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Categories: इतिहास

मुक्तेश्वर मंदिर किसने बनवाया mukteswara temple bhubaneswar in hindi मुक्तेश्वर मंदिर का निर्माण किसने करवाया था कहाँ स्थित है राज्य

mukteswara temple bhubaneswar in hindi मुक्तेश्वर मंदिर किसने बनवाया मुक्तेश्वर मंदिर का निर्माण किसने करवाया था कहाँ स्थित है राज्य नाम क्या है ?

भुवनेश्वर का मुक्तेश्वर मंदिर – मुक्‍तेश्‍वर मन्दिर का निर्माण 970 ईस्वी के आसपास हुआ था | संभवतया इसका निर्माण सोमवंशी वंश के ययाति प्रथम द्वारा करवाया गया था |  परशरामेश्वर मंदिर के पास ही मुक्तेश्वर नामक एक छोटा सा मंदिर है। मंदिर एक नीची कुर्सी पर बना है। गर्भगृह के ऊपर शिखर बड़ी सावधानी के साथ गोलाई में ढाला गया है। मंदिर के बाहरी भाग हो व्यापक रूप से अलंकत किया गया है। मखमण्डप के ऊपर कलश है तथा छत के सामने के कोणों पर सिंह की सन्दा मूर्तियाँ बैठाई गयी हैं। प्रवेश द्वार पर एक भव्य तोरण है जो उड़ीसा के किसी अन्य मंदिर में देखने को नहीं मिलता। अर्धगोलाकार इस तोरण का निर्माण क्रमशः ऊपर उठते हए कई खण्डों में किया गया है। शीर्ष पर दो नारी मूर्तियां हैं। ये दोनों प्रारंभिक स्तर के मंदिर हैं। इनके बाद निर्मित मंदिर अपेक्षाकृत विशाल आकार-प्रकार के हैं। इनमें भुवनेश्वर के तीन मंदिरों-सिद्धरेश्वर, केदारेश्वर, ब्रह्मेश्वर तथा राजारानी मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है।

पूर्व मध्यकालीन मंदिर वास्तुकला में उड़ीसा के मंदिर उच्च स्थान रखते हैं। सोदाहरण देकर इसे स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: नागर शैली का विकास अधिकतम निखरे रूप में उड़िसा के मंदिरों में दिखाई देता है। यहां आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक अनेक
मंदिरों का निर्माण हुआ। पहाड़ियों से घिरा होने के कारण यह प्रदेश अधिकांशतः विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा और यही कारण है कि यहां पर निर्मित कुछ मंदिर आज भी बचे हुए हैं।
उडीसा के मंदिर मख्यतः भुवनेश्वर, पुरी तथा कोणार्क में हैं जिनका निर्माण 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच हआ। भवनेश्वर के मंदिरों के मुख्य भाग के सम्मुख चैकोर कक्ष बनाया गया है। इसे श्जगमोहनश् (मुखमण्डप अथवा सभामण्डप) कहा जाता है। यहां उपासक एकत्रित होकर पूजा-अर्जना करते थे। जगमोहन का शीर्ष भाग पिरामिडाकार होता था। इनके भीतरी भाग सादे हैं किन्तु बाहरी भाग को अनेक प्रकार की प्रतिमाओं तथा अलंकरणों से सजाया गया है। गर्भगृह की संज्ञा श्देउलश् थी। बडे मंदिरों में जगमोहन के आगे एक या दो मण्डप और बनाये जाते थे जिन्हें नटमंदिर तथा भोगमंदिर कहते थे। शैली की दृष्टि से उडीसा के मंदिर तीन श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं –
1. रेख देउल – इसमें शिखर ऊँचे बनाये गये हैं।
2. पीढ़ा देउल – इसमें शिखर क्षितिजाकार पिरामिड प्रकार के हैं।
3. खाखर (खाखह) – इसमें गर्भगृह दीर्घाकार आयतनुमा होता है तथा छत गजपृष्ठाकार बनती है।
मंदिरों में स्तम्भों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। इनके स्थान पर लोहे की शहतीरों का प्रयोग मिलता है। यह एक आश्चर्यजनक तथा प्राविधिक अविष्कार था। मंदिरों की भीतरी दीवारों पर खजुराहों के मंदिरों जैसा अलंकरण प्राप्त नहीं होता है।
भुवनेश्वर का परशरामेश्वर मंदिर रू उड़ीसा के प्रारंभिक मंदिरों में भुवनेश्वर के परशुरामेश्वर मंदिर का उल्लेख कि जा सकता है जिसका निर्माण ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी के लगभग हुआ। यह बहुत बड़ा नहीं है तथा इसकी ऊँचाई 44 फुट है। गर्भगह 20 फट के धरातल पर बना है। बड़ी-बड़ी पाषाण शिलाओं को एक दूसरे पर रखकर बिना किसी जुड़ाई के इसे बनाया गया है। गर्भगृह के सामने लम्बा आयताकार मुखमण्डप है। इसके ऊपर ढालुआं छत मुखमण्डप में तीन द्वार बने हैं। गर्भगृह तथा मुखमण्डप में भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं।

भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर – भुवनेश्वर के मंदिरों में श्लिंगराज मंदिरश् उड़ीसा शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसका निर्माण दसवीं-ग्यारहवीं शती में हुआ था। मंदिर ऊँची दीवारों से घिरे एक विशाल प्रांगण (520श्ग465श्) के बीच स्थित है। पूर्वी दीवार के बीच एक विशाल प्रवेश-द्वार है जिसके चारों ओर कई छोटे-छोटे मंदिर बने हुए हैं। इन सबमें लिंगराज का विशाल मंदिर उत्कृष्ट है। इसमें चार विशाल कक्ष है – देउल, जगमोहन, नटमण्डप तथा भोगमण्डप। इन्हें एक ही सीध एवं पंक्ति में बनाया गया है। मुख्य कक्ष (देउल तथा गर्भगृह) के ऊपर अत्यन्त ऊँचा शिखर बनाया गया है। इसकी गोलाकार चोटी के ऊपर पत्थर का आमलक तथा कलश रखा गया है। इस मंदिर का शिखर अपने पूर्ण रूप में सुरक्षित है। यह लगभग 160 फुट ऊँचा है तथा इसके चारों कोनों पर दो पिच्छासिंह हैं। शिखर के बीच में ऐसी कटान है जो बाहरी दीवार में ताख बना देती है। उसमें सुन्दर आकृतियाँ बनी हुई दिखाई देती हैं। सबसे ऊपर त्रिशूल स्थापित किया गया है। मंदिर का मुखमण्डप (जगमोहन) भी काफी सुन्दर है। इसकी ऊँचाई सौ फुट के लगभग है। अलंकरण योजना गर्भगृह के ही समान है। नटमण्डप तथा भोगमण्डप को कालान्तर में निर्मित कर जगमोहन से जोड़ दिया गया। यह जुड़ाई इतनी बारीकी से की गयी है कि ये जगमोहन की बनावट से अलग नहीं लगते। उड़ीसा शैली के मंदिरों की भीतरी दीवार सादी तथा अलंकरण रहित है। प्रत्येक मण्डप में चार स्तम्भ ऊपरी भार को सम्हाले हुए हैं। किन्तु मंदिर की बाहरी दीवारों पर श्रृंगारिक दृश्यों का अंकन है जिनमें कुछ अत्यन्त अश्लीलता की कोटि में आते हैं। लिंगराज मंदिर उड़ीसा शैली के पौढ़ मंदिरों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। लिंगराज मंदिर के ही अनुकरण पर बना भुवनेश्वर का अनन्तवासुदेव मंदिर है जो यहां का एकमात्र वैष्णव मंदिर है। भुवनेश्वर में कुल आठ हजार मंदिर थे जिनमें पांच सौ की संख्या अब भी वर्तमान है। सभी में लिंगराज, गौरव तथा विशिष्टता की दृष्टि से अनुपम है।
पुरी का जगन्नाथ मंदिर – लिंगराज मंदिर के अतिरिक्त पुरी का जगन्नाथ मंदिर तथा कोणार्क स्थित सूर्य-मंदिर भी उडीसा शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। जगन्नाथ मंदिर दोहरी दीवारों वाले प्रांगण में स्थित है। चारों दिशाओं में चार विशाल द्वार बने हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर स्थित है तथा उसके सामने स्तम्भ हैं। मंदिर 400ग350 वर्ग फुट की परािध में छोटे-छोटे कई मंदिर बनाये गये हैं। पुरी का जगन्नाथ मंदिर हिन्दू धर्म के पवित्रतम तीर्थ स्थलों में गिना जाता है।
कोणार्क का सूर्य मंदिर – पुरी से लगभग बीस मील की दूरी तक स्थित कोणार्क का सूर्य मंदिर वास्तु कला की एक अनुपम रचना है। इसका निर्माण गंगवंशी शासक नरसिंह प्रथम (1238-64 ई.) ने करवाया था। एक आयाताकार प्रागण मे यह मंदिर रथ के आकार पर बनाया गया है। इसका विशाल प्रांगण 865’Û540′ के आकार का है। गर्भगृह तथा मुखमण्डप को इस तरह नियोजित किया गया है कि वे सूर्यरथ प्रतीत होते हैं। नीचे एक बहुत ऊँची कुर्सी है जिस पर सुन्दर अलंकरण मिलते हैं। उसके नीचे चारों ओर गज पंक्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। यह उकेरी अत्यन्त सूक्ष्मता एवं कुशलता । साथ हुई है। हाथियों की पंक्ति के ऊपरी कुर्सी की चैड़ी पट्टी है जिसके अगल-बगल पहिये बनाये गये हैं। इन पर सूक्ष्म ढंग से अलंकरण हुआ है। इसी के ऊपर गर्भगृह तथा मुखमण्डप अवस्थित है। गर्भगृह के उत्तर, दक्षिण और पाश्चा दीवारों में बने हुए ताखों में सूर्य की मूर्तियां हैं। मुखमण्डप तीन तल्लों वाला है तथा इसकी छतें तिरछी तिकाने आकार के है। प्रत्येक तल के मध्य भाग को मर्तियों से अलंकत किया गया है। मंदिर का शिखर 225′ ऊँचा था जो कुछ समय गिर गया किन्तु इसका.बड़ा सभाभवन आज भी सुरक्षित है। सभाभवन तथा शिखर का निर्माण एक चैड़ी तथा ऊचा. पर हुआ है जिसके चारों ओर बारह पहिये बनाये गये हैं। प्रवेशद्वार पर जाने के लिये सीढ़ियां बनायी गयी है। इसके ओर उछलती हुई अश्व प्रतिमायें उस रथ का आभास करती हैं जिन पर चढकर भगवान सर्य आकाश में विचरण करत मादर के बाहरी भाग पर विविध प्रकार की प्रतिमायें उत्कीर्ण की गयी हैं। प्रतिमायें रथ के पहियों पर भी उत्काण हा मूर्तियां अत्यन्त अश्लील हैं जिन पर तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव माना जा सकता है। संभोग तथा सौंदर्य का मुक्त यहां दिखाई देता है। अनेक मूर्तियों के सस्पष्ट श्रृंगारिक चित्रण के कारण इस मंदिर को श्काला पगौड़ाश् (Black Pagoda) कहा गया है। बारह राशियों के प्रतीक इस मंदिर के आधारभूत बारह महाचक्र हैं तथा सूर्य के सात अ प्रतीक रूप में यहां सात अश्व प्रतिमायें बनाई गयी थी।
राजराना मंदिर रू यह मंदिर उडीसा के अन्य मंदिरों से अपनी निर्माण शैली और वास्त योजना की दृष्टि से अत्यन्त मन दिखाई दता है। जो मध्यभारत के मंदिरों और विशेष रूप से खजराहों की नागर शैली से मिलता-जलता प्रतीत होता ह। जा विशषताए इसे उडीसा के अन्य मंदिरों से पृथक करती हैं उनमें हैं- यहां उत्कीर्ण आकृतियां, शिखर जो कि केन्द्रीय बृर्ज के चारों ओर समूह के रूप में बनाये गये हैं और छज्जे जो अनेक स्तरों में बनाये गये हैं और ऊपर की ओर मुड़े हुए है।

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