मोठ की मस्जिद का निर्माण किसने करवाया , कहां स्थित है , निर्माण किसके शासनकाल के दौरान किया गया

बताइए – मोठ की मस्जिद का निर्माण किसने करवाया , कहां स्थित है , निर्माण किसके शासनकाल के दौरान किया गया ?

मस्जिद मोठ (Masjid Moth)
मोठ मस्जिद का निर्माण ‘सिकन्दर लोदी‘ के वजीर मियाँ भुयां द्वारा (1505 ई.) करवाया गया। ‘मोठ‘ का आशय दाल के एक प्रकार से है। माना जाता है कि इस वर्गाकार मस्जिद का निर्माण दाल को बिक्री से हुई आय से हुआ था। यह मस्जिद पाँच विविध रूपों वाली मेहराबों से बनी है जिसमें बीच वाली मेहराब सबसे बड़ी है। ढलवां दीवारों वाली इस इमारत में ये मेहराबें एक लहर के समान प्रतीत होती हैं। इनके ऊपर तीन समान अनुपात वाले गुबद बने हैं। सजावट के लिए रंगीन पत्थरों को जोड कर नक्काशी की गई है। इसका स्थापत्य इसलिए विशेष माना जाता है क्योंकि इसके निर्माण में हुये प्रयोग नवीनता से युक्त हैं और यह शिल्प आगे चल कर मुगलकाल में प्रचलित हुआ।

सैय्यद और लोदी कालीन वास्तुकला (Architecture of Sayyid and Lodhi Period)
सैय्यद और लोदियों के कार्यकाल में विकसित हुई विकेंद्रीकरण की प्रवृति उस युग के स्थापत्य में भी प्रतिबिम्बित होती है। पहली बार बड़ी संख्या में सल्तनत के अमीरों के द्वारा भवन निर्माण कराया गया और उनका स्तर सुल्तान की इमारता से कम नहीं है। सैय्यदों के काल में खिज्र ख़ाँ ने दिल्ली में खिज्राबाद एवं मुबारक शाह ने ‘मुबारकाबाद‘ या कोटला मुबारकपुर का निर्माण करवाया। इसके अलावा सुल्तान मुबारक शाह का अष्टकोणीय मकबरा, निजामुद्दीन दरगाह के निकटे चैराहे पर बना लीला बुर्ज या सैय्यदों का मकबरा, सफदरजंग के मकबरे के पास सुल्तान मोहम्मद शाह और सीरों के पास एक मस्जिद भी इस युग में स्थापत्य के नमूने हैं।
लोदियों के काल की इमारतों में बेहतर अनुपात और उच्च गुणवत्ता वाले सामान का प्रयोग देखा जा सकता है। लोदियों के काल को वास्तुकला को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहला सुल्तानों द्वारा बनवाये गये अष्टभुजी मकबरे और अमीरों द्वारा बनवाये गये चतुर्भुजी मकबरे के रूप में है। इन चार भुजाओं वाले मकबरे में टाइलों का प्रयोग हुआ है। बड़ी संख्या में मकबरे बनने के कारण इस काल को स्थापत्य की दृष्टि से मकबरों का युग भी कुछ विद्वानों ने कहा है। गुंबदों के आधार पर कंगूरे और गुलदस्ते बनाये गये तथा दरवाजों को मेहराब का आकार देने के लिए छज्जों एवं कोष्ठकों का प्रयोग हुआ है। मकवर के साथ लगी छोटी-छोटी मस्जिदों के हिस्से पाँच मेहराबों में विभाजित किये गए। लोदियों के काल में बनी महत्त्वपूर्ण इमारतों में 1418 ई. में सिकन्दर शाह लोदी द्वारा बनवाया गया बहलोल लोदी का मकबरा है। पाँच गुम्बंदों वाले इस मकबरे के बीच में स्थित गुम्बद की ऊँचाई सर्वाधिक है। इसके निर्माण में लाल पत्थर का प्रयोग हुआ है। इसके अलावा दिल्ली में मुबारकपुर कोटले में तिजुर्बा, दरगाह युसूफ कत्ताल, राजों की बैंस, जमरुदपुर का पंचबुर्जा, बस्ती का बावली, मस्जिद खैरपुर कुतुब परिसर में इमाम जामिन उर्फ इमाम मुहम्मद अली का मकबरा (हसन भाई की मीनार), मकबरा लंगर खां, जहाज महल बड़े खां और छोटे खां का मकबरा, शीश गुंबद, दादी-पोती का मकबरा भी प्रसिद्ध इमारतें हैं। लोदी यग की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं दिल्ली में बनी दो इमारतें सिकंदर लोदी का मकबरा और मोठ मस्जिद हैं।

सिकंदर लोदी का मकबरा (Tomb of Sikandar Lodi)
इब्राहीम लोदी ने सिंकदर लोदी का मकबरा 1517 ई. में बनवाया गया। इस अष्टकोणीय मकबरे में निर्मित गुम्बद की प्रत्येक भुजा में तीन-तीन मेहराबें बनाई गई हैं। यह मकबरा एक वर्गाकार ऊँची चहारदीवारी के प्रांगण में स्थित है, जिसके चारों किनारों पर बुर्ज बनाये गये हैं। बागनुमा अहाते में दफनाने की इस शैली से संभवतया मुगलों ने प्रेरणा ली है।

मध्यकालीन प्रांतीय शैलियों का स्थापत्य
(Architecture of Medieval Period Regional Styles)
जौनपुर (Jaunpur)
उत्तर प्रदेश के जौनपुर में स्थानीय शर्काे सुल्तानों के काल में बनी मस्जिदें भी दिल्ली सल्तनत के काल की मस्जिदों की केंद्रीय शैली का ही अंग मानी जाती हैं। जौनपुर में झंझरी मस्जिद (1425), अटाला मस्जिद (1376-1408) तथा जामा मस्जिद (1478) वास्तुकला की दृष्टि से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। इन तीनों की बनावट एक ही प्रकार की है। इनमें एक बड़ा अहाता और तीन ओर इबादतखाने बने हैं। ये इबादत खाने एक या दो मंजिले हैं तथा खंभों, दीवारगारों और रोड़े से बने हैं। इनकी छतें सपाट हैं। इनकी सबसे बड़ी विशेषता इबादतघर के मध्यभाग में बना सिंहद्वार है। यह एक विशाल मेहराबद्वार है जिसके किनारों पर आयताकार फलक बने हैं और उनपर नक्काशी की गई है। जौनपुर के शर्की शासकों की इन इमारतों पर परंपरागत मंदिर शैली का प्रभाव है। इनकी रचना तुगलक काल में बनी बेगमपुरी मस्जिद से मिलती-जुलती है। इनके अलावा जौनपुर में शाही किला, लाल दरवाजा मस्जिद, अकबरकालीन शाही पुल आदि भी महत्त्वपूर्ण इमारते हैं।

गुजरात (Gujarat)
तुर्की विजेताओं ने गुजरात के कारीगरों से राज्य में अनेक सुंदर और महत्त्वपूर्ण भवनों का निर्माण करवाया। गुजरात के इस काल के स्थापत्य की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता भवनों पर लकड़ी जैसी नक्काशी का काम मानी जाती हैं। यहाँ पर पत्थरों की जाली का काम भी बहुत सराहनीय ढंग से किया गया है। गुजरात शैली की सबसे महत्त्वपूर्ण इमारत ‘जामा मस्जिद‘ मानी जाती है। इसका निर्माण अहमद शाह ने करवाया था। सुल्तान महमूद बेगड़ा ने चंपानेर में जामा मस्जिद बनवाई। यह इमारत, शिल्प कला की दृष्टि से गुजरात की सबसे सुंदर मस्जिद मानी जाती है। भड़ौच की जामा मस्जिद, खंभात की जामा मस्जिद ढोलका को हिलाल खाँ काजी मस्जिद भी महत्त्वपूर्ण इमारतें हैं। अहमदाबाद में सैयद आलम की मस्जिद, तीन दरवाजा अहमद खाँ का मकबरा, रानी का हुजरा. कुतुबुद्दीन की मस्जिद, रानी सिपरी मस्जिद में भी प्रसिद्ध इमारतें हैं। यहाँ बनी सीदी बशीर मस्जिद अपनी झूलती मीनारों (ैींापदह डपदंतमजे) के लिए प्रसिद्ध है। मिर्जापुर की रूपमति मस्जिद और कांकारिया झील भी मध्यकालीन स्थापत्य के शानदार नमूने हैं।

कश्मीर (Kashmir)
कश्मीर के मुसलमान शासकों ने भी हिन्दुओं को पुरानो परंपरागत पत्थर और काष्ठ की कला शैली अपनाई। राज्य के महान शासक जैनुल आबिंदीन के शासनकाल में यहाँ कुछ इमारतों का निर्माण हुआ। श्रीनगर में बनी ‘मदनी का मकबरा‘ उसके निकट बनी मस्जिद स्थापत्य कला के सर्वश्रेष्ठ नमूनों में से एक है। बुतशिकन के नाम से प्रसिद्ध शासक सिकंदर ने श्रीनगर में ‘जामा मस्जिद‘ का निर्माण कराया। बाद में उसका विस्तार जैनुल आबिदीन ने किया।

बहमनी (Bahamani)
दक्कन के बहमनी और बाद के शासकों ने एक मिश्रित कलाशैली को जन्म दिया। इसमें भारतीय, तुर्की. मिस्त्री और ईरानी शैलियों का समन्वय था। गुलबर्गा और बीदर की मस्जिदें इंसी शैली में बनाई गई हैं। इसी शैली में मोहम्मद आदिलशाह का मकबरा या गोल गुंबद (बीजापुर) भी बनाया गया है। इस शैली की अन्य प्रमुख इमारतों गुलबर्ग की जामा मस्जिद. दौलताबाद की मीनार और बीदर का महमूद गवां का मदरसा है। यहाँ बना अलाउद्दीन का मकबरा दिल्ली के तुगलक काल की बनी इमारतों जैसा बनाया गया है। हैदराबाद में सन् 1591 में मोहम्मद कली कतब शाह द्वारा बनवाई गई मशहूर चारमीनार इमारत एक चैराहे पर बनी है और इसकी दिशाओं से चारों ओर रास्ते जाते हैं। इसके निकट बनी एवं विशालकाय प्रांगण के लिए प्रसिद्ध जामा मस्जिद, यहाँ बना रणनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण गोलकुंडा का किला भी महत्त्वपूर्ण इमारतें हैं। सन् 1750 में निजाम सलाबत जंग ने तेहरान के शाह पैलेस की तर्ज पर चैमहला महल बनवाया। इसमें भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिए भिन्न महल बनाये गये। सन् 1870 में नवाब वकार-उल-उमरा ने फल्कनुमा महल बनवाया। यह महल इतालवी और टयूडोर स्थापत्य के मिश्रण का नमूना है।

बंगाल (Bengal)
मध्यकाल में बंगाल के स्थापत्य की विशेषता यह है कि इसमें पत्थर का काम कम और ईंटों का प्रयोग ज्यादा किया गया है। इस शैली में छोटे-छोटे स्तंभों पर बनी नकदार मेहराब, हिन्दू मंदिरों की परंपरागत लहरदार कार्निस और कमल सरीखे सुंदर हिंदू संजावट के प्रतीकों का प्रयोग हआ है। इन इमारतों के अवशेष गौर, लखनौती, पडुआ आदि इलाकों में मिलते हैं। इस शैली का पहला मकबरा जफर खां गाजी का मकबरा और उसकी मस्जिद है। यह इमारत भी हिन्दू मंदिरों की सामग्री से बनी प्रतीत होती है। पंडुआ में बनी विशाल मस्जिद ‘अदीना‘ का निर्माण सिकंदर शाह ने करवाया था। यहाँ जलालुद्दीन मोहम्मदशाह या एकलाखी का सुंदर मकबरा भी है। यहाँ की अन्य प्रसिद्ध इमारतों में लोटन मस्जिद, बडा सोना मस्जिद, छोटा सोना मस्जिद और कदम रसूल मस्जिद आदि सम्बन्द्ध है। अखी सिराजुद्दीन, कोतवाली दरवाजा, दाखिल दरवाजा, तांतीपोरा मस्जिद, चमकट्टी मस्जिद भी बंगाल की प्रसिद्ध इमात्र है।
विजयनगर (Vijaynagar)
विजयनगर काल (1336-1565) के स्थापत्य पर चालुक्य, चोल. पांड्य और होयसलों का प्रभाव दिखता है। मंदिर, सैन्य और राज लोगों के भवनों के स्थापत्य को स्थायित्व देने के लिए पहली बार मजबूत पत्थरों का प्रयोग किया गया। इस काल में तीन प्रकार के मंदिर बने। छोटे प्रकार के मंदिरों में ड्योढ़ी, मूर्तियों का कमरा एवं गर्भगृह मिलते हैं। मध्यम आकार के मंदिरों में एक गतः कानासी (एक छोटा कमरा जो बड़े कमरे से मिलता है), नवरंग (दो भवनों के बीच का अंतराल) और रंगमंडप (स्तंभयुक्त भत्र बनाये गये। बड़े आकार के मंदिरों में चोल शैली के जैसा रायागोपुरम बनवाया गया। इस गोपुरम का शीर्ष हिस्सा शालाशिखर का था जो कि आकार में गोल पीपे जैसा होता था। मंदिरों में मंडप के अतिरिक्त कल्याणमंडप का निर्माण इस काल की विना है। इस कल्याण मंडप में देवी देवाताओं के विवाह संपन्न होते थे। इसलिए इस स्थापत्य को कल्याणमंडपमगोपुर शैली भी का है एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता एक ही चट्टान को काटकर बने अलंकृत स्तंभों का प्रयोग भी है। इन स्तंभों में पशुओं विपकर घोडे का अंकन है। पिछले पैरों पर खडे उग्र घोडे की प्रतिमा के अंकन को बहुत सराहना मिली है। विजयनगर कला का पूर्ण बिंदु सहस्र स्तंभीय यानी हजार खंभों वाला मंडप है। ये खंभे संगीत का गुण रखते थे। इसलिए इन्हें संगीतमय खंभे भी कहा गया है। मंदिरों में मूर्ति प्रतिष्ठापन में शासकों और उनकी पत्नियों की भी मूर्ति लगाई जाने लगी। विपनगर काल में सरोवरों के साथ बनाए गये इन मंदिरों में विठ्ठलनाथ मंदिर, हजाररामा मंदिर, विरूपाक्ष मन्दिर, रघुनाथ मन्दिर, सुग्रीव गुफा, विठाला मन्दिर, कृष्ण मन्दिर, तथा महानवमी डिब्बा प्रमुख हैं। हम्पी को इसलिए भी मंदिरों का शहर माना है। हजारा मंदिर की दीवारों पर रामायण के चित्र भी उकेरे गये। मंदिरों के अलावा कृष्णदेव द्वारा उड़ीसा विजय के में बनवाया गया ‘भुवनविजयम‘ भी स्थापत्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसके अलावा राजकीय लोगों के स्थापत्य में रानी नानागार. बड़ाव लिंग, हाथीघर और कमल महल भी विशेष हैं। विजयनगर शासकों ने नगर की रक्षा के लिए प्रवेश द्वारों से युन। एक प्राचीर का निर्माण भी करवाया। इस शैली को बाद में मुगलों ने अपनाया। इसी तरह कमल महल में भी मेहराबों का प्रयोग किया गया। शहर में जलापूर्ति के लिए कई प्रकार के जलाशयों का निर्माण किया गया।

मालवा (Malwa)
मालवा क्षेत्र के मांडू और धार के इलाके में स्थापत्य कला के बेहतरीन नमूने देखने को मिलते हैं। यहाँ की इमारतों में रंगीन और टाइलों का प्रयोग हुआ है। इससे इनकी सुंदरता बहुत बढ़ गई है। मालवा में पहली इमारत कमाल मौला मस्जिद (1400) गया। इसके बाद धार में लाट मस्जिद और दिलावर खाँ मस्जिद का निर्माण हुआ। मांडू में मलिक मुंगीस, जहाज महल, पहल, हिंडोला महल, होशंगशाह का मकबरा, अशर्फी महल तथा कई सुंदर दरवाजों का निर्माण हुआ।

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