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राजस्थानी चित्रकला के महत्वपूर्ण प्रश्न pdf download | राजस्थानी चित्रकला की प्रमुख विशेषता बताइए
राजस्थानी चित्रकला की प्रमुख विशेषता बताइए 2 राजस्थानी चित्रकला के महत्वपूर्ण प्रश्न pdf download
प्रश्न: फड़ चित्रण
उत्तर: रेजी अथवा खादी के कपडे पर लोक देवताओं, पौराणिक तथा ऐतिहासिक गाथाओं की लोक चित्रकला शैली को फड़े चित्रण कहते हैं। शाहपुरा इसका प्रमुख केन्द्र एवं श्रीलाल जोशी प्रमुख चितेरे हैं। फड़ का वाचन मनोती पूर्ण होने पर उनके भोपों द्वारा किया जाता है। फड़ चित्रण में लोकनाट्य, वादन, मौखिक साहित्य, लोक चित्रकला तथा लोक धर्म का अनूठा संगम जो यहाँ मिलता है भारत में वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। राजस्थान में देवजी एंव पाबूजी की फड़ बड़ी प्रसिद्ध है।
प्रश्न: पाबूजी की फड़,
उत्तर: राजस्थान के प्रमुख लोकदेवता पाबूजी की श्प्लेग रक्षक व ऊँटों के रक्षक देवताश् के रूप में मान्यता होने से ग्रामीण जनता अपनी मनौती पूर्ण होने पर इनके चारण, भाट जाति के भोपों से रावण हत्था वाद्य यंत्र द्वारा फड़ वाचन करवाती है। जिस पर पाबूजी का सम्पूर्ण जीवन वृत विभिन्न रंगों के संयोजन से वर्ण व्यंजना एवं विन्यास के जरिए प्रस्तुत किया जाता है। इस कला में फड़ चित्रण एवं लोक धर्म का अनूठा संगम मिलता है।
प्रश्न: देवनारायणजी की फड़
उत्तर: राजस्थान के लोकप्रिय लोकदेवता देवनारायणजी की कष्ट निवारक के रूप में विशेष मान्यता होने से लोगों की मनौती पूर्ण होने पर गुर्जर जाति के भोपों द्वारा जंतर वाद्य यंत्र से इनकी फड़ का वाचन करवाया जाता है। इनकी फड़ सर्वाधिक बडी है जिस पर इनका जीवन वृत लोक शैली के चित्रों में वर्ण व्यंजना एवं विन्यास के साथ चित्रित किया जाता है। इनकी फड़ में नाट्य, गायन, मौखिक साहित्य, चित्रकला एवं लोक धर्म का अनूठा संगम मिलता है। 1992 में भारत सरकार ने इस फड़ पर डाक टिकिट जारी किया है।
निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न: राजपूत (राजस्थानी) चित्रकला की मुख्य विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर: 16वीं से 19वीं सदी तक विभिन्न शैलियों, उपशैलियों में परिपोषित राजस्थानी चित्रकला निश्चय ही भारतीय चित्रकला के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। अनेक समकक्ष शैलियों से प्रभावित होने के पश्चात् भी राजस्थानी चित्रकला का अपना मौलिक स्वरूपध्निजी विशेषताएं हैं, जो निम्नलिखित हैं –
1. प्राचीनता – राजस्थानी चित्रकला की शैली की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है जिसकी निरंतरता बनी हुई है। श्दरश् भरतपुर से पाषाण कालीन – गुहाचित्र मिलते हैं।
2. भारतीयता – यह विशुद्ध भारतीय शैली है जिसमें प्रत्येक चित्र पर भारतीयता की छाप दिखाई देती है।
3. कलात्मकता – इस शैली में अजन्ता शैली, जैन शैली, अपभ्रंश शैली और मुगल शैली का समन्वय होकर एक नई कलात्मकता विकसित हुई है।
4. रंगों की विशिष्टता – राजस्थानी चित्रकला में भड़कीले, चटकीले, लाल पीले रंगों का प्रयोग एवं उनकी वर्ण . व्यंजना तथा विन्यास
अभूतपूर्व है।
5. नारी सौन्दर्यता – यह शैली नारी सौन्दर्यता की खान है जिसमें कमल की तरह उत्फुल्ल बडे नेत्र, लहराते हुए केश, घन स्तन, क्षीणकटि और लालित्य अंगयष्टि समाया हुआ है।
6. प्रकृति परिवेश की अनुरूपता – प्राकृतिक सरोवर, कदली वृक्ष, उपवन, पेड़-पौधे, फूल-पत्तियां, पश-पक्षी. केलि करते हुए हंस, सतरंगा गगन आदि का सुन्दर चित्रांकन राजस्थानी चित्रकला की अपनी विशेषता है।
7. विषयवस्त का वैविध्य – यह शैली विषय वस्तु की दृष्टि से अत्यधिक वैविध्यपूर्ण हैं। यह पौराणिक, ऐतिहासिक . वीर रस एवं भंगार रस, शिकार, युद्ध, दरबारी इत्यादि असंख्य विषयों पर आधारित है। बारहमासा, रागरागिनी. आदि काव्य इस चित्रशैली की अपनी निजी विशेषता है।
8. देशकाल की अनुरूपता – इसमें राजपूती सभ्यता और संस्कृति तथा तत्कालीन परिस्थिति, भक्तिकाल एवं शनि काल का सजीव चित्रण
हुआ है।
9. राजस्थानी सस्कृति की अभिव्यक्ति – राजस्थानी चित्रकला में राजस्थानी संस्कृति के हर पहलू को चित्रित किया गया है। यहां के लोक देवी – देवता, संत, कवि, मान्यताएं, संस्कार आदि सभी की स्पष्ट अभिव्यक्ति की गई हैं।
10. लोक जीवन की भावनाओं की बहलता एवं जनसमुदाय को महत्व दिया गया है।
11. मनो भावों को चित्रात्मक अभिव्यक्ति राजस्थानी चित्रशैली का प्राण है। भक्ति एवं श्रृंगार का सामंजस्य इस और विशेष देखने को मिलता है।
इस प्रकार भारतीय चित्रकला की सर्वोत्कृष्ट दाय अजन्ता शैली की समृद्ध परम्परा को वहन करने वाली राज ला का महत्व बरकरार है। मेवाड़ में जन्मी एवं सम्पूर्ण राजस्थान में शैलियों, उपशैलियों के माध्यम से विकसित पल्लवित होकर राजस्थानी चित्रकला ने भारतीय कला जगत को विशेषतः समृद्ध किया है।
प्रश्न: राजस्थानी चित्रकला के विभिन्न समदायों एवं उनकी विषयवस्त का वर्णन कीजिए। राजस्थानी चित्रकला की शैलियों को
उत्तर: भौगोलिक, सांस्कृतिक आधार पर चार प्रमुख स्कूलों एवं अनेक उपस्कूलों में विभाजित किया गया है, जो निम्न हैं
1. मेवाड़ स्कूल रू चावंड शैली, उदयपुर शैली, नाथद्वारा शैली, देवगढ़ उपशैली, सावर उपशैली, शाहपुरा उपशैली तथा । बनेड़ा, बागौर,
बेगूं, केलवा आदि ठिकाणों की कला।
2. मारवाड़ स्कूल रू जोधपुर शैली, बीकानेर शैली, किशनगढ़ शैली, अजमेर शैली, नागौर शैली, सिरोही शैली, जैसलमेर शैली तथा घाणेराव, रियाँ, भिणाय, जूनियाँ आदि ठिकाणा कला।
3. हाड़ौती स्कूल रू बूंदी शैली, कोटा शैली, झालावाड़ उपशैली।
4. ढूँढाड़ स्कूल रू आम्बेर शैली, जयपुर शैली, शेखावाटी शैली, अलवर शैली, उणियारा उपशैली तथा झिलाय, ईसरदा, शाहपुरा, सामोद आदि ठिकाणा कला।
1. मेवाड़
मेवाड़ चित्रकला का प्रारम्भिक उदाहरण 1605 ईसवी में मिसर्दी द्वारा उदयपुर के निकट एक छोटे से स्थान चावंद में चित्रित की गई रागमाला की एक श्रृंखला है। इस श्रृंखला की अधिकांश चित्रकलाएं श्री गोपी कृष्ण कनोडिया के संग्रह में हैं। रागमाला की एक अन्य श्रृंखला को साहिबदीन ने 1628 ईसवी में चित्रित किया था। इस श्रृंखला की कुछ चित्रकलाएं जो पहले खंजाची संग्रह के पास थी जो अब राष्टीय संग्रहालय, नई दिल्ली में हैं। मेवाड़ चित्रकला के अन्य उदाहरण हैं1651 ईसवी की रामायण की तृतीय पुस्तक (अरण्य काण्ड) का सचित्र उदाहरण जो सरस्वती भण्डार, उदयपुर में हैं, 1653 ईसवी की रामायण की सातवीं पुस्तक (उत्तर काण्ड) जो ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन में है और लगभग इसी समय की रागमाला चित्रकला की एक श्रृंखला राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में है। 1628 ईसवी में साहिबदीन द्वारा चित्रित की गई रागमाला श्रृंखला का एक उदाहरण अब राष्ट्रीय संग्रहालय में है जो ललित रागिनी को दर्शानेवाली एक चित्रकला है। नायिका एक ऐसे मण्डप के नीचे एक बिस्तर पर लेटी हुई है तथा उसकी आंखें बन्द हैं जिसमें एक द्वार भी है। एक दासी उसके चरण दबा रही है। नायक बाहर खड़ा है, उसके हाथ में एक पुष्पमाला है। अग्रभाग में एक सज्जित अश्व है और दूल्हा मण्डप की सीढ़ियों के निकट बैठा हुआ है। आरेखण मोटा है और वर्ण चमकीले तथा विषम हैं। चित्रकला का आलेख पीत भूमि पर सबसे ऊपर श्याम रंग से लिखा गया है।
2. बूंदी
चित्रकला की बूंदी शैली मेवाड़ के अति निकट है लेकिन बूंदी शैली गुणवत्ता में मेवाड़ शैली से आगे है। बूंदी में चित्रकला लगभग 1625 ईसवी में प्रारम्भ हो गई थी। भैरवी रागिनी को दर्शाते हुए एक चित्रकला इलाहाबाद संग्रहालय में हैं जो बूंदी चित्रकला का एक प्रारंभिक उदाहरण है। इसके कुछ उदाहरण हैं- कोटा संग्रहालय में भागवत पुराण की एक संचित्र पाण्डुलिपि और राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रसिकप्रिया की एक श्रृंखला।
सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में रसिकप्रिया की एक श्रृंखला में एक दृश्य है जिसमें कृष्ण एक गोपी से मक्खन लेने का प्रयास कर रहा है लेकिन जब उसे यह पता चलता है कि पात्र में एक वस्त्र का टुकड़ा और कुछ अन्य वस्तुएं हैं लेकिन मक्खन नहीं है तो वह यह समझ जाता है कि गोपी ने उससे छल किया है। पृष्ठभूमि में वृक्ष और अग्रभाग में एक नदी है जिसे तरंगी रेखाओं द्वारा चित्रित किया गया है, नदी में फूल और जलीय पक्षी दिखाई दे रहे हैं। इस चित्र का चमकीले लाल रंग का एक किनारा है, जैसा कि इस लघु चित्रकला से स्पष्ट होता है। बूंदी चित्रकला के विशेष गुण भड़कीले तथा चमकीले वर्ण, सुनहरे रंग में उगता हुआ सूरज, किरमिजी-लाल रंग का क्षितिज, घने और अध-प्रकृतिवादी वृक्ष हैं। चेहरों के परिष्कृत आरेखण में मुगल प्रमाण और वृक्षों की अभिक्रिया में प्रकृतिवाद का एक तत्व दृष्टिगोचर है। आलेख पीत भूमि पर सबसे ऊपर श्याम रंग से लिखा गया है।
3. कोटा
बूंदी शैली से काफी कुछ सदृश्य चित्रकला की एक शैली अठारहवीं शताब्दी के अन्त में और उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान बूंदी के निकट एक स्थान कोटा में भी प्रचलित थी। बाघ और भालू के आखेट के विषय कोटा में अति लोकप्रिय थे। कोटा की चित्रकला में अधिकांश स्थान पर्वतीय जंगल ने ले लिया है जिसे असाधारण आकर्षण के साथ प्रस्तुत किया गया है।
4. आमेर-जयपुर
आमेर राज्य के मुगल सम्राटों से घनिष्ठतम संबंध थे। सामान्यतः यह माना जाता है कि सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आमेर राज्य की पुरानी राजधानी आमेर में चित्रकला के एक विद्यालय की स्थापना हुई। बाद में अठारहवीं शताब्दी में कलात्मक क्रियाकलाप का केन्द्र नई राजधानी जयपुर चला गया था। जयपुर के शासकों की काफी बड़ी संख्या में प्रतिकृतियां और अन्य विषयों पर लघु चित्रकलाएं हैं जिनका श्रेय निश्चित रूप से जयपुर शैली को जाता है।
5. मारवाड़
मारवाड़ में चित्रकला के प्रारम्भिक उदाहरणों में से एक 1623 ईसवी में वीरजी नाम के एक कलाकार द्वारा मारवाड़ में ‘पाली में चित्रित की गई रागमाला की एक श्रृंखला है जो कुमार संग्राम सिंह के संग्रह में है। लघु चित्रकलाओं को एक आदिम तथा ओजस्वी लोक शैली में निष्पादित किया जाता है तथा ये मुगल शैली से कदापि प्रभावित नहीं हैं। प्रतिकृतियों, राजदरबार के दृश्यों, रंगमाला की श्रृंखला और बड़ामास, आदि को शामिल करते हुए बड़ी संख्या में लघु चित्रकलाओं को सत्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक मारवाड़ में पाली, जोधपुर और नागौर आदि जैसे चित्रकला के अनेक केन्द्रों पर निष्पादित किया गया था।
6. बीकानेर
बीकानेर उन राज्यों में से एक था जिनके मुगलों के साथ घनिष्ठ संबंध थे। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तराद्ध में कुछ मुगल कलाकारों को बीकानेर के राजदरबार ने संरक्षण प्रदान किया था और ये चित्रकला की एक ऐसी नई शैली को प्रारम्भ करने के प्रति उत्तरदायी थे जिसकी मुगल और दक्कनी शैलियों से काफी समानता थी। लगभग 1650 ईसवी में बीकानेर के राजा कर्ण सिंह ने एक महत्त्वपूर्ण कलाकार अली रजा. श्दिल्ली के उस्तादश् को नियोजित किया था। बीकानेर के राजदरबार में कार्य करने वाले कुछ अन्य अंसाधारण कलाकार रुकनुद्दीन और उनका सुपुत्र शाहदीन थे।
7. किशनगढ़
अठारहवीं शताब्दी के दूसरे चतुर्थाश के दौरान, राजा सावंत सिंह (1748-1757 ईसवी) के संरक्षणाधीन किशनगढ़ में राजस्थान की एक सर्वाधिक आकर्षक शैली का विकास हुआ था। राजा सावंत सिंह ने नागरीदास के कल्पित नाम से कृष्ण की प्रशंसा में भक्तिपूर्ण काव्य लिखा था। दुर्भाग्यवश, किशनगढ़ की लघु-चित्रकलाएं बहुत कम मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसा माना जाता है कि इनमें से अधिकांश की रचना उस्ताद चित्रकार निहालचन्द ने की थी जो अपनी कला-कृतियों में अपने उस्ताद की गीतात्मक रचनाओं की दृश्य प्रतिभाओं का सृजन करने में सक्षम रहे हैं। कलाकार ने छरहरे शरीरों और संुदर नेत्रों के साथ मानव आकृतियों को नजाकत से चित्रित किया है। राष्ट्रीय संग्रहालय के संग्रह में किशनगढ़ विद्यालय की एक सुन्दर लघु चित्रकला को यहां सचित्र प्रस्तुत किया गया है। यह संध्या में कृष्ण के अपने गोपिकाओं और गायों के साथ गोकल लौटने के सुन्दर ग्रामीण दृश्य को चित्रित करती है। इस चित्रकला की विशेषता में उत्कृष्ट आरेखण, मानव आकृतियों और गायों का सुन्दर प्रतिरूपण और एक झरने, सघन वृक्षों की कतारों और वास्तुकला को दर्शाते हए भदश्यांकन का एक विशाल परिदृश्य शामिल हैं। इस चित्रकला का आन्तरिक किनारा सुनहरा है। इसे अठारहवीं शताब्दी के मध्य का माना जाता है तथा यह किशनगढ़ के प्रसिद्ध कलाकार निहालचन्द की एक कलाकृति हो सकती है।
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