राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण किसने करवाया था वृहदेश्वर मंदिर किसने बनवाया किस स्थान पर बना हुआ है

sri raja rajeshwara temple in hindi was build by whom राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण किसने करवाया था वृहदेश्वर बृहदीश्वर मंदिर किसने बनवाया किस स्थान पर बना हुआ है Brihadeeswara Temple ?

उत्तर :  तंजौर का राजराजेश्वर शिव मंदिर – राजराज प्रथम (वृहदीश्वर मंदिर) ने बनवाया। बृहदीश्वर मन्दिर या राजराजेश्वरम् दोनों एक ही है |
वृहदेश्वर मंदिर – तंजौर के वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण राजराज चोल ने 1000 ई. में करवाया था। मंदिर का सबसे मुख्य अंग गर्भगृह तथा शिखर (विमान) है। पर्सी ब्राउन का मत है कि तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर द्रविड़ शिल्प कला की सर्वोत्तम कृति है और भारतीय वास्तुकला की कसौटी है। भारतीय मन्दिर के संदर्भ में कुंभपंजर, उपपीठ एवं विमान स्थापत्य द्रविड शैली मन्दिर स्थापत्य की विशेषता है, जो चोल शासक राजराजेश्वर द्वारा निर्मित तंजौर मन्दिर का संघटक तत्व है।
मूर्तिकला – चोल काल में मूर्तिकला का विशेष विकास हुआ। मूर्तियाँ पत्थर और धातु से बनती थी। शैव, वैष्णव एवं जैन मूर्तियों के साथ अन्य पशु-पक्षियों की भी मूर्तियां बनाई गई। आरम्भिक मूर्तियों में दुर्गा की अष्टभुजा मूर्ति बनी। चोल काल कांस्य की नटराज मूर्तियों के लिए विख्यात है। इसमें शिव नृतक के रूप में है तथा चार हाथ हैं। नागेश्वर के नटराज सबसे बड़े तथा सबसे सुंदर है।

प्रश्न: पाल कालीन बौद्ध मूर्तिकला पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: 8वीं शती ई. के मध्य से 11वीं शती ई. के अंत तक पाल शासक पर्वी भारत की प्रमुख राजनीतिक शक्ति थे और इनके काल में प्रचुर संख्या
में प्रस्तर व धातु मूर्तियों का निर्माण हुआ।
इन स्वतंत्र मूर्तियों के साथ ही नालन्दा के बौद्ध स्तपों एवं राजगिरि के जैन मंदिरों में पालवंशीय मूर्तियों के उदाहरण देखने को मिलते हैं। पाल शासक बौद्ध धर्मावलम्बी थे। अतः उनके शासन काल में बौद्ध देवी-देवताओं की ही सर्वाधिक मूर्तियां बनी। इनमें बुद्ध, पद्मपाणि, अवलोकितेश्वर, मैत्रेय, हारिति, बोधिसत्व, मंजुश्री, तारा आदि की अनेक मूर्तियां हैं। राजगिरी के वैभारगिरी तथा अन्य कई स्थलों से जैन तीर्थकरों, जिन चैमुखी एवं कुछ जैन यक्षियों की मूर्तियां मिली हैं।
पाल मूर्तियां उत्तर मध्यकालीन मूर्तियाँ हैं जिनमें 10वीं शती ई. की मध्ययुगीन कला के तत्त्व यथा भाव-भंगिमाओं की अधिकता, अलंकरण तथा लक्षणों की प्रधानता आदि तत्व प्रभावी रूप से दिखाई देते हैं।
पाल-प्रस्तर मूर्तियों का निर्माण श्गयाश् और श्राजमहलश् से प्राप्त भरे और काले रंग के मुलायम बसाल्ट पत्थर में हुआ है। बोधगया की प्रारंभिक मूर्तियों में मथुरा की कुषाण शैली की मांसलता और घनत्व तथा नालन्दा की मूर्तियों में सारनाथ शैली का प्रभाव स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है।
पाल मूर्तियां पूर्णतया प्रतिमाशास्त्रीय विवरणों पर आधारित और 10वीं-11वीं शती ई. में विकसित लक्षणों से बोझिल-सी दिखाई देती हैं। पाल मूर्तियों में मुख्यतया दैव-प्रतिमाओं के ही उदाहरण मिलते हैं। पाल शैली की मूर्तियाँ या तो चारों ओर से कोरकर बनाई गई हैं अथवा पाषाण शिला पर उत्कीर्ण फलक शिल्प की परम्परा में विकसित हुई हैं जिसका प्रारम्भ गुप्तकाल से ही देखा जा सकता है।
बुद्ध (कांस्य प्रतिमा) रू पालवंशीय यह प्रतिमा श्कुर्किहारश् (गया, बिहार) से प्राप्त हुई है जो 11वीं शती ई. की रचना है तथा सम्प्रति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है।
बुद्ध (प्रस्तर प्रतिमा) भूमि स्पर्श मुद्रा रू पाल शैली का यह प्रतिमा फलक नालन्दा (बिहार) से प्राप्त हुआ है जो 10वीं शती ई. की रचना है। बौद्ध देवी मारीची – इस मूर्ति फलक में देवी मारीची को अष्टभुजी व साथ ही त्रिमुखी देवी के रूप में उत्कीर्ण किया गया है। पाल शैली में निर्मित देवी का यह मूर्तिशिल्प बिहार प्रान्त से प्राप्त हुआ है जो लगभग 9वीं शती ई. की रचना है। बुद्ध नलगिरी हाथी को शांत करते हुए बुद्ध धर्म-चक्र-प्रवर्तन मुद्रा में – यह प्रतिमा शिल्प बोध गया, विहार से प्राप्त हुआ है जो कि 11वीं शताब्दी की रचना है। धर्म-चक्र-प्रवर्तन मुद्रा की ही एक अन्य मूर्ति शिल्प बंगाल से प्राप्त हुआ।
लक्खी सराय (मुंगेर) से एक सुन्दर बुद्ध प्रतिमा प्राप्त हुई है।
पद्मपाणि बोधिसत्व की 9वीं शती ई. की पालकालीन मूर्ति भारत कला भवन, वाराणसी में है।
नालन्दा से प्राप्त लगभग 10वीं शती ई. की श्अवलोकितेश्वरश् की शांत और चितंनशील मूर्ति में दोनों पाश्वों में श्ताराश्और श्भृकुटिश् की आकृतियां भी बनी हैं।
नालन्दा से ही प्राप्त लगभग 9वी शती ई. की पद्मपाणि बोधिसत्व तथा 10वीं शती ई. की वज्रसत्व की अत्यन्त सुन्दर, शांत और जीवंत मूर्तियाँ भी यहां उल्लेखनीय हैं।
विसनपुर (गया) से “मैत्रेय” की एक मूर्ति प्राप्त हुई है।
ब्राह्मण मर्तिशिल्प रू पाल शैली में निर्मित ब्राह्मण देवों की भी अनेक मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें सूर्य, विष्णु (एकाकी एवं नरसिंह. वामन, त्रिविक्रम), शिव (लिंगरूप, पंचायतन शिवलिंग, भैरव, कल्याण-सुन्दर, उमा-महेश्वर, सदाशिव), पार्वती (कार्तिकेय सहित), सरस्वती, दुर्गा, महिष-मर्दिनी, सप्तमातृका (नालन्दा-10वीं शती ई., सम्प्रति राज्य संग्रहालय, लखनऊ एवं राजगिर), चामुण्डा, गणेश, नवग्रह, रेवन्त, रति एवं तृष्णा सहित कामदेव एवं नाग आदि की मूर्तियाँ मुख्य हैं।
जैन मर्तिशिल्प रू पाल शैली के अंतर्गत बनाये गये जैन धर्म के स्वतंत्र मूर्तिशिल्प भी बहुतायत से प्राप्त हुए हैं। राजगिर के वैभारगिरी तथा अन्य अनेक स्थलों से जैन तीर्थकरों, जिन चैमुखी (नालन्दा संग्रहालय) एवं यक्षियों की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। विशेषकर वैभारगिरी के जैन मंदिरों में ऋषभनाथ, शम्भवनाथ, मुनिसुव्रत, पार्श्वनाथ एवं जैन युगलों की 8वीं से 11वीं शती ई. के मध्य की अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।
प्रश्न: चोल स्थापत्य कला पल्लव वास्तुकला का ही विकसित रूप था। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: पल्लव वास्तुकला का इतिहास में बहत महत्व है। बौद्ध चैत्य विहारों से विरासत में मिली हुई कला का उन्होंने विकास कि और एक नवीन शैली को जन्म दिया जो कि चोल और पाण्ड्य काल में पूर्ण रूप से विकसित हुई। मंदिरों के निर्माण । जिस द्रविड शैली का आरम्भ पल्लवों के काल में हुआ, चोल नरेशों के काल में उसका अत्यधिक विकास हुआ।
मंदिरों का निचला भाग वर्गाकार एवं मस्तक गबंदाकार होता है। मंदिर का आंगन विस्तृत तथा ऊंची दीवारों से आवत ने गोपुरम युक्त होता है। आगन में छोटे-छोटे देवालय, शिखर पर आमलक व कलश स्थित तथा गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ होता है। शिखर बहुखण्डीय एवं अलंकृत स्तम्भ युक्त हैं। इसका क्षेत्र कृष्णा से कन्याकुमारी तक फैला हआ है। प्रमुख मंदिर निम्नलिखित हैं
तंजौर का नारट्टामलई दुर्गा मंदिर – विजयालय ने बनवाया जो प्रारम्भिक चोल शैली का मंदिर है।
कन्नूर का बालसुब्रह्मण्यम शिव मंदिर – आदित्य प्रथम ने बनवाया।
त्रिचनापल्ली का कोरंगनाथ शिव मंदिर – परांतक प्रथम ने बनवाया।
चिदम्बरम का गंगैकौण्डचोल पुरम मंदिर – राजेन्द्र प्रथम ने बनवाया।
तंजौर का ऐरावतेश्वर मंदिर – राजराज द्वितीय ने बनवाया।
तंजौर का कम्पेश्वर मंदिर – कुलोत्तुंग तृतीय ने बनवाया।