध को अस्थायी समझना चाहिए, इसलिए हमें मुक्ति पा कर पुनर्जन्म के चक्र से छूटने का प्रयत्न करना चाहिए।
ऽ सम्यक् संकल्पः इस मार्ग के द्वारा व्यक्ति को सशक्त इच्छा-शक्ति का विकास कर इच्छाओं, आवेगों तथा स्वयं व अन्यों को हानि पहुंचाने वाले बुरे विचारों को नष्ट करना चाहिए। व्यक्ति को दूसरों के प्रति त्याग, सहानुभूति तथा करुणा का अभ्यास करना चाहिए।
ऽ सम्यक् वाणीः इसका संबंध पूर्व मार्ग से है तथा इसका उद्देश्य सम्यक् वाणी का अभ्यास कर अपनी वाणी पर नियंत्रण स्थापित करना है। व्यक्ति को न तो दूसरों को बुरा-भला कहना चाहिए और न ही उसकी आलोचना करनी चाहिए।
ऽ सम्यक् आचरणः हमें जीवन को हानि पहुंचाने वाली सभी गतिविधियों से दूर रहने का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य को भौतिक वस्तुओं की इच्छाओं से दूर होना आरम्भ करना चाहिए।
ऽ आजीविका के सम्यक् साधनः यह मार्ग व्यक्ति को यह सुनिश्चित करने का परामर्श देता है कि वे अपनी आजीविका के अर्जन में अनुचित साधनों का प्रयोग न करें। उन्हें चोरी, रिश्वतखोरी तथा धोखाधड़ी में संलिप्त नहीं होना चाहिए।
ऽ सम्यक् प्रयासः व्यक्ति को बुरी भावनाओं तथा प्रभावों से बचने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें न केवल नकारात्मक विचारों से बचना चाहिए बल्कि इन्द्रिय विषयक तथा कामुक प्रकृति के विचारों को दूर रखना चाहिए। व्यक्ति को मुक्ति के मार्ग से भटकाने वाली हर चीज से बचना चाहिए।
ऽ सम्यक् सचेतनताः व्यक्ति को अपने शरीर, मन, तथा स्वास्थ्य को सही रूप में रखना चाहिए। शरीर के ठीक स्थिति में न रहने पर बुरे विचार आते हैं, जो बुरे कर्मों तथा अंततः व्यथा का कारण बनते हैं।
ऽ सम्यक् ध्यानः यदि कोई व्यक्ति उपर्युक्त सात मार्गों का अनुसरण करता है, तो वह सही रूप से ध्यान को एकाग्र कर पाने तथा मुक्ति या निर्वाण प्राप्त कर पाने में सपफल होगा।

जैन दर्शन
जैन दर्शन की पहली व्याख्या जैन तीर्थंकर या विद्वान व्यक्ति ‘ट्टषभ देव’ के द्वारा की गयी थी। वे जैन धर्म को संचालित करने वाले 24 तीर्थंकरों में से एक थे। उनमे से प्रथम तीर्थंकर को यह अनुभूति हुई कि आदिनाथ समस्त जैन दर्शन के ड्डोत थे। जैन दर्शन के विकास तथा प्रसार के लिए उत्तरदायी अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों में अरिष्टनेमी तथा अजित नाथ थे। बौद्धों की भांति ही जैन भी मुक्ति की प्राप्ति के साधनों के रूप में वेदों की सर्वोच्चता का विरोध करते थे।
उनका यह भी मानना है कि मनुष्य चारों ओर से पीड़ा से घिरा हुआ है तथा मन पर नियंत्राण स्थापित करना और अपने आचरण में समरसता लाना मनुष्यों के कष्टों से मुक्ति का उपाय है। उनका तर्क था कि सही समझ तथा ज्ञान विकसित कर मनुष्य को स्वयं के मन को नियंत्रित करना चाहिए। यदि इसमें सम्यक् आचरण भी जोड़ दिया जाए तो वह मुक्ति या निर्वाण के पथ पर अग्रसर हो सकता है।
जैन दर्शन के अनुसार, पृथ्वी पर जीवन और मृत्यु के चक्र से छुटकारा पाने की इच्छा होने पर मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। जैन दर्शन की कई अन्य आधारभूत बातें निम्नलिखित हैंः
ऽ उनकी मान्यता है कि इस विश्व में सभी प्राकृतिक तथा अलौकिक चीजें सात आधारभूत तत्वों – जीव, अजीव, असख, बंध, सम्वार, निर्जर तथा मोक्ष . पर आधारित हैं।
ऽ दो मुख्य प्रकार के अस्तित्व होते हैंः एक अस्तिकाया या कुछ ऐसा जिसकी शरीर की भांति भौतिक आकृति है। यह किसी व्यक्ति को समाविष्ट कर सकती है तथा आवृत कर सकती है। द्वितीय, अनास्तिकाया, यथा जिसकी कोई भौतिक आकृति नहीं होती, जैसे.समय।
ऽ जैन दर्शन के अनुसार, हर चीज का एक मूल तत्व है जिसे धर्म कहते हैं। ये तत्व वस्तु या मनुष्य द्वारा धारित गुणों का आधार होते हैं। ये गुण या भाव अस्तित्व तथा शाश्वतता के लिए अनिवार्य होते हैं।
ऽ इसके अतिरिक्त, जहां मूल तत्व शाश्वत तथा अपरिवर्तनीय है, गुण या भाव परिवर्तित होते रहते हैं। उदाहरण के लिए, चेतना आत्मा का मूल तत्व है, किन्तु व्यक्ति मनोदशा के आधार पर प्रसन्न या उदास हो सकता है, यह मनोदशा ही सतत् परिवर्तित होने वाला भाव है।

अभ्यास प्रश्न . प्रारंभिक परीक्षा
1. निम्नलिखित में से कौन दर्शन की धर्म विरोधी या शास्त्रा विरोधी विचारधाराओं से संबंधित नहीं हैं?
(अ) बौद्ध विचारधारा (ब) जैन विचारधारा
(स) चार्वाक विचारधारा (द) वेदान्त विचारधारा
2. किस दार्शनिक विचारधारा के दृष्टिकोण से मुक्ति ज्ञान प्राप्ति के द्वारा ही संभव है?
(अ) सांख्य विचारधारा (ब) न्याय विचारधारा
(स) वैशेषिक विचारधारा (द) मीमांसा विचारधारा
3. निम्नलिखित के संबंध में विचार करेंः
i. सांख्य विचारधारा अद्वैतवाद में आस्था रखती है।
ii. रामानुजन इसके मुख्य दार्शनिक थे।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(अ) केवल (i) (ब) केवल (ii)
(स) (i) और (ii) दोनों (द) न तो (i) न ही (ii)
4. निम्नलिखित में से कौन-सा सुमेलित नहीं है?
(अ) सांख्य – कपिलमुनि (ब) वैशेषिक – कणाद
(स) मीमांसा – शंकराचार्य (द) न्याय – गौतम
5. वेदान्त विचारधारा के संबंध में निम्नलिखित पर विचार करेंः
i. शंकराचार्य ने ज्ञान को मुक्ति की प्राप्ति का मुख्य साधन माना।
ii. रामानुजन ने श्रद्धा तथा समर्पण के अभ्यास को मुक्ति का मार्ग बताया।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(अ) केवल (i) (ब) केवल (ii)
(स) (i) और (ii) दोनों (द) न तो (i) न ही (ii)
उत्तर
1. (द) 2. (अ) 3. (द) 4. (स) 5. (स)

पिछले वर्षों के प्रश्न – मुख्य परीक्षा
2007
1. चार्वाक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
अभ्यास प्रश्न-मुख्य परीक्षा
1. संक्षेप में दर्शन की छः परम्परागत विचारधाराओं की व्याख्या करें।
2. परम्परावादी विचारधारा किस प्रकार धर्म या शास्त्रा विरोधी विचारधारा से भिन्न है?
3. वेदान्त विचारधारा के संबंध में शंकराचार्य तथा रामानुजन के दृष्टिकोणों के बीच भेद बताएं।
4. बौद्ध दर्शन के द्वारा प्रतिपादित अष्टांग मार्ग का वर्णन करें।

5. बौद्ध तथा जैन दर्शन के बीच अंतर स्थापित करें।
6. क्या भारत की नयी पीढ़ी चार्वाक दर्शन की विचारधारा से प्रभावित है?

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