राष्ट्रपति का निर्वाचन कैसे होता है , भारत में राष्ट्रपति का चुनाव कौन करवाता है , पता लगाइए कि भारत में राष्ट्रपति का चुनाव कौन करता है

राष्ट्रपति के चुनाव में निम्नलिखित में से कौन कौन से सदस्य भाग लेते हैं ? राष्ट्रपति का निर्वाचन कैसे होता है , भारत में राष्ट्रपति का चुनाव कौन करवाता है , पता लगाइए कि भारत में राष्ट्रपति का चुनाव कौन करता है ?

राष्ट्रपति : गणराज्य के राष्ट्रपति का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से ऐसे निर्वाचन मंडल द्वारा किया जाता है जिसमें संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं । यद्यपि भारत का राष्ट्रपति संसद का अंग होता है तथापि वह दोनों में से किसी भी सदन में न तो बैठता है न ही उसकी चर्चाओं में भाग लेता है। संसद से संबंधित कुछ ऐसे संवैधानिक कृत्य हैं जिनका उसे निर्वहन करना होता है। राष्ट्रपति समय समय पर संसद के दोनों सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करता है। वह संसद के दोनों सदनों का सत्रावसान कर सकता है और लोक सभा को भंग कर सकता है। दोनों सदनों द्वारा पास किया गया कोई विधेयक तभी कानून बन सकता है जब राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति प्रदान कर दे। इतना ही नहीं, जब संसद के दोनों सदनों का अधिवेशन न चल रहा हो और राष्ट्रपति का समाधान हो जाए कि ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं जिनके कारण उसके लिए आवश्यक है कि वह तुरंत कार्यवाही करे तो वह अध्यादेश प्रख्यापित कर सकता है जिसकी शक्ति एवं प्रभाव वही होता है जो संसद द्वारा पास की गई विधि का होता है।
लोक सभा के लिए प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात प्रथम अधिवेशन के प्रारंभ में और प्रत्येक वर्ष के प्रथम अधिवेशन के प्रारंभ में राष्ट्रपति एक साथ समवेत संसद के दोनों सदनों के समक्ष अभिभाषण करता है और सदनों की बैठक के लिए आमंत्रित करने के लिए कारणों की संसद को सूचना देता है । इसके अतिरिक्त, वह संसद के किसी एक सदन के समक्ष अथवा एक साथ समवेत दोनों सदनों के समक्ष अभिभाषण कर सकता है और इस प्रयोजन के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता है। उसे संसद में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश किसी भी सदन को भेजने का अधिकार है। जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया हो वह सदन उस संदेश द्वारा जिस विषय पर विचार करना अपेक्षित हो, उस पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करता है। कुछ प्रकार के विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश प्राप्त करने के पश्चात ही पेश किए जा सकते हैं अथवा उन पर आगे कोई कार्यवाही की जा सकती है।
संविधान के अनुसार संसद संबंधी कुछ अन्य कृत्य भी हैं जिनका निर्वहन राष्ट्रपति से अपेक्षित है। जब कभी आवश्यक हो, तो वह लोक सभा का अस्थायी (प्रो-टेम) अध्यक्ष और राज्य सभा का कार्यकारी सभापति नियुक्त करता है। किसी विधेयक पर दोनों सदनों के बीच असहमति होने की स्थिति में उनकी संयुक्त बैठक बुलाता है। राष्ट्रपति प्रत्येक वर्ष सरकार का बजट, जिसे संविधान में “वार्षिक वित्तीय विवरण‘‘ कहा गया है, और भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक, वित्त आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष अधिकारी तथा पिछड़े वर्ग आयोग जैसे संवैधानिक प्राधिकरणों के कुछ अन्य प्रतिवेदन संसद के समक्ष रखवाता है। यदि उसकी राय हो कि आंग्ल-भारतीय समुदाय का लोक सभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह सदन के लिए दो से अनधिक सदस्य मनोनीत कर सकता है। राष्ट्रपति साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे मामलों के विषय में विशेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव रखने वाले व्यक्तियों में से 12 सदस्य राज्य सभा के लिए मनोनीत करता है । इसके अतिरिक्त, उसे निर्वाचन आयोग की राय प्राप्त करने के पश्चात फैसला करने की शक्ति प्राप्त है कि क्या विधिवत निर्वाचित कोई सदस्य संविधान के अनुच्छेद 108 में निर्धारित अनर्हताओं से ग्रस्त होता है अथवा नहीं। इस विषय में उसका फैसला अंतिम होता है।

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था-संसद का
गठन और स्थान
प्रतिनिधिक संसदीय लोकतंत्र
हमने प्रतिनिधिक संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली अपनाई है। तीन शब्द, अर्थात प्रतिनिधिक, संसदीय एवं लोकतंत्र हमारी राजनीतिक व्यवस्था के मूल तत्व हैं।
लोकतंत्र का निहित अर्थ है आत्मनिर्णय का लोगों का अधिकार और मानव की तर्कसंगतता में आस्था । सच्चे लोकतंत्र की मूल बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसकी जाति, धर्म, रंग अथवा लिंग कोई भी हो और शिक्षा का स्तर, आर्थिक अथवा व्यावसायिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, स्वशासन के और, जैसे वह उचित समझे वैसे, अपने कार्यों को करने के योग्य है। लोकतंत्र में लोग अपने स्वामी स्वयं होते हैं।
भारत के संविधान में इसकी उद्देशिका के महान शब्दों में कहा गया है कि ‘‘हम भारत के लोग, दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत करते हैं‘‘, जिससे निस्संदेह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में प्रभुसत्ता केवल जनता में निहित है किंतु लोगों के हाथों में प्रभुसत्ता वैसे ही है जैसे भीषण पहाड़ी नदी के जल की शक्ति । उसे उपयोगी बनाने के लिए संयत करना होता है। लोगों को किसी संस्था की आवश्यकता होती है, एक माध्यम की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा वे अपनी प्रभुसत्ता की अभिव्यक्ति कर सकें और उसका प्रयोग कर सकें। हमारे संविधान की योजना और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की इसकी व्यवस्था के अंतर्गत लोग संघीय संसद के लिए प्रतिनिधि चुनने हेतु मतदान करते समय अपनी प्रभुसत्ता का प्रयोग करते हैं। संसद लोगों की सर्वाेत्कृष्ट संस्था बन जाती है जिसके माध्यम से लोगों की प्रभुसत्ता को अभिव्यक्ति मिलती है।
प्रारंभ में, प्राचीन यूनानी “सिटी स्टेट्स‘‘ अथवा नगर राज्यों में और भारत में वैदिक काल में लोग शासन संबंधी मामलों का फैसला करने के लिए स्वयं समवेत हुआ करते थे। इस प्रकार लोग राज्य के मामलों का फैसला करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से अपनी शक्ति का प्रयोग करते थे और इस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था को प्रत्यक्ष लोकतंत्र कहा जा सकता है। परंतु धीरे धीरे राजनीतिक ईकाइयों के आकार एवं जनसंख्या में वृद्धि होने से और अंततोगत्वा आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के बनने से, राज्य के मामलों पर विचार करने और सुचारु रूप से निर्णय पर पहुंचने के लिए लोगों के लिए एक स्थान पर समवेत होने का प्रबंध करना असंभव हो गया। इसीलिए सभी प्रकार का प्रत्यक्ष लोकतंत्र शीघ्र ही संसार भर में समाप्त हो गया, सिवाय स्विटजरलैंड के कुछ “कैंटनोंष् के जहां अब भी विभिन्न मामलों पर लोगों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से मतदान के द्वारा फैसले हो सकते हैं। आधुनिक लोकतंत्र के लिए आवश्यक हो गया है कि वह ऐसा प्रतिनिधि लोकतंत्र हो जहां लोग अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से अपनी प्रभुसत्ता का प्रयोग करें।
“संसदीय‘‘ शब्द का अर्थ विशेष रूप से एक प्रकार की लोकतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था है जहां सर्वाेच्च शक्ति लोगों के प्रतिनिधियों के निकाय में निहित है जिसे “संसद‘‘ कहते हैं। संसदीय प्रणाली ऐसी प्रणाली है जिसमें राज्य के शासन में संसद का प्रमुख स्थान है। भारत के संविधान के अधीन संघीय विधानमंडल को “संसद‘‘ कहा जाता है। यह वह धुरी है, जो देश की राजनीतिक व्यवस्था की नींव है।
संसद का गठन
भारतीय संसद राष्ट्रपति और दो सदनों-राज्य सभा (कौंसिल आफ स्टेट्स) और लोक सभा (हाउस आफ द पीपुल)-से मिलकर बनती है।