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यूरोप में सामंतवाद के उदय के कारण क्या है ? सामंतवाद की प्रमुख विशेषताएं क्या थी ? | इसके प्रमुख गुणों एवं दोषों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
सामंतवाद की प्रमुख विशेषताएं क्या थी? इसके प्रमुख गुणों एवं दोषों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। यूरोप में सामंतवाद के उदय के कारण क्या है ?
यूरोप
यूरोप में छठी सदी के तीसरे चरण के अंत तक दुर्धर्ष रोम साम्राज्य दो हिस्सों में बाट चुका था। रूस और जर्मनी से आने वाली स्लाव तथा जर्मन जनजातियों ने उसके पश्चिमी हिस्से की (जिसकी राजधानी अब भी रोम थी) ईट से ईट बजा दी थी। ये लोग एक के बाद एक करके कई समूहों में पुराने रोम आए और यहा के साम्राज्य पर छा गए। उन्होंने यहा भयंकर जन-संहार किया और लूट-खसोट मचाई। लेकिन कालांतर में ये लोग यूरोप के कई हिस्सों में स्थाई तौर पर बस गए, जिससे वहा की आबादी के स्वरूप तथा भाषा और शासन पद्धतियों में भारी बदलाव आए। इस काल में स्थानीय आबादी के साथ इन जनजातियों के मिश्रण के फलस्वरूप आधुनिक यूरोप के अनेक राष्ट्रों की नींव तैयार हुई। पुराने रोम साम्राज्य के पूर्वी हिस्से की राजधानी कुस्तुनतुनिया (इस्तंबोल) थी। साम्राज्य के इस हिस्से में अधिकांश पूर्वी यूरोप और साथ ही तुर्की, सीरिया और उत्तर अफ्रीका शामिल थे। इसे बैजंतिया साम्राज्य कहा जाता था। इसने रोम साम्राज्य की कई परंपराओं को पूर्ववत जारी रखा जैसे – सषक्त राजतंत्र और केंद्रीकृत प्रशासन। लेकिन धार्मिक विश्वास तथा नियम-अनुष्ठानों के मामले में यह पश्चिम के कैथलिक गिरजा संगठन (चर्च) से, जिसका मुख्यालय रोम में था, कई मायनों में भिन्न था। पूर्वी हिस्से में गिरजा संगठन को यूनानी रूढ़िवादी गिरजा संगठन (ग्रीक अर्थोडक्स चर्च) कहा जाता था। इसी संगठन तथा बैजंतिया शासकों के प्रयत्नों से रूस को ईसाई धर्म में दीक्षित किया जा सका। आधुनिक तुर्की और सीरिया भी, जो बैजंतिया साम्राज्य के अंग थे, यूनानी रूढ़िवादी गिरता संगठन के ही अनुयाई थे। बैजंतिया साम्राज्य एक विशाल और समृद्ध साम्राज्य था जो पश्चिम में रोम साम्राज्य के पतन के बाद भी एशिया के साथ व्यापार करता रहा। उसने शासन और संस्कृति की कुछ ऐसी परंपराओं का सूत्रपात किया जिन्हें सीरिया और मिश्र को जीतने के बाद अरबों में भी अपनी व्यवस्था में शामिल कर लिया। उसने यूनान-रोम सभ्यता तथा अरब संसार के बीच सेतु का काम किया और आगे चल कर पश्चिमी दुनिया में यूनानी ज्ञान-विज्ञान को पनरुज्जीवित करने में सहायता दी। आखिर पंद्रहवीं सदी के मध्य में जब तुर्की ने कुस्तुनतुनिया को जीतः लिया तो इस साम्राज्य का अवसान हो गया।
पश्चिम में रोम साम्राज्य के पतन के बाद कई सदियों के लिए पश्चिमी यूरोप में नगरों का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया और विदेश व्यापार तथा आंतरिक वाणिज्य को गहरा धक्का लगा। इतिहासकार पश्चिमी यूरोप के इस काल को अंधयुग (डार्क एज) कहते हैं। परंतु दसवीं सदी से. व्यापार और उसके साथ ही शहरी जीवन का भी पुनरुत्थान आरंभ हुआ। बारहवीं और चैदहवीं सदी के बीच पश्चिमी यूरोप एक बार फिर समृद्धि के ऊंचे शिखर पर जा पहुंचा। इस काल की एक उल्लेखनीय विशेषता विज्ञान तथा पौद्योगिकी का उत्कर्ष थी। साथ ही शहरों का तेजी से विकास हुआ और कई नगरों में – जैसे इटली में पदुआ तथा मिलान में – विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। नए ज्ञान और नए विचारों के विकास में इन विश्वविद्यालयों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी ज्ञान और इन्हीं विचारों ने नव-जागरण (रिनेसाँ) तथा नए यूरोप के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।
सामंतवाद का उदय
रोम साम्राज्य के विघटन के बाद पश्चिमी यूरोप में एक नए प्रकार के समाज और नई शासन-व्यवस्था का उदय हुआ। इस नवोदित व्यवस्था को “फ्यूडलिज्म”या ‘सामंतवाद‘ कहते हैं। “फ्यूडलिज्म” शब्द लैटिन शब्द “फ्यूडम” से उत्पन्न है। “फ्यूडम” का अर्थ है “फीफ” या “जागीर”। इस समाज में सबसे शक्तिशाली वे सरदार थे जो अपनी सैनिक शक्ति के बल पर बहुत बड़े भू-क्षेत्रों पर हावी थे और जिनकी शासन में भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। राजा एक अधिक शक्तिशाली सामंत सरदार से अधिक कुछ नहीं होता था। कालांतर में राजा अधिक शक्तिशाली हो गया और उसने सामंत सरदारों की सत्ता को लगाम देने की कोशिश की। इसका तरीका यह था कि राजा सरदारों को अपने “मातहतो” (विसेल्स) के रूप में अपने प्रति वफादारी की शपथ दिलाता था और बदले में वह यह मान लेता था कि उन सरदारों के प्रभाव वाले इलाके उनकी “जागीरें”। हैं। उधर सरंदार अपने मातहतों के तौर पर उप-सरदार नियुक्त कर सकते थे और अपनी जागीर का कुछ हिस्सा उन्हें दर-जागीर के तौर पर बख्श सकते थे। सिद्धांततरू राजा गैर-वफादार सरदारों की जागीरें छीन सकता था लेकिन व्यवहार में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो। इस प्रकार सामंती व्यवस्था में सरकार में ‘भूस्वामी अभिजात वर्ग’ का बोलवाला रहता था। इस वर्ग की स्थिति वंशानुगत थी और वह भरसक कोशिश करता था कि उसके समूह में बाहर के लोगों का प्रवेश न हो। ध्यान देने योग्य है कि यह ऐसा ‘अभिजात वर्ग’ नहीं होता था जिसका द्वार दूसरों के लिए पूरी तरह बंद रहता हो।
मोटे तौर पर यही सामंती व्यवस्था थी। मध्य एशिया में तुर्की और भारत में राजपूतों ने जो समाज और शासन-व्यवस्था विकसित की उसका इस व्यवस्था से कई दृष्टियों से काफी साम्य था। अपने विकास के क्रम में इस व्यवस्था ने विभिन्न देशों की अवस्थाओं और परंपराओं के अनुसार उनमें अलग-अलग रूप धारण किया। यूरोप में सामंती व्यवस्था की दो और विशेषताए बताई जाती हैं। एक तो है कृषि-दासत्व (सर्फडम) की प्रथा । कृषि-दास भूमि को कोड़ने-कमाने का काम करता था और उसे न तो अपना पेशा बदलने की छुट रहती थी और न कहीं अन्यत्र जा कर बसने की सुविधा थी। वह अपने प्रभु (लार्ड) की इजाजत के बिना शादी भी नहीं कर सकता था। इसी से जुड़ी हुई थी “मेनर” की व्यवस्था। ‘मनर’ वह इमारत या दुर्ग होता था जहां लार्ड रहता था। कई यूरोपीय देशों में इन मेनरों के लार्ड बड़े-बड़े भू-क्षेत्रों के स्वामी होते थे। इस भूमि के एक हिस्से पर कृषि-दासों की सहायता से लार्ड खुद खेती करता था। कृषि-दासों को कुछ समय लार्ड की जमीन पर काम करना पड़ता था और बाकी समय वे खुद अपने खेतों में काम करते थे। चूंकि सिद्धांततः जमीन का मालिक लार्ड होता था, इसलिए कृषि-दास को उसे नकद और जिंस के दूसरी किस्मों के भी कर-नजराने देने पड़ते थे। मेनर का लार्ड शांति-सुव्यवस्था कायम रखने और न्याय करने आदि के लिए भी जिम्मेदार होता था। चूंकि उन दिनों काफी अव्यवस्था फैली हुई थी, इसलिए कभी-कभी स्वतंत्र किसान भी संरक्षण के बदले मेनर के लार्ड के पातहती स्वीकार करने को तैयार हो जाते थे।
कुछ इतिहासकारों का विचार है कि कृषिदासत्व और मेनर प्रणाली सामंतवाद की अनिवार्य विशेषताएँ हैं और जिन समाजों में ये दो विशेषताएँ दिखाई नहीं देती हैं उन्हें सामंती कहना गलत है। उदाहरण के लिए भारत में सच्चे अर्थों में न तो कृषिदासत्व था और न मेनर प्रणाली। लेकिन स्थानीय भूस्वामियों और सामंतों को वैसे बहुत-से अधिकार प्राप्त थे जैसे कि फ्यूडल लार्डो को हासिल हुआ करते थे, और किसान इन्हीं लोगों पर आश्रित रहा करते थे। दूसरे शब्दों में, महत्व की बात यह नहीं थी कि किसान विधिवत् स्वतंत्र थे या नहीं, बल्कि यह थी कि वे किस प्रकार से और किस हद तक इस स्वतंत्रता का उपयोग और उपभोग कर सकते थे। यूरोप के कई देशों में मेजर प्रणाली और कर-नज़रानों के तौर पर श्रम-सेवा देने की प्रथा चैदहवीं सदी के बाद समाप्त हो गई।
यूरोप की सामंती व्यवस्था की दूसरी विशेषता का संबंध सैनिक संगठन की प्रणाली से है। सामंती व्यवस्था का सबसे ज्वलंत प्रतीक घोड़े पर सवार वीर योद्धा (नाइट) था। वस्तुतः यूरोप में अश्वारोही युद्ध के मूल की तलाश आठवीं सदी से अधिक पीछे नहीं जाती। रोम साम्राज्य के काल में सरदारों के नेतृत्व में लड़ने वाली वाहिनियों में भारी और हल्की सैनिक टुकड़ियाँ हुआ करती थीं जो लंबे भालों और छोटी तलवारों से लैस होती थीं। घोड़ों का इस्तेमाल रथ खींचने के लिए किया जाता था और रथों की सवारी अधिकारी वर्ग के लोग करते थे। आमतौर पर माना जाता है कि अरबों के आगमन के साथ युद्ध का तरीका बदल गया। अरबों के पास घोड़ों की कोई कमी नहीं थी। इन घोड़ों की तीव्र गति तथा उन पर सवार धनुर्धारियों के कारण पैदल सेना बेकार हो गई। नई युद्ध-पद्धति के लिए आवश्यक संगठन के विकास और अनुरक्षण से संबंधित समस्याओं से यूरोप में सामंतवाद की अभिवृद्धि में सहायता मिली। कोई भी राजा अपने संसाधनों के बल पर विशाल अश्वारोही सेना नहीं रख सकता था और उसके लिए आवश्यक हथियार-बख्तर तथा साज-सज्जा नहीं जुटा सकता था। इसलिए सेना का विकेंद्रीकरण कर दिया गया। जागीरदारों पर उनकी अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक यह जिम्मेदारी डाल दी गई कि वे राजा की सेवा के लिए एक निश्चित संख्या में अश्वारोही और पैदल सेनाएँ रखें।
दो आविष्कारों के कारण अश्वारोही युद्ध लड़ाई का प्रमुख तरीका बन गया। यद्यपि ये दोनों आविष्कार काफी पुराने थे तथापि इनका व्यापक उपयोग इसी काल में आरंभ हुआ। पहला तो था लोहे की रकाब का आविष्कार। इस रकाब के कारण हथियारों और कवच से भली भाँति सज्जित सैनिक को घोड़े की पीठ से गिरने का भय नहीं रहता था। इसके अलावा रकाब में पैर फँसाए सैनिक भाले को ठीक से सँभाले रख कर तेजी से हमला कर सकता था और घोड़े को चाहे जितना दौड़ाया जाए, उसके गिरने का डर नहीं रहता था। इससे पहले या तो लकड़ी की रकाब का इस्तेमाल किया जाता था या रस्सी का, जिसमें सिर्फ पैरों के पंजे फँसाए जा सकते थे। इसलिए अब पैदल सेना के लिए अश्वारोही सेना के हमले का सामना करना असंभव हो गया था। दूसरा था एक नए किस्म के साज का आविष्कार। इस साज के सहारे घोड़ा दुहरा वजन ढो सकता था। ऐसा माना जाता है कि ये दोनों आविष्कार यूरोप में पूर्वी दुनिया से, शायद पूर्वी एशिया से पहुँचे और भारत में उनका प्रयोग दसवीं सदी से शुरू हुआ।
इस प्रकार राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक-कई कारणों से यूरोप में सामंतवाद का विकास हुआ। जब ग्यारहवीं सदी के बाद शक्तिशाली सरकारों का उदय हुआ तब भी सामंतवादी परंपराएँ इतनी प्रबल थीं कि राजा के लिए सामंत-सरदारों की सत्ताा को लगाम देना टेढ़ी खीर साबित हुआ।
जिसे इतिहासकार मध्यकाल कहते हैं उस काल में यूरोप में लोगों की जीवन पद्धति को रंग-रूप देने में सामंतवाद के अलावा जिस दूसरी चीज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वह थी ईसाई गिरजा संगठन । बैजंतिया साम्राज्य और रूस में यूनानी रूढ़िवादी गिरजा संगठन (अर्थोडक्स चर्च) की भूमिका का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। पश्चिम में कोई शक्तिशाली साम्राज्य जब नहीं रह गया था, इसलिए कैथलिक गिरजा संगठन ने शासन के भी कुछ कार्य अपने हाथों में ले लिए। इस संगठन का प्रधान पोप अब न केवल ईसाइयों का धार्मिक मुखिया था, बल्कि उसके हाथों में काफी कुछ राजनीतिक तथा नैतिक सत्ता भी आ गई थी। इसका कारण यह था कि पश्चिम एशिया और भारत की तरह यूरोप में भी मध्यकाल धर्म के वर्चस्व का काला था, और धर्म के नाम पर बोलते वालों की आवाज में काफी शक्ति और प्रभाव होता था। राजाओं और सामंतों से प्राप्त भूमि-दानों तथा व्यापारियों से मिले अनुदानों के सहारे अनेक मठ और मठों के संघ (मोनैस्टिक अर्डर्स) स्थापित किए गए। इनमें से कई संघ जरूरतमंदों और गरीबों की सेवा का काम करते थे। फ्रैसिस्कनों का संघ ऐसा ही एक संघ था। बहुत-से संघ लोगों को चिकित्सा-संबंधी सहायता देते थे और यात्रियों को आश्रय प्रदान करते थे। इसके अलावा ये संघ शिक्षा और विद्या के केन्द्रों का काम भी करते थे। इस प्रकार कैथलिक गिरजा संगठन यूरोप के सांस्कृतिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। लेकिन कुछ मठों ने बहुत अधिक संपत्ति अर्जित करके फयूडल लर्डाें की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया। इससे आंतरिक कलह की स्थिति पैदा हुई और शासकों के साथ उनका संघर्ष आरंभ हो गया क्योंकि शासकों को गिरजा संगठन तथा पोप की दुनिया की सत्ता से चिढ़ होती थी। आगे के एक अध्याय में हम देखेंगे कि यूरोप में गिरजा संगठन और राज्य के बीच के संघर्षे ने किस प्रकार यूरोप के बाहर के घटनाचक्र को भी प्रभावित किया।
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