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राग की परिभाषा क्या है ? कौन सा राग कब गाया जाता है ? किसे कहते है अर्थ किस राग का सबसे प्रमुख स्वर

जाने : राग की परिभाषा क्या है ? कौन सा राग कब गाया जाता है ? किसे कहते है अर्थ किस राग का सबसे प्रमुख स्वर ?

राग
‘राग‘ शब्द संस्कृत शब्द ‘रंज‘ से आया है, जिसका शब्दिक अर्थ व्यक्ति को आनंदित करना या प्रसन्न कर संतुष्ट करना होता है। राग मधुर गीत में के आधार होते हैं जबकि ‘ताल‘ ‘लय‘ का आधार बनता है। राग की प्रत्येक मधुर संरचना में अलग व्यक्तित्व के विषय में और ध्वनियों द्वारा पैदा किए गए मनोभावों के सदृश्य होते हैं। राग के संचालन का आधारभूत तत्व स्वर होता हैं, जिस पर यह आधारित होता है। राग में स्वरों की संख्या के अनुसार, तीन मुख्य जातियां या श्रेणियां हैंः
ऽ ओढवः यह ‘पेंटाटॉनिक‘ राग है, इसमें 5 स्वर सम्मिलित हैं
ऽ शाढ़व रागः ‘हेक्साटॉनिक‘ राग है, इसमें 6 स्वर सम्मिलित हैं
ऽ संपूर्ण रागः ‘हेप्टाटॉनिक‘ राग है, इसमें 7 स्वर सम्मिलित हैं

राग का न तो पैमाना होता है न ही विधा होती है, बल्कि अपनी विचित्र आरोही और अवरोही गतियों के साथ यह वैज्ञानिक, सटीक, सूक्ष्म और सौंदर्य का मधुर रूप होता है। इसमें पूर्ण सप्तक, या 5 या 6 या 7 स्वरों की श्रृंखला होती है। तीन प्रमुख प्रकार के राग या राग भेद होते हैं।

शुद्ध राग
यह वह राग है जिसमे यदि कोई भी स्वर जो रचना में अनपस्थित होता है. उसे गाया जाता है तो इसकी प्रकति और रूप में परिवर्तन नहीं होता है।

छायालग राग
यह वह राग है जिसमें यदि कोई भी स्वर जो रचना में उपस्थित होता है, उसे गाया जाता है तो इसकी प्रकृति और रूप में परिवर्तन होता है।

संकीर्न राग
यह वह राग है जिसमें दो या दो से अधिक रागों का संयोजन होता है। इसलिए, प्रत्येक राग में ये 5 आधारभूत स्वर होने चाहिए। इन रागों मेंः

ऽ ‘राजा‘ वह प्रमुख स्वर है, जिस पर राग निर्मित होता है। इसे ‘वादी‘ कहा जाता है और यह वह स्वर होता है जिसका गीत रचना में सबसे अधिक बार प्रयोग किया जाता है।
ऽ अगला महत्वपूर्ण स्वर ‘रानी‘ है। यह प्रमुख राग के संबंध में चैथे या पांचवें स्वर के रूप में होती है। ‘राग‘ के इस दूसरे सबसे महत्वपूर्ण स्वर को ‘सम्वादी‘ कहा जाता है।
ऽ वादी और सम्वादी के अतिरिक्त संरचना में अन्य सभी स्वरों को अनुवादी कहा जाता है ।
ऽ अन्त में, रचना में अनुपस्थित स्वरों को ‘विवादी‘ कहा जाता है।
इसके अतिरिक्त, स्वरों के आरोह का यह अर्थ होता है कि प्रत्येक स्वर पर्ववर्ती स्वर की तलना में ऊंचा होता है. उदाहरण के लिए, सा रे गा मा पा धा नी । इस आरोहण को आरोह कहा जाता है। इसी प्रकार से, अवरोहण को अवरोह कहा जाता है। इसमें प्रत्येक स्वर पूर्ववर्ती स्वरों की तुलना में धीमा होता है। उदाहरण के लिए, नी, धा, पा, मा, गा, रे, सा। स्वरों के आरोहण और अवरोहण के आधार पर, रागों को तीन गतियों में बांटा जा सकता है- विलम्बित (धीमा); मध्य (मध्यम) और द्रुत तीव्र।
काटिक संगित में 72 मेला कर्ता या मूल पैमाने होते हैं जिन पर राग आधारित होते हैं। हिन्दुस्तानी संगीत में छह मुख्य रागों क आधार हैं और ये सब समय और ऋतु विशिष्ट होते हैं और विशेष प्रकार की भावना का आह्वान करते हैंः
राग समय ऋतु मनोभाव
भैरव प्रातः काल शरद्(।नजनउद) शांति
हिण्डोंल भोर बसंत युवा जोड़े की मिठास का आह्वान करता है
दीपक रात ग्रीष्मकाल करूणा
मेध दिन के मध्य/दोपहर वर्षा ऋतु साहस
श्री सायंकाल शीतकाल हर्ष
मालकंस मध्यरात्रि शीतकाल वीर

परिचय
संगीत किसी भी संस्कृति की आत्मा होती है और भारत में संगीत की सुदीर्घ परंपरा रही है। भारतीय संगीत का इतिहास अति जटिल है। इसका उद्भव शास्त्रीय संगीत से हुआ और इसमें पश्चिमी तत्व समाहित हो गए और यह संयोजन हमारी आत्मा के साथ प्रतिध्वनित होता है। यह कहा जाता है कि पृथ्वी पर नारद मुनि (ऋषि) ने संगीत कला का शुभारंभ किया था। उन्होंने नारदब्रह्म नामक पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त ध्वनि के विषय में भी यहां के निवासियों को बताया था।
हमें पहली बार दो हजार वर्ष पहले वैदिक काल में संगीत का साहित्यिक प्रमाण मिलता है। राग कराहारप्रिया के सभी सातों स्वर साम वेद में अवरोही क्रम में पाए जा सकते हैं। कुछ संगीतविद् भी कहते हैं कि सबसे प्रारंभिक राग साम राग था। उन्होंने ओम शब्द को सभी रागों और स्वरों का स्रोत होने के विषय में सिद्धांत प्रतिपादित किया है। 500 ईसा पूर्व में पाणिनी ने संगीत कला का पहला वास्तविक संदर्भ दिया है लेकिन संगीत सिद्धांत के पहले संदर्भ की चर्चा चैथी शताब्दी ईस्वी में लिखित और संकलित भरत के नाट्यशास्त्र में मिलती है।

भारतीय संगीत का इतिहास
भारतीय संगीत का सर्वाधिक विकास भक्ति स्थलों पर बजाए जाने वाले संगीत से प्रभावित रहा है। इस प्रकार का कर्मकांडीय संगीत संगम नामक संगीत के प्रकार के माध्यम से उत्तर वैदिक काल में प्रदर्शित किया जाता था, जिसमें छंदों का जप सम्मिलित होता था एवं जिसे संगीत धुनों के अनुरूप बनाया जाता था। यहाँ तक कि जतिगान् नामक संगीत के कथात्मक प्रकार के लिए महाकाव्य भी निर्धारित किए गए थे। संगीतविदों का तर्क है कि द्वितीय शताब्दी और 7वीं शताब्दी के बीच, संस्कृत में लिखा गया प्रबंध संगीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। यह भारतीय संगीत के स्वर्ण युग माने जाने वाले गुप्त काल के आगमन तक जारी रहा और इस समय में ध्रुपद जैसे कई रागों की रचना हुई।
भरत द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र पहली रचना थी जिसमें संगीत विद्या के विषय को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया। इसमें संगीत पर कई महत्वपूर्ण अध्याय हैं, विशेष रूप से वे जिन्होंने सप्तक की पहचान की और इसकी 22 कुंजियों पर विस्तृत रूप से चर्चा की। इन 22 कुंजियों को श्रुतियों के रूप में पहचाना गया। प्रति सप्तक 22 श्रुतियों के अस्तित्व का समर्थन करने वाले ‘दातीलम‘ में भी यह भेद प्रतिपादित कर सकता है। संगीतविद् सारंगदेव द्वारा रचित 13वी सदी की पुस्तक संगीत रत्नाकर में भी इस दृष्टिकोण को रखा गया है।
संगीत रत्नाकर 264 रागों के बारे में बताता है जिनमें कुछ उत्तर भारतीय तथा द्रविड़ रंगपटल की सूची से लिए गए है। इसका सबसे बड़ा योगदान विभिन्न ‘माइक्रोटोन्स‘ की पहचान करना, उनका वर्णन करना तथा अलग-अलग श्रेणियों में उन्हें वर्गीकृत करना है। संगीत विद्या पर कई मध्ययुगीन ग्रंथ कुछ विशिष्ट विषयों पर केंद्रित हैं, उदाहरण के लिए, मतंग द्वारा 9वीं शताब्दी में लिखित बृहद्देशी ‘राग‘ शब्द की परिभाषा पर केंद्रित है।
इसी प्रकार से, 11 वीं सदी का नंद द्वारा रचित ग्रंथ संगीत मकरंद 93 रागों और उन्हें स्त्रीलिंग और पुल्लिंग प्रजातियों में वर्गीकृत करने का प्रयास करता है। इस अवधि का एक दूसरा महत्वपूर्ण ग्रंथ 16वीं सदी में रामामात्य द्वारा लिखित स्वरमेला-कलानिधि है।
17वीं सदी में वेंकटमखी द्वारा लिखित चतुर्डंडी-प्रकाशिका भी संगीत विद्या पर महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए प्रसिद्ध है। प्राचीन और प्रारंभिक मध्यकाल के दौरान, हमें ऐसे गुरुकलों के अस्तित्व के साक्ष्य मिलते हैं जहां संगीत कला में प्रवीण बनने के लिए छात्र शिक्षक के साथ रहते थे।

गुरुकुल प्रणाली
ऽ इसे आश्रम (आश्रम प्रणाली) के रूप में भी जाना जाता था और इसमें गुरु-शिष्य परंपरा सन्निहित थी
यानी शिक्षक और छात्र के संबंध बहुत घनिष्ठ होते थे।
ऽ प्राचीन काल में, शिक्षक या अध्यापक ऋषि मुनि हुआ करते थे और छात्रों को 12 वर्ष तक आश्रम में रहना
पड़ता था और गुरु की सेवा करते हुए ज्ञान प्राप्त करना होता था। आश्रमों को राजाओं और समाज के
धनी व्यक्तियों द्वारा संरक्षण दिया जाता था।
ऽ आश्रम में जीवन कठोर, चिंतन-मनन और प्रत्यक्ष अनुभव के माध्यम से ज्ञान द्वारा भरा होता था।
ऽ सभी छात्रों, चाहे राजकुमार हो या आम आदमी, से समान व्यवहार किया जाता था और कोई
भेदभाव नहीं होता था।

संगीत के स्वरूप में परिवर्तन फारसी तत्वों के प्रभाव से आया। इस्लामी और फारसी तत्वों के इस प्रवेश ने उत्तर भारतीय संगीत का चेहरा परिवर्तित कर दिया, उदाहरण के लिए, शासकों द्वारा संरक्षित गायन की भक्ति शैली 15वीं सदी तक धु्रपद (क्ीतनचंक) शैली में रूपांतरित हो चुकी थी। 17वीं शताब्दी तक, गायन का नया रूप हिंदुस्तानी संगीत में विकसित हो चका था। इसे ख्याल शैली कहा जाता है। इसके अतिरिक्त, ‘लोक‘ गायन की अधिक-से-अधिक शैलियां इस अवधि में उभरने लगी थीं।

भारतीय संगीत का रचना विज्ञान
इससे पहले कि कोई भारतीय संगीत के अलग-अलग प्रकारों और शैलियों के विषय में विशद जानकारी दे, भारतीय शास्त्रीय संगीत के रचना विज्ञान को समझना आवश्यक है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के तीन मुख्य स्तंभ हैंः राग, ताल और स्वर। इन तत्वों को इस प्रकार देखा जा सकता है:

स्वर
प्राचीन काल में, ‘स्वर‘ शब्द वेदों के सस्वर पाठ से जुड़ा हुआ था। समय के साथ इस शब्द की रचना में ‘स्वर‘ या ‘स्केल डिग्री‘ को परिभाषित करने के लिए प्रयोग किया जाने लगा। नाट्यशास्त्र में भरत ने बाईस स्वरों के पैमाने में स्वरों को विभाजित किया है। वर्तमान में, हिंदुस्तानी संगीत की सांकेतिक पद्धति इन सात (7) संक्षिप्त एवं शुद्ध स्वरों – सा, रे, ग, म, प, ध, नि – द्वारा परिभाषित होती है। निम्नलिखित नामों का उपयोग करके प्रत्येक स्वरमान को सूचीबद्ध किया हैः
स्वरमान के नाम कार्य संक्षिप्ताक्षर
षड्ज (Shadja) टॉनिक सा
ऋषभ (Rishabha) सुपर टॉनिक रे
गंधर्व (Gandharva) मध्यम स्वर ग
मध्यम (Madhyama) उप-प्रमुख म
पंचम (Panchama) प्रमुख प
धैवत (Dhaivata) उप-मध्यम ध
निषाद (Nishada) सब्टॉनिक नि

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