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Categories: Geologyindian

राष्ट्रीय जल नीति के उद्देश्य तथा विशेषताओं की विवेचना कीजिए , राष्ट्रीय जल नीति भारत में कब लागू हुई

राष्ट्रीय जल नीति भारत में कब लागू हुई , राष्ट्रीय जल नीति के उद्देश्य तथा विशेषताओं की विवेचना कीजिए ?

राष्ट्रीय जल नीति (National Water Policy)
जल की आपूर्ति, मांग तथा उसके तर्कसंगत उपयोग को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय सरकार ने निम्नलिखित दो राष्ट्रीय जल नीतियां अपनाई हैंः
राष्ट्रीय जल नीति, 1987 (National Water Policy 1987)
इस नीति का मुख्य उद्देश्य जल संसाधनों का राष्ट्रीय हित में प्रबन्ध करना तथा योजना तैयार करना था। जल के प्रबन्ध एवं उसकी योजना तैयार करने के लिए अपवाह बेसिन को इकाई माना गया ताकि जल का इष्टतम उपयोग किया जा सके। जल को राज्य स्तर का विषय माना गया इस लिए इस नीति के अनुसार जल के विकास संबंधी योजना बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को दिया गया। केन्द्र सरकार इन कार्यों के लिए राज्य सरकारों को तकनीकी एवं आर्थिक सहायता देती है। राज्यों में जल विवादों को वार्ता के माध्यम से सुलझाने का सुझाव दिया गया और जहां पर आपसी बात-चीत से विवाद का हल न निकलता हो तो उस मामले को न्यायाधिकरण (Tribunal) को सौंपने का प्रावधान रखा गया। इस नीति के महत्वपूर्ण तत्व निम्नलिखित हैंः
1. जल एक बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन है और इसका विकास राष्ट्रीय हित में किया जाना चाहिए।
2. उपलब्ध धरातलीय एवं भौम जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग होना चाहिए।
3. जल की योजना का आधार नदी बेसिन जैसी जलीय इकाई होनी चाहिए और समस्त नदी बेसिन की योजना को कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक संगठनात्मक प्रबंध की व्यवस्था होनी चाहिए।
4. जल अभाव वाले क्षेत्रों को जल आधिक्य वाले क्षेत्रों से जल के स्थानांतरण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
5. मानवीय आवश्यकताओं और पारिस्थितिकी संतुलन को ध्यान में रखते हुए जल की योजना को बहुमुखी लाभ पर आधारित होना चाहिए।
6. जल के आवंटन में सबसे अधिक प्राथमिकता पेय जल को मिलनी चाहिए। इसके बाद क्रमानुसार सिंचाई, जल-विद्युत उद्योग तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जल मिलना चाहिए।
7. भूजल के भंडारों का समय-समय पर मूल्यांकन हो और इसका उपयोग सामाजिक समानता के आधार पर होना चाहिए।
8. धरातलीय जल तथा भूजल की योजना से उपयोग तक तर्कसंगत उपयोग का ध्यान रखना चाहिए।
9. जल संबंधी संरचनाओं के रख-रखाव तथा आधुनिकीकरण के लिए उपयुक्त संगठन का प्रावधान होना चाहिए।
10. जल उपयोग तथा भूमि उपयोग का एकीकरण होना चाहिए और जल वितरण सामाजिक न्याय पर आधारित होना चाहिए।
11. सभी कार्यों के लिए जल का विविध उपयोग तथा संरक्षण होना चाहिए तथा इसके लिए शिक्षा एवं प्रोत्साहन की व्यवस्था होनी चाहिए।
12. जल के मूल्य इस प्रकार निर्धारित होने चाहिए कि उनसे जल का उचित उपयोग हो सके और इससे एकत्रित हुई धनराशि से प्रारम्भिक एवं समय-समय पर होने वाले खर्च का कुछ भाग वसूल हो सके।
13. सिंचाई व्यवस्था के प्रबंधन में किसानों की भागीदारी होनी चाहिए।
14. बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में बाढ़ के प्रकोप को कम करने के लिए ‘जल विभाजक‘ क्षेत्र के प्रबन्धन की व्यवस्था होनी चाहिए।
15. समुद्र अथवा नदी द्वारा अपरदन को सस्ती विधि अपना कर कम करने का प्रयास होना चाहिए। तटीय एवं बाद प्रवण क्षेत्रों में अवैध गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।
16. जल विकास की योजना बनाते समय सूखा प्रवण क्षेत्रों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
17. राज्य एवं केन्द्र स्तर पर जल संसाधनों के विकास संबंधी सूचनाओं एवं आंकड़ों के आदान-प्रदान की व्यवस्था होनी चाहिए।
18. प्रशिक्षण तथा शोध को विकास कार्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए।
राष्ट्रीय जल नीति, 2002
(National Water Policy, 2002)
यह नीति 1 अप्रैल, 2002 को राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद (National Water Resoures Council) की सहमति से अपनाई गई थी। इसमें जल प्रबन्धन एवं विकास के लिए संगठनात्मक कार्यक्रमों पर अधिक बल दिया गया। इसके साथ ही जल तथा भूमि संबंधी विवादों के लिए नदी बेसिन संगठन (River Basin Organisation) का गठन किया गया। इस नीति ने 1987 की जल नीति का स्थान ले लिया और अतर्राष्ट्रीय जल विवादों को इस नीति के कार्य क्षेत्र से बाहर रखा गया। राज्य सरकारों को अपनी जल नीति तय करने के लिए कहा गया।
प्राथमिकताएं
इस जल नीति की निम्नलिखित प्राथमिकताएं हैं :
1. पहली प्राथमिकताः देश के सभी नागरिकों को पेय जल उपलब्ध कराना।
2. दूसरी प्राथमिकताः सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराना।
3. तीसरी प्राथमिकताः जल विद्युत उत्पादन के लिए जल उपलब्ध कराना।
4. चैथी प्राथमिकताः पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने के लिए नदियों में जल प्रवाह को निश्चित सीमा तक जारी रखना।
5. पांचवीं प्राथमिकताः जल को उद्योगों तथा यातायात के लिए प्रयोग करना।
राज्य सरकारों को स्थानीय परिस्थितियों के संदर्भ में इस जल नीति में कुछ परिवर्तन करने की छूट दी गई है।
मुख्य लक्षण
इस नीति के अंतर्गत जल को बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन माना गया है और जल संसाधनों के विकास एवं प्रबन्धन पर विशेष बल दिया गया है। इसमें जल को राज्यों की सीमाओं द्वारा विभाजित न मान कर बड़े पारिस्थितिकी तन्त्र का भाग माना गया है। इस नीति के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैंः
1. देश में उपलब्ध जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग करने के लिए उचित प्रकार के संगठनों एवं इकाइयों का गठन करना। ,
2. जल संसाधनों के विकास में जल के चक्रीकरण एवं पुनः प्रयोग को महत्वपूर्ण अंग मानकर उन्हें उच्च प्राथमिकता देनी चाहिए।
3. जलाशयों/बान्धों की सुरक्षा के लिए उचित प्रबन्ध करने चाहिए और इन प्रबन्धों की समय-समय पर समीक्षा करनी चाहिए।
4. राष्टीय संदर्भ में उपलब्ध जल संसाधनों के विकास पर बल देना चाहिए और जल के संरक्षण के उपाय करने चाहिए।
5. जल संसाधनों के विकास की योजना को अन्तिम रूप दिया जाए। यह क्रिया मानव जीवन, मानव बस्तियों, मानवीय व्यवसायों, आर्थिक एवं सामाजिक विकास, पर्यावरण, पारिस्थितिकीय संतुलन तथा स्थानीय अवस्थाओं पर योजना के प्रभाव को ध्यान में रख कर पूरी कर लेनी चाहिए।
6. भूजल का प्रयोग इस प्रकार तथा उस मात्रा तक करना चाहिए ताकि उसका पुर्नभरण निरन्तर होता रहे। इससे भूजल का सरंक्षण लम्बी अवधि तक हो सकेगा।
7. जल की गुणवत्ता तथा उस पर आने वाले खर्च को ध्यान में रखते हुए आधुनिक वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग से समय-समय पर जल संसाधनों का मूल्यांकन करना चाहिए।
8. अनुसूचित जातियों तथा समाज के कमजोर वर्ग के इलाकों में जल संसाधनों के विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
9. जल संसाधनों की योजना बहुमुखी परियोजना के रूप में बनानी चाहिए और उसमें भी पेय जल को प्राथमिकता देनी चाहिए।
10. विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए जल आधिक्य वाले क्षेत्रों से जलाभाव वाले क्षेत्रों की ओर जल के स्थानांतरण की व्यवस्था होनी चाहिए।
11. जल के उपयुक्त उपयोग के लिए जन-साधारण को शिक्षित करना चाहिए। जल के संरक्षण के लिए शिक्षा, कानून, प्रोत्साहन, दण्ड आदि का सहारा लिया जा सकता है।
12. देश में जल क्षेत्रों की पहचान करके जल की उपलब्धता के अनुसार उनका वर्गीकरण करना चाहिए और कृषि, उद्योग, नगरीकरण जैसी आर्थिक क्रियाओं के लिए विशेष योजना तैयार करनी चाहिए।
13. योजना बनाते समय पेय जल, सिंचाई, जल विद्युत उत्पादन, नदी में जल प्रवाह, उद्योग तथा परिवहन को क्रमशः प्राथमिकता देनी चाहिए।
14. धरातलीय एवं भजल की गणवत्ता का समय समय पर परीक्षण करना चाहिए और गुणवत्ता को सुधारने के लिए उपयुक्त कार्यक्रम बनाने चाहिए।
15. जल संसाधनों के विकास के लिए दीर्घ अवधि के प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करने चाहिए।
16. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए, ‘मास्टर प्लान‘ (डंेजमत च्संद) बनाना चाहिए ताकि बाढ़ पीड़ित लोगों को राहत पहुंचाने के लिए खर्च को कम किया जा सके।

नदी जल विवाद
जब किसी भी वस्तु की कमी होती है तो इसे पाने तथा प्रयोग करने के संबंध में कई विवाद खड़े हो जाते हैं और जल कोई अपवाद नहीं है। भारत की अधिकांश बड़ी नदियां दो या दो से अधिक राज्यों में बहती हैं और उन्हें अन्तर्राज्यीय नदियों के नाम से पुकारा जाता है। प्रत्येक राज्य संबंधित नदी से अधिकतम लाभ उठाना चाहता है जिससे राज्यों के बीच नदी के जल को लेकर तनाव पैदा हो जाता है। तनाव से विवाद उत्पन्न हो जाता है और पड़ोसी राज्यों के अंतर्संबंधों में कटुता पैदा हो जाती है। पिछले कुछ दशकों में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि, कृषि के विकास, औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण नदी जल विवादों में बहुत वृद्धि हुई है। मुख्य विवाद निम्नलिखित हैं:
(I) तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल तथा पुडुचेरी के बीच कावेरी नदी विवाद।
(II) महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश के बीच कृष्णा नदी जल विवाद।
(III) आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक के बीच तुंगभद्रा नदी जल विवाद।
(IV) तमिलनाडु तथा केरल के बीच अलियार एवं भिवानी नदी जल विवाद।
(V) आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा तथा कर्नाटक के बीच गोदावरी नदी जल विवाद।
(VI) गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के बीच नर्मदा जल विवाद।
(VII) गुजरात, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के बीच माही नदी जल
विवाद।
(viii) पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर तथा दिल्ली के बीच रावी एवं व्यास नदियों संबंधी जल विवाद।
(ix) पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान के बीच सतलुज-यमुना संपर्क विवाद।
(x) उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा दिल्ली के बीच यमुना नदी के जल का विवाद।
(xi) उत्तर प्रदेश तथा बिहार के बीच कर्मसाना नदी जल विवाद।
(xii) असम तथा मणिपुर के बीच बराक नदी जल विवाद।
नदी जल विवादों को सुलझाने के लिए भारत सरकार ने 1956 के अंतराज्यीय जल-विवाद अधिनियम के तहत जल विवाद अधिकरण का गठन किया था। कुछ प्रमुख नदी-जल विवादों की स्थिति को तालिका 2.4 के अंतर्गत दर्शाया गया है।

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