मुद्राशास्त्रीय किसे कहते हैं , पुरातात्विक स्रोत किसे कहते हैं उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए , प्राचीन से वर्तमान तक मुद्रा के विकास का विश्लेषण करना

प्राचीन से वर्तमान तक मुद्रा के विकास का विश्लेषण करना मुद्राशास्त्रीय किसे कहते हैं , पुरातात्विक स्रोत किसे कहते हैं उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए What is numismatics answer in hindi ?

सिक्के
अनेक सिक्के और अभिलेख धरातल पर भी मिले हैं, पर इनमें से अधिकांश ज़मीन को खोदकर निकाले गए है। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (न्यूमिस्मेटिक्स) कहते हैं। आजकल की तरह प्राचीन भारत में कागज़ की मुद्रा का प्रचलन नहीं था, पर धातुधन या धातुमुद्रा (सिक्का) चलता था। पुराने सिक्के तांबे, चांदी, सोने और सीसे के बनते थे। पकाई गई मिट्टी के बने सिक्कों के साँचे बड़ी संख्या में मिले हैं। इनमें से अधिकांश साँचे कुषाण काल के अर्थात् ईसा की आरंभिक तीन सदियों के हैं। गुप्तोत्तर काल में ये साँचे लगभग लुप्त हो गए।
प्राचीन काल में आज जैसी बैंकिंग प्रणाली नहीं थी, इसलिए लोग अपना पैसा मिट्टी और कांसे के बरतनों में बड़ी हिफ़ाज़त से जमा रखते थे ताकि मुसीबत के दिनों में उस बहुमूल्य निधि का उपयोग कर सकें। ऐसी अनेक निधियाँ, जिनमें न केवल भारतीय सिक्के हैं बल्कि रोमन साम्राज्य जैसी विदेशी टकसालों में ढाले गए सिक्के भी हैं, देश के अनेक भागों में मिली हैं। ये निधियाँ अधिकतर कोलकाता, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, मुंबई और चेन्नई के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। बहुतसे भारतीय सिक्के नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संग्रहालयों में भी देखने को मिलते हैं। चूँकि ब्रिटेन ने भारत पर लंबे अरसे तक राज किया, इसलिए ब्रिटिश अधिकारी भी अपने निजी तथा सार्वजनिक संग्रहालयों में बहुत-सारे भारतीय सिक्के ले गए। प्रमुख राजवंशों के सिक्कों की सूचियाँ तैयार कर प्रकाशित की गई हैं। कोलकाता के इंडियन म्यूज़ियम, लंदन के ब्रिटिश म्यूज़ियम आदि के सिक्कों की ऐसी सूचियाँ उपलब्ध हैं। परंतु बहुत-सारे सिक्कों की सूचियाँ बनाना और प्रकाशित करना अब भी बाकी ही है।
हमारे आरंभिक सिक्कों पर तो कुछेक प्रतीक मिले हैं, पर बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथि का भी उल्लेख है। इन सिक्कों के उपलब्धि स्थान बतलाते हैं कि उन स्थानों में इन सिक्कों का प्रचलन था। इस प्रकार प्राप्त सिक्कों के आधार पर कई राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण संभव हुआ है, विशेषतः उन हिंद-यवन शासकों के इतिहास का जो उत्तरी अफगानिस्तान से भारत पहुँचे और जिन्होंने ईसा-पूर्व दूसरी और पहली सदियों में यहाँ शासन किया।
चूँकि सिक्कों का काम दान-दक्षिणा, खरीद-बिक्री, और वेतन-मजदूरी के भुगतान में पड़ता था, इसलिए सिक्कों से आर्थिक इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। राजाओं से अनुमति लेकर व्यापारियों और स्वर्णकारों की श्रेणियों (व्यापारिक संघों) ने भी अपने कुछ सिक्के चलाए थे। इससे शिल्पकारी और व्यापार की उन्नतावस्था सूचित होती है। सिक्कों के सहारे बड़ी मात्रा में लेन-देन संभव हुआ और व्यापार को बढ़ावा मिला। सबसे अधिक सिक्के मौर्याेत्तर कालों में मिले हैं जो विशेषतः सीसे, पोटिन, तांबे, कांसे, चांदी और सोने के हैं। .गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के सबसे अधिक जारी किए। इन सबसे पता चलता है कि व्यापार-वाणिज्य, विशेषतः मौर्याेत्तर काल में और गुप्तकाल के अधिक भाग में, खूब ही बढ़ा। इसके विपरीत गुप्तोत्तर काल के बहुत कम सिक्के मिले हैं, जिससे यह प्रकट होता है कि उन दिनों व्यापार-वाणिज्य शिथिल हो गया था।
सिक्कों पर राजवंशों और देवताओं के चित्र, धार्मिक प्रतीक और लेख भी अंकित रहते हैं, जिनसे तत्कालीन कला और धर्म पर प्रकाश पड़ता है।

भौतिक अवशेष
प्राचीन भारत के निवासियों ने अपने पीछे अनगिनत भौतिक अवशेष छोड़े हैं। दक्षिण भारत में पत्थर के मंदिर और पूर्वी भारत में ईंटों के विहार आज भी धरातल पर देखने को मिलते हैं, और उस युग का स्मरण कराते हैं जब देश में भारी संख्या में भवनों का निर्माण हुआ। परंतु इन भवनों के अधिकांश अवशेष सारे देश में बिखरे अनेकानेक टीलों के नीचे दबे हुए हैं। टीला धरती की सतह के उस उभरे हुए भाग को कहते हैं जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष रहते हैं। यह कई प्रकार का हो सकता हैः एकल-संस्कृतिक, मुख्य-संस्कृतिक और बहु-संस्कृतिक। एकल-संस्कृतिक टीलों में सर्वत्र एक ही संस्कृति दिखाई देती है। कुछ टीले केवल चित्रित धूसर मृद्भांड अर्थात् पेंटेड ग्रे वेअर (पी० जी० डब्ल्यू०) संस्कृति के द्योतक हैं, कुछ सातवाहन संस्कृति के, और कुछ कुषाण संस्कृति के। मुख्य-संस्कृतिक टीलों में एक संस्कृति की प्रधानता रहती है और अन्य संस्कृतियाँ जो पूर्वकाल की भी हो सकती हैं और उत्तर काल की भी, विशेष महत्त्व की नहीं होती। बहु-संस्कृतिक टीलों में उत्तरोत्तर अनेक संस्कृतियाँ पाई जाती हैं जो कभी-कभी एक दूसरे के साथ-साथ चलती हैं। रामायण और महाभारत की भाँति, खोदे गए टीले का उपयोग हम संस्कृति के भौतिक और अन्य पक्षों के क्रमिक स्तरों को उजागर करने के लिए कर सकते हैं।
टीले की खुदाई दो तरह से की जा सकती है-अनुलंब या क्षैतिज। अनुलंब उत्खनन का अर्थ है सीधी खड़ी लंबवत् खुदाई करना जिससे कि विभिन्न संस्कृतियों का कालक्रमिक ताँता उद्घाटित हो। यह सामान्यतः स्थल के कुछ भाग में ही सीमित रहता है। क्षैतिज उत्खनन का अर्थ है सारे टीले की या उसके बृहत भाग की खुदाई। इस तरह की खुदाई से हम उस स्थल की काल विशेष की संस्कृति का पूर्ण आभास पा सकते हैं।
अधिकांश स्थलों की अनुलंब खुदाई होने के कारण उनसे हमें भौतिक संस्कृति का अच्छा-खासा कालानुक्रमिक सिलसिला मिल जाता है। क्षैतिज खुदाइयाँ खर्चीली होने के कारण बहुत कम की गई हैं। फलस्वरूप उत्खननों से प्राचीन भारतीय इतिहास की अनेक अवस्थाओं के भौतिक जीवन का पूर्ण और समग्र चित्र नहीं मिल पाता।
जिन टीलों का उत्खनन हुआ है उनके भी पुरावशेष विभिन्न अनुपातों में ही अक्षित हैं। सूखी जलवायु के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पश्चिमोत्तर भारत के पुरावशेष अधिक सुरक्षित बने रहे, परंतु मध्य गंगा के मैदान और डेल्टाई क्षेत्रों की नम और आद्र्र जलवायु में लोहे के औज़ार भी संक्षारित हो जाते हैं और कच्ची मिट्टी से बने भवनों के अवशेषों को खोजना कठिन होता है। नम और जलोढ़ क्षेत्रों में तो पक्की ईंटों और पत्थर के भवनों के काल में आकर ही हमें उत्कृष्ट और प्रचुर अवशेष मिल पाते हैं।
पश्चिमोत्तर भारत में हुए उत्खननों से ऐसे नगरों का पता चलता है जिनकी स्थापना लगभग 2500 ई० पू० में हुई थी। इसी प्रकार उत्खननों से हमें गंगा की घाटी में विकसित भौतिक संस्कृति के बारे में भी जानकारी मिली है। इससे पता चलता है कि उस समय के लोग जिन बस्तियों में रहते थे उनका ढाँचा कैसा था, वे किस प्रकार के मृद्भांड उपयोग में लाते थे, किस प्रकार के घरों में रहते थे, भोजन में किन अनाजों का इस्तेमाल करते थे और कैसे औज़ारों या हथियारों का प्रयोग करते थे। दक्षिण भारत के कुछ लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ औज़ार, हथियार, मिट्टी के बरतन आदि चीजें भी कब्र में गाड़ते थे और इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े पत्थर खड़े कर दिए जाते थे। ऐसे स्मारकों को महापाषाण (मेगालिथ) कहते हैं, हालाँकि सभी महापाषाण इस श्रेणी में नहीं आते। इनकी खुदाई बतलाती है कि लौह युग की शुरुआत होने पर दकन के लोग किस प्रकार का जीवन व्यतीत करते थे। जिस विज्ञान के आधार पर पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत उत्खनन किया जाता है और प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है, उसे पुरातत्त्व (आर्किऑलजि) कहते हैं।
उत्खनन और अन्वेषण के फलस्वरूप प्राप्त भौतिक अवशेषों का विभिन्न प्रकार से वैज्ञानिक परीक्षण किया जाता है। रेडियो कार्बन काल निर्धारण की विधि से यह पता लगाया जाता है कि वे किस काल के हैं। रेडियो कार्बन या कार्बन 14 (C14) कार्बन का रेडियोधर्मी समस्थानिक (आइसोटोप) है जो सभी प्राणवान वस्तुओं में विद्यमान होता है। सभी रेडियोधर्मी पदार्थों की तरह इसका निश्चित/ समान गति से क्षय होता है। जब कोई वस्तु जीवित रहती है तो C14 के क्षय की प्रक्रिया के साथ हवा और भोजन की खुराक से उस वस्तु में C14 का समन्वय भी होता रहता है। परंतु जब वस्तु निष्प्राण हो जाती है तब इसमें विद्यमान C14 के क्षय की प्रक्रिया समान गति स जारी रहती है लेकिन यह हवा और भोजन से C14 लेना बंद कर देती है। किसी प्राचीन वस्तु में विद्यमान C14 में आई कमी को माप कर उसके समय का निर्धारण किया जा सकता है। यह इसलिए संभव है क्योंकि C14 का क्षय निश्चित गति से होता है, जैसा पहले बताया जा चुका है। यह ज्ञात है कि C14 का आधा जीवन 5568 वर्षों का होता है। रेडियोधर्मी पदार्थ का आधा जीवन वह काल/ समय होता है जिसमें उस वस्तु की आधी रेडियोधर्मी धारिता लुप्त हो जाती है। इस प्रकार अगर कोई वस्तु 5568 वर्षों पहले निष्प्राण हो गई तो उसकी C14 धारिता उस समय की तुलना में आधी रह जाएगी जब वह जीवित थी और अगर वह 11,136 वर्ष पहले निष्प्राण हुई तो उसके C14 की धारिता उस समय की तुलना में चैथाई रह जाएगी जब वह जीवित थी।
पौधों के अवशेषों का परीक्षण कर विशेषतः पराग के विश्लेषण द्वारा जलवायु और वनस्पति का इतिहास बनता है। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि राजस्थान और कश्मीर में कृषि का प्रचलन लगभग 7000-6000 ई० पू० में भी था। धातु की शिल्पवस्तुओं की प्रकृति और घटकों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है और उसके परिणाम से पता चलता है कि वे जगहें कहाँ हैं जहाँ से ये धातुएँ प्राप्त की गई हैं और इसे धातु विज्ञान के विकास की अवस्थाओं का पता लगाया जाता है। पशुओं की हड्डियों का परीक्षण कर उनकी पहचान की जाती है, और उनके पालतू होने तथा तरह-तरह के काम में लाने का पता लगाया जाता है।