योजना आयोग क्या है , को समझाइये ? | योजना आयोग के तीन कार्य की स्थापना | Planning Commission in hindi

Planning Commission in hindi upsc योजना आयोग क्या है , को समझाइये ? | योजना आयोग के तीन कार्य की स्थापना ?

योजना आयोग
(Planning Commission)
योजना आयोग का गठन केंद्र सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा 15 मार्च 1950 को किया गया था। इस तरह योजना आयोग न तो संवैधानिक संस्था है और न ही विधिक बल्कि यह एक संविधानेत्तर (Extra Constitutional) संस्था है जिसकी प्रकृति सलाहकारी (Advisory) है।
भारत का संविधान नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इसके साथ ही राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का भी प्रावधान करता है। इसमें राज्य से यह अपेक्षा की गई है कि वह लोगों के कल्याण के लिए ऐसे सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिसमें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय की प्राप्ति हो सके। अर्थात् नागरिकों जिसमें महिला एवं पुरुष दोनों शामिल हैं, को आजीविका के साधनों पर बराबर का अधिकार हो देश के भौतिक संसाधनों का नियंत्रण एवं स्वामित्व इस प्रकार हो जिससे कि सामाजिक कल्याण को बढ़ावा मिल सके, आर्थिक व्यवस्था का इस तरह संचालन हो जिससे कि धन का केन्द्रीकरण न हो सके या सामान्य कल्याण में बाधा न बने आदि। इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के सन्दर्भ में योजना आयोग का गठन किया गया। राज्य सरकारें योजना आयोग में प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। इस तरह योजना आयोग पूर्णतया केन्द्रीय संस्था है।

योजना आयोग की संरचना (Structure of Planning Commission): भारत का प्रधानमंत्री योजना आयोग का पदेन (de-facto) अध्यक्ष होता है। आयोग का उपाध्यक्ष पूर्ण कालिक कार्यकारी होता है। योजना का प्रारूप बनाने तथा उसे केन्द्रीय मंत्रिमंडल के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए वह उत्तरदायी होता है। उसे कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है लेकिन वह मंत्रिपरिषद का सदस्य नहीं होता है। बिना मताधिकार के वह कैबिनेट की बैठकों में भाग कुछ केन्द्रीय मंत्री इसके अशकालिक सदस्य होते हैं। आयोग का एक सदस्य सचिव होता है जो सामान्यतया भारतीय प्रशासनिक सेवा का आधकारी होता ही वर्तमान में सुश्री सिन्धुश्री खुल्लर आयोग की सदस्य सचिव है।’
आयोग में दैनिक कार्य सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत पर आधारित होता है। हालांकि सुविधा के लिए प्रत्येक सदस्य को कई विषय आबंटित किए जाते हैं। उन विषयों से संबंधित तकनीकी एवं अन्य समस्याओं से निपटना उस सदस्य को ही दायित्व होता है। महत्त्वपूर्ण नीतियों के संदर्भ में पूरा आयोग विचार करता है। आयोग के अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री इसमें भाग लेते हैं और सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों से संबंधित नीतियों पर निर्देश देते हैं।
आयोग में कुल 30 प्रभाग (Division) है- (1) कषि (2) संचार एवं सूचना तकनीकी (3) विकेन्द्रीकृत योजना एवं पंचायती राज, (4) पर्यावरण एवं वन, (5) स्वास्थ्य, परिवार कल्याण एवं पोषण (6) आवास एवं शहरी मामले, (7) वित्तीय संसाधन (8) मानव संसाधन विकास, (9) उद्योग, (10) आधारभूत संरचना. (11) अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, (12) अंतर्राष्ट्रीय संबंध प्रकोष्ठ (13) श्रम रोजगार एवं मानव संसाधन, (14) खनिज, (15) अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ, (16) योजना समन्वय एवं प्रबन्धन, (17) बिजली एवं ऊर्जा, (18) प्रोजेक्ट मूल्यांकन एवं प्रबन्धन, (19) ग्रामीण विकास, (20) विज्ञान एवं तकनीक, (21) सामाजिक न्याय एवं कल्याण, (22) सामाजिक आर्थिक अनुसंधान, (23) राज्य योजना, (24) यातायात एवं पर्यटन, (25) ग्रामीण एवं लघु उद्योग, (26) स्वैच्छिक कार्य प्रकोष्ठ, (27) जल संसाधन प्रकोष्ठ, (28) महिला एवं बाल विकास, (29) विकास नीति एवं परिप्रेक्ष्य योजना (Perspective Planning), (30) कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन।

योजना आयोग के कार्य (Functions of Planning Commission)
1950 के प्रस्ताव में योजना आयोग के निम्नलिखित कार्य बताए गए हैं-
1. देश के भौतिक (Material), पूंजीगत एवं मानव संसाधनों के साथ-साथ तकनीकी कर्मियों का आकलन करना और यदि ये देश की आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त नहीं हैं तो उनके संवर्द्धन की संभावनाओं की खोज करना।
2. देश के संसाधनों के प्रभावी एवं संतुलित उपयोग हेतु योजना निर्माण करना।
3. प्राथमिकताओं का निर्धारण करना, उन चरणों या स्तरों को परिभाषित करना जिसमें योजना का क्रियान्वयन हो सके, साथ ही प्रत्येक चरण को पूरा करने हेतु संसाधनों के आबंटन हेतु प्रस्ताव देना।
4. उन कारकों की पहचान करना जिससे आर्थिक विकास बाधित होता हो तथा तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों में ऐसी दशा का निर्माण करना जिसमें योजना का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हो।
5. योजना के प्रत्येक चरण के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हेतु यंत्र (Machinery) की प्रकृति का निर्धारण करना।
6. योजना के प्रत्येक स्तर का मूल्यांकन करना और उसी अनुरूप नीतियों एवं उपायों (Measures) में आवश्यक परिवर्तन लाना।
7. योजना आयोग के कर्तव्यों के निवर्हन या तत्कालीन आर्थिक स्थिति, नीतियों, उपायों या विकास कार्यक्रमों के बारे में अंतरिम अनुशंसा करना तथा केन्द्र या राज्य सरकारों द्वारा सन्दर्भित कुछ विशिष्ट समस्याओं के बारे में सलाह देना या उनका परीक्षण करना।

वर्तमान समय में योजना आयोग की प्रासंगिकता (Relevance of Planning Commission in Present Time)
एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या आज के आर्थिक उदारीकरण एवं बाजार अर्थव्यवस्था के दौर में योजना का कोई महत्त्व रह गया है? साथ ही एक अहम सवाल यह भी है कि जिस तरह से विकसित औद्योगिक देशों ने बिना योजना के तीव्र आर्थिक विकास किया है. क्या भारत में भी ऐसा हो सकता है? इस संदर्भ में विश्लेषकों का मानना है कि निश्चित तौर पर भारत भी बिना योजना के विकास कर सकता है लेकिन बिना योजना के भारत जैसे देश को तीव्र आर्थिक विकास करने में एक लम्बा समय लग सकता है जिसकी प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। भारत में अब यह महसूस कियो जाने लगा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत बाजार अर्थव्यवस्था बेहतर परिणाम दे सकती है यदि उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप कम कर दिया जाए। इसके लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देने की भी आवश्यकता है। भारत में 1990 के दशक से निजी क्षेत्र की कार्य क्षमता को सुधारने के लिए प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा दिया गया। विदेशी पूंजी और विदेश व्यापार के लिए अर्थव्यवस्था को खोल दिया गया। लेकिन यह मान लेना एक भूल ही होंगी कि बाजार पर निर्भरता से सारे उद्देश्य पूरा हो जाएंगे। यह वितरणात्मक उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकता क्योंकि बाजार अर्थव्यवस्था से सबको बराबर लाभ नही मिल सकता। बाजार अर्थव्यवस्था को असफल होने से बचाने के लिए कई तरह के सुधारात्मक उपाय करने होते हैं। ऐसी समस्याओं को सरकार के विभिन्न स्तरों पर सोची समझी सुसंगत नीतियों एवं कार्यक्रमों के माध्यम से ही सुलझाया जा सकता है। यहीं से योजना आयोग जैसी संस्था की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। यह सांकेतिक योजना (Indicative Planning) के माध्यम से अर्थव्यवस्था संबंधी व्यापक रूपरेखा तय करती है तथा साथ ही चुनौतियों का भी जिक्र कर दिया जाता है। योजना उन जरूरी आधारभूत संरचना के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है जिनका आयात नहीं किया जा सकता, जैसे- स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली, वायुपत्तन (Airport), पत्तन (Ports), दूरसंचार (Telecommunication), जल आपूर्ति, सीवेज आदि। भारत में इस समय जिस सांकेतिक योजना की बात की जाती है उसके तहत महत्त्वपूर्ण या जोखिमभरे (ब्तपजपबंस) क्षेत्रों की ओर ध्यान खींचा जाता है और इनसे संबंधित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कठोर नीतिगत विकल्पों की पहचान की जाती है। सामान्य तौर पर इसके तहत समस्याओं की तरफ ध्यान खींचा जाता है, समाधान हेतु सामान्य रूपरेखा बनाया जाता है तथा बातचीत का अवसर उपलब्ध कराया जाता है जिससे नीतियों को लागू करने से पहले सभी संबंधित भागीदार भाग ले सकें।
भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च केन्द्रीकृत योजना (Centralised Planning) से सांकेतिक योजना (Indicative Planning) की तरफ बढ़ रहा है। इस सांकेतिक योजना के तहत योजना आयोग देश की प्राथमिकताओं का निर्धारण करता है और दीर्घकालिक भविष्य के लिए सामरिक दृष्टिकोण का निर्माण करता है। यह क्षेत्रवार (Sectoral) लक्ष्यों का निर्धारण करता है तथा उनकी प्राप्ति के लिए प्रोत्साहन प्रदान करता है। राष्ट्रीय विकास संबंधी योजनाओं के निर्माण में अपनी विशेषज्ञ सेवाएं प्रदान करता है। प्राथमिकताओं का निर्धारण करते समय सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में योजनाओं एवं कार्यक्रमों का परीक्षण करता है। यह बात भी ध्यान रखने योग्य हैं कि प्राथमिकताओं का निर्धारण हमेशा आर्थिक आधार पर ही नहीं होता बल्कि सामाजिक आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखकर किया जाता है।
आयोग सामाजिक एवं आर्थिक विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में समग्र रूप से एकीकरण में भूमिका निभाता है। आज भी यह देखा जाता है कि सामाजिक क्षेत्र से जुड़े ग्रामीण स्वास्थ्य, पेयजल, ग्रामीण ऊर्जा, साक्षरता एवं पर्यावरण से संबंधित योजनाओं के सफल क्रियान्वयन हेतु एकीकृत नीतिगत निर्णय लेने की आवश्यकता होती है ताकि इनके बीच बेहतर समन्वय स्थापित किया जा सके। इनके संबंध में एकीकृत निर्णय या उपाय से कम लागत पर बेहतर परिणाम हासिल किया जा सकता है। आयोग का यह प्रयास होता है कि सीमित संसाधनों का कुशलतम उपयोग कर अधिकतम लाभ प्राप्त किया जाए तथा योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु योजना लागत (च्संद व्नजसंल) न बढ़ाकर निश्चित की गई योजना लागत पर ही कार्य दक्षता बढ़ाई जाए।
आज यह देखा जाता है कि केन्द्र एवं राज्यों के बीच संसाधन आबंटन को लेकर तनाव बना रहता है। बजटीय आबंटन को लेकर योजना आयोग पर एक तरह का दबाव देखा जाता है। इस स्थिति में सभी के हितों की देखभाल एवं उनके बीच मध्यस्थ एवं सुविधा प्रदाता की भूमिका में योजना आयोग की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। यह सरकार के लिए थिंक टैंक (Think Tank) की भूमिका निभाता है।
यह हर स्तर के स्व प्रबंधित संगठनों (Self Managed Organisations) पर निर्भर करता है कि उपलब्ध संसाधनों का कुशलतम उपयोग कैसे किया जाए। इस संदर्भ में योजना आयोग व्यवस्था के तहत रहकर व्यवस्था को बदलने हेतु सरकार को परामर्श देता है। अपने अनुभवों के आधार पर योजना आयोग सूचना प्रसार का कार्य भी करता है। योजना आयोग का एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह भी है कि वह समय-समय पर मूल्य स्तर (Price Level) तथा उसके अर्थव्यवस्था पर प्रभाव का अध्ययन कर तथा उसे एक निश्चित स्तर पर बनाये रखने के लिए विचार प्रस्तुत करे।
आर्थिक एवं सामाजिक विकास के संदर्भ में सरकारें तथा योजना आयोग एक-दूसरे की पूरक हैं। कार्यक्रमों एवं नीतियों के निर्माण में योजना आयोग. मंत्रियों को उपयोगी सहायता प्रदान करता है। अपने ज्ञान, अनुभव एवं विशेषज्ञता को एक-दूसरे के साथ बाँटते हैं। योजना आयोग सरकार के लिए एक अनुसंधान संस्था के रूप में भी कार्य करता है।

योजना आयोग के समक्ष चुनौतियाँ (Challenges Before Planning Commission)
योजना आयोग के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती बदलते-समय एवं परिस्थिति के अनुसार अपने आपको ढालने की है। यह देखा गया कि प्रथम पंचवर्षीय योजना से लेकर आठवी पंचवर्षीय तक योजना आयोग का मुख्य ध्यान सार्वजनिक क्षेत्रों के विस्तार पर रहा। हालाँकि नौवीं पंचवर्षीय योजना से उसने एक सलाहकार या सुविधा प्रदाता की भूमिका ग्रहण की। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के दौर में कोई भी देश आर्थिक सामर्थ्य को तब तक हासिल नहीं कर सकता है जब तक कि वह विश्व के अन्य देशों के साथ प्रतिस्पर्धी की क्षमता हासिल नहीं कर लेता है। हम आर्थिक रूप से सशक्त देशों के साथ तभी प्रतिस्पर्धा कर पाएंगे जब देश का आर्थिक एवं मानव संसाधन उत्कृष्ट श्रेणी का हो। यहाँ पर योजना आयोग की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। योजना आयोग पूरे देश के लिए जिसमें केन्द्र एवं राज्य दोनों शामिल होते हैं योजना बनाता है। योजना बनाने के साथ ही उसके लिए चुनौतियाँ
भी पैदा होने लगती है।
सबसे पहली चुनौती तो वित्त आंबटन की आती है। इसके लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है जिसके लिए विकास दर को बढ़ाना होता है और यह वैश्वीकरण के उठते गिरते दौर में एक मुश्किल काम है। दूसरी तरफ वार्षिक योजनाओं के माध्यम से जब विभिन्न राज्यों को वित्त आबंटित किया जाता है तो राज्य सरकारें उचित-अनुचित आधारों पर योजना आयोग पर आरोप लगाते हैं। यह प्रवृति तब और भी बढ़ी हुई देखने को मिलती है, जब राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें होती हैं। ऐसे आरोप न लगे, यह योजना आयोग के समक्ष एक चुनौती है।
योजना को लेकर केन्द्र-राज्यों के बीच विवाद देखने को मिलता है। आयोग देश की योजना के लिए कुछ आधारभूत विषय निश्चित करता है। लेकिन प्रत्येक राज्य की समस्याएँ अलग-अलग हैं। यही कारण है कि उनकी मूल-समस्याओं का निराकरण नहीं हो पाता। केन्द्रीय कैबिनेट योजना के संबंध में अन्तिम निर्णय लेती है जबकि इसका क्रियान्वयन राज्य की कार्यपालिका द्वारा होता है। राज्यों के पास अपने योजना बोर्ड नहीं हैं जो योजनाओं को तकनीकी दृष्टि से निश्चित कर सके।
योजना आयोग की अगली चुनौती योजना क्रियान्वयन से जुड़ी होती है। योजना आयोग के पास प्रभावी क्रियान्वयन एजेन्सी का अभाव है। देश के अलग-अलग भागों में अलग-अलग की तरह समस्याएँ है। कहीं कानून व्यवस्था और नक्सलवाद जैसी समस्यएँ हैं तो कहीं अन्य स्थानीय एवं सामूदायिक समस्याएँ हैं। ऐसी स्थिति में योजना आयोग के सामने यह चुनौती बन जाती है कि वह एक प्रभावी क्रियान्वयन एजेन्सी के साथ-साथ योजना निर्माण में पर्याप्त लचीलापन लाए ताकि क्रियान्वयन ऐजेन्सियों को स्थानीय जरूरतों के प्रति उत्तरदायी एवं नवप्रवर्तनशील (Responsive and Innovative) होने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।
कई बार यह देखने को मिलता है कि योजना आयोग द्वारा तय मानदंड या आँकड़े, राज्यों द्वारा स्वीकार नहीं किए जाते हैं। ऐसे मामले ज्यादातर उन विषयों से जुड़े होते हैं जिनपर ज्यादा वित्तीय व्यय की आवश्यकता होती है। गरीबी निवारण या पिछड़ापन दूर करने से संबंधित आँकड़ों पर राज्यों द्वारा आपत्ति किए जाने के उदाहरण सामने आते रहे हैं। इस संदर्भ में योजना आयोग के सामने यह चुनौती है कि वह अपनी विश्वसनीयता बहाल करे। विश्वसनीयता बहाल हो, इसके लिए यह भी जरूरी है कि आयोग द्वारा जो आँकड़े जारी किए जाएँ वे वास्तविकता के नजदीक हो। आयोग के समक्ष आज समावेशी विकास को बढ़ावा देने की चुनौती है। योजना आयोग पर संपन्न एवं विपन्न दोनों प्रकार के राज्यों का दबाव होता है। संपन्न राज्य जहाँ अपने राज्य के करों को अपने पास ही देखना चाहते है वहीं गरीब राज्य आयोग से ज्यादा से ज्यादा वित्तीय आबंटन चाहते हैं ताकि वे अपने प्रदेश से जुड़ी समस्याओं को जल्द से जल्द हल कर सके। समकालीन समय में योजना आयोग के समक्ष विकास की रूपरेखा निर्धारित करते समय ग्रामीण-शहरी, पुरुष-महिला और अमीर-गरीब के बीच विद्यमान असमानता को समाप्त करने की चुनौती तो है ही, इसके साथ ही उसके द्वारा पर्यावरणीय रूप से ग्राह्य या सतत् विकास को बढ़ावा देने की भी चुनौती है।
योजनाओं के क्रियान्वयन में आज स्पष्ट उत्तरदायित्व का अभाव दिखाई देता है। लालफीताशाही एवं भ्रष्टाचार योजनाओं के क्रियान्वयन में बड़ी बाधा है। जिस तेजी से ऑडिट एवं मूल्यांकन की आवश्यकता होती है, उसका अभाव देखा जाता है। इस संबंध में समवर्ती लेखा-परीक्षा या मूल्यांकन (Concurrent Audit or Evaluation) उपयोगी साबित हो सकता है। लेकिन विशेष तौर पर इस कार्य को संपन्न करने के लिए योजना आयोग के पास स्वतंत्र मूल्यांकन संस्था (Independent Evaluation office) का नेटवर्क होना चाहिए। इसके अलावा योजना आयोग के समक्ष यह भी चुनौती है कि वह लालफीताशाही जो एक मंत्रालय से दूसरे मंत्रालय में कोष स्थानांतरण (Fund Transferring) के मामले में देखने को मिलती है, उसे दूर करे। जल्दी-जल्दी आने वाली विपत्तियों एवं प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित क्षेत्रों में विकास को पटरी पर लाने की चुनौती भी योजना आयोग के समक्ष आती रहती है। इन सबके साथ योजना आयोग के समक्ष यह भी चुनौती है कि किस तरह विकेन्द्रीकरण के माध्यम से योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाए। इसके लिए पंचायती राज्य संस्थाओं को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।

आलोचना (Criticism)
योजना आयोग का गठन मूल रूप से एक सलाहकारी संस्था के रूप में की गई थी लेकिन पूरे देश के लिए योजना बनाने तथा उसे राज्यों द्वारा मान लेने के क्रम में इसने शक्तिशाली प्राधिकरण का रूप धारण कर लिया। आलोचक इसे ‘सुपर कैबिनेट’ तक कहने लगे। इसके अलावा इसे आर्थिक मंत्रिमंडल भी एवं समानान्तर-मंत्रिमंडल कहा जाने लगा।
अशोकचंदा के अनुसार आयोग की अपरिभाषित और व्यापक स्थिति केन्द्र एवं राज्यों के लिए ‘आर्थिक मंत्रिमंडल’ की तरह है। योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष डी. आर. गाडगिल ने आयोग की आलोचना करते हुए कहा है कि आयोग का गठन एक सलाहकारी संस्था के रूप में की गई थी लेकिन यह अपने मूल कार्य को भूलकर नीतियों का निर्माण करने लगी है। प्रधानमंत्री एवं वित्त मंत्री की सदस्यता के कारण इसने असाधारण महत्ता एवं प्रतिष्ठा हासिल कर ली है। पी. वी. राजामन्नार ने योजना आयोग एवं वित्त आयोग के कार्यों में उत्पन्न आच्छादन (Overlapping) के बारे चर्चा की है। के सन्थानम का मानना है कि योजना आयोग ने संविधान का उल्लंघन किया है। इसके कारण संघीय व्यवस्था का उल्लघन हुआ है और केंद्रीय व्यवस्था उभरी है। प्रशासनिक सुधार आयोग का मानना है कि केन्द्र और राज्य की वास्तविक कार्यकारी शक्ति, योजना आयोग ने ग्रहण कर ली है। इसने ‘सुपर कैबिनेट’ की भूमिका अपना ली है।
योजना आयोग का गठन एक व्यावसायिक संगठन (Professional organisation) के तौर पर किया गया था जिससे यह आशा की गई थी कि सरकार से अलग रहकर राष्ट्रीय विकास हेतु वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाएगा लेकिन आगे चलकर यह स्वयं नौकरशाही से लैस होकर एक सरकारी विभाग की तरह कार्य करने लगा। मंत्रियों से जुड़ाव ने इसकी स्थिति बदल दी है। आयोग से यह अपेक्षा थी कि वह पंचवर्षीय एवं वार्षिक योजनाओं की रूपरेखा तय करेगा लेकिन यह योजनाओं के क्रियान्वयन एवं मूल्यांकन कार्य में भी शामिल हो गया जो कि प्रशासन का उत्तरदायित्व होना चाहिए। राज्यों को दिये जाने वाले अनुदान के मामले में जिस एक-तरफा अधिकार का प्रयोग किया जाता है वह भी राज्यों द्वारा पसंद नहीं किया जाता है। योजना बनाते समय आयोग देश की बहुलता या विविधता को नहीं समझ पाता और पूरे देश के लिए एकरूप योजना का निर्माण करता है। इस तरह ऐसा आभास होता है कि देश में संवैधानिक रूप से संघात्मक व्यवस्था न होकर एकात्मक शासन व्यवस्था कार्य कर रही हो।
यह भी आलोचना की जाती है कि सरकार के एक कार्यकारी आदेश से गठित योजना आयोग ने केन्द्र-राज्य के बीच संबंधों को सौहार्द्रपूर्ण बनाए रखने के लिए गठित वित्त आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं के कार्य में दखल दिया है जो एक तरह से संविधान के साथ धोखाधड़ी है तथा जिसने संवैधानिक संस्थाओं को गौण बना दिया है।
उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद योजना आयोग की देश के आयोजन (Planning) में महत्त्वपूर्ण भूमिका है तथा यह सरकार को अपने संवैधानिक लक्ष्यों की ओर सतत् अग्रसर होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।