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राज्य पुनर्गठन आयोग की प्रमुख सिफारिशें क्या थी ? राज्य पुनर्गठन आयोग के प्रमुख कार्यों एवं दी गई सिफारिशों की व्याख्या कीजिए।

पढ़ पाएंगे कि राज्य पुनर्गठन आयोग की प्रमुख सिफारिशें क्या थी ? राज्य पुनर्गठन आयोग के प्रमुख कार्यों एवं दी गई सिफारिशों की व्याख्या कीजिए।

प्रश्न: स्वतंत्रता के पश्चात् राज्यों के एकीकरण के संदर्भ में राज्य पनर्गठन आयोग की प्रमुख सिफारिशें क्या थी ? इसकी सिफारिशों को राज्य पुनर्गठन अधिनियम द्वारा कैसे कार्यरूप दिया गया ? आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर: इन आंदोलनों को देखते हुए अगस्त 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन जस्टिस फजल अली की अध्यक्षता में किया गया। के.एम. पन्निकर और हृदयनाथ कुंजरू इसके सदस्य थे। इस आयोग का काम राज्यों के सीमांकन के मामले पर गौर करना था। राज्य पुनर्गठन आयोग ने अपनी रिपोर्ट अक्टूबर, 1955 में दी जो इस प्रकार है –
1) वर्तमान 27 राज्यों का पुनर्गठन 16 राज्यों और तीन केन्द्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया जाए।
2) प्रशासनिक एवं आर्थिक पहलुओं को महत्व देते हुए भी भाषायी अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा की जाए।
3) राज्यों में राजप्रमुखों की व्यवस्था समाप्त कर दी जाए और भाषायी अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा की जाए।
4) अखिल भारतीय सेवाओं का पुनर्गठन करके इसमें 50ः अधिकारी राज्य के बाहर का हो।
5) होमलैंड की अवधारणा को अस्वीकृत करते हुए आयोग ने बंबई और पंजाब के राज्यों को यथावत रखने की सिफारिश की।
नवम्बर, 1956 में भारतीय संसद ने राज्य पुनर्गठन विधेयक पास कर दिया। इस विधेयक में 14 राज्यों एवं 6 केन्द्र शासित प्रदेशों की व्यवस्था की गई थी, जो इस प्रकार थे – (1) आंध्र प्रदेश (2) मद्रास (3) केरल (4) बाम्बे (5) मैसूर (6) मध्य प्रदेश (7) बिहार (8) उत्तर प्रदेश (9) उड़ीसा (10) राजस्थान (11) असम (12) पश्चिम बंगाल (13) जम्मू कश्मीर (14) पंजाब। केन्द्र शासित प्रदेशों में – (प) दिल्ली (पप) हिमाचल (पपप) मणिपुर (पअ) त्रिपुरा (अ) अंडमान निकोबार तथा (अप) लक्षद्वीप एवं मिनिकोय द्वीप।
ऽ इस अधिनियम के द्वारा हैदाराबाद के भागों को जोड़कर आंध्र प्रदेश का राज्य बनाया गया तथा हैदराबाद रियासत का कुछ भाग मद्रास राज्य में मिला दिया गया।
ऽ बंबई, सौराष्ट्र, कच्छ और मध्य प्रदेश के कुछ भागों को जोड़कर एक नए राज्य बंबई का निर्माण किया गया।
ऽ मद्रास, हैदराबाद, बंबई तथा कुर्ग के कुछ कन्नड़ भाषी इलाकों को मैसूर राज्य में जोड़ दिया गया।
ऽ विन्ध्य प्रदेश, भोपाल एवं राजस्थान के कुछ भागों को जोड़कर मध्य प्रदेश राज्य बनाया गया।
ऽ पंजाब राज्य पटियाला में पूर्वी पंजाब को मिलाकर बनाया गया तथा राजस्थान में अजमेर को जोड़ा गया।
ऽ राज्यों का यह पुनर्गठन सभी लोगों को संतुष्ट नहीं कर सका और विभिन्न नए राज्यों की मांग आगे भी होती रही। यही वजह है कि 1956 के बाद भी कई राज्यों का गठन किया गया तथा आज भी कई राज्यों की मांग हो रही है।
ऽ 1956 के बाद गठित होने वाले नए राज्य इस प्रकार हैं –
ऽ बंबई पुनर्गठन एक्ट 1960 के अन्तर्गत बंबई राज्य को विभाजित करके महाराष्ट्र और गुजरात राज्य का गठन किया गया।
ऽ 1962 में नगालैण्ड को राज्य का दर्जा दिया गया तथा ‘पंजाब पुनर्गठन एक्ट‘ 1966 के अन्तर्गत पंजाब एवं हरियाणा राज्यों का निर्माण किया गया।
ऽ 1972 में मणिपुर, मेघालय एवं त्रिपुरा को तथा 1971 में हिमाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा दिया गया।
ऽ 1975 में सिक्किम, 1987 में अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और गोवा को पूर्ण राज्य बनाया गया।
ऽ वर्ष 2000 में उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ तथा झारखंड राज्यों का निर्माण क्रमशः उत्तर प्रदेश, मध्य-प्रदेश तथा बिहार राज्य को विभाजित करके किया गया था। अभी हाल ही. (जून, 2014) में तेलंगाना को नया राज्य बनाया गया है।
ऽ वर्तमान में भारत संघ के अन्तर्गत 29 राज्य तथा 7 केन्द्र शासित प्रदेश हैं।
प्रश्न: स्वातंत्रयोत्तर काल में भाषाई राज्यों की मांग से देश की एकता एवं अखण्डता पर आंच और अल की भावना का जोर पकड़ने की चिंता थी, लेकिन इसके विपरित देश की एकता और ज्यादा हुई। विवेचना कीजिए।
उत्तर: आजादी के बाद के शरुआती सालों में एक बड़ी चिंता यह थी कि अलग राज्य बनाने की माँग से देश की एकता पर आँच आएगी। आशंका थी कि नए भाषाई राज्यों में अलगाववाद की भावना पनपेगी और नव-निर्मित भारतीय राष्ट पर दबाव बढ़ेगा। जनता के दबाव में आखिरकर नेतृत्व ने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का मन बनाया। उम्मीद थी कि अगर हर इलाके के क्षेत्रीय और भाषाई दावे को मान लिया गया तो बँटवारे और अलगाववाद के खतरे में कमी आएगी। इसके अलावा क्षेत्रीय मांगों को मानना और भाषा के आधार पर नए राज्यों का गठन करना एक लोकतांत्रिक कदम के रूप में भी देखा गया।
भाषावार राज्यों के पुनर्गठन की घटना को आज 50 साल से भी अधिक समय हो गया। हम कह सकते हैं कि भाषाई राज्य तथा इन राज्यों के गठन के लिए चले आंदोलनों ने लोकतांत्रिक राजनीति तथा नेतृत्व की प्रकृति को बुनियादी रूपों में बदला है। राजनीति और सत्ता में भागीदारी का रास्ता अब एक छोटे-से अंग्रेजीभाषी अभिजात तबके के लिए ही नहीं. बाकियों के लिए भी खुल चुका था। भाषावार पुनर्गठन से राज्यों के सीमांकन के लिए एक समरूप आधार भी मिला। बहुतों की आशंका के विपरीत इससे देश नहीं टूटा। इसके विपरीत देश की एकता और ज्यादा मजबूत हुई। सबसे बडी बात यह कि भाषावार राज्यों के पुनर्गठन से विभिन्नता के सिद्धांत को स्वीकृति मिली। जब हम कहते हैं कि भारत ने लोकतंत्र अपनाया है तो इसका सीधा-सा मतलब इतना भर नहीं होता कि भारत में लोकतांत्रिक संविधान पर अमल होता है अथवा भारत में चुनाव करवाए जाते हैं। भारत के लोकतांत्रिक होने का एक वृहत्तर अर्थ है। लोकतंत्र को चुनने का अर्थ था विभिन्नताओं को पहचानना और उन्हें स्वीकार करना। साथ ही, यह मानकर चलना कि विभिन्नताओं में आपसी विरोध भी हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में लोकतंत्र की धारणा विचारों और जीवन-पद्धतियों की बहुलता की धारणा से जुड़ी हुई थी। आगे के दिनों में अधिकतर राजनीति इसी दायरे में चली।
देश के अनेक इलाकों में छोटे-छोटे अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। आंध्र प्रदेश में तेलंगाना, महाराष्ट्र में विदर्भ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में राज्य बनाने के ऐसे आंदोलन चल रहे हैं।
संयुक्त राज्य अमरीका की जनसंख्या अपने देश के मुकाबले एक-चैथाई है लेकिन वहाँ 50 राज्य हैं। भारत में 100 से भी ज्यादा राज्य क्यों नहीं हो सकते?

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