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मराठा साम्राज्य किसे कहते हैं , मराठा साम्राज्य की स्थापना किसने की थी संस्थापक कौन थे किसे कहा जाता है

जाने – मराठा साम्राज्य किसे कहते हैं , मराठा साम्राज्य की स्थापना किसने की थी संस्थापक कौन थे किसे कहा जाता है ?

मराठा साम्राज्य

मुगल साम्राज्य के पतन के उपरांत जिन प्रांतीय राजवंशों का उदय हुआ, उनमें मराठे सबसे शक्तिशाली थे। पेशवाओं के योग्य नेतृत्व में मराठों ने मालवा एवं गुजरात से मुगलों के पैर उखाड़ दिए तथा वहां अपना शासन स्थापित कर लिया। प्रारंभ में मराठा छोटे भू-स्वामी थे, जिन्होंने अपने योग्य नेता शिवाजी के नेतृत्व में एक स्वतंत्र मराठा साम्राज्य स्थापित कर लिया। शिवाजी ने मराठों को साधारण कृषकों से निर्भीक सैनिकों में परिवर्तित कर दिया। भक्ति आंदोलन एवं भक्ति संतों के उपदेशों ने भी मराठों को आपसी एकता स्थापित करने एवं अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया। शिवाजी का जन्म जुन्नार के निकट शिवनेर के दुर्ग में 1627 ई. में हुआ था। उन्होंने अपना सैन्य जीवन काफी युवावस्था में ही प्रारंभ कर दिया था। प्रारंभ में उन्होंने बीजापुर के सुल्तान की भांति आस-पास के क्षेत्रों में छापामार अभियान चलाया। इस क्रम में उन्होंने बीजापुर के विभिन्न क्षेत्रों को लूटा। जब उन्होंने मुगल क्षेत्रों में अतिक्रमण का प्रयास किया तो उनका मुगलों से भी संघर्ष हुआ। औरंगजेब ने शिवाजी को पुरंदर की संधि (1665) करने को बाध्य कर दिया। जिसके अंतर्गत उन्हें अपने बहुत से किले मुगलों को सौंपने पड़े। लेकिन शीघ्र ही शिवाजी ने अपनी शक्ति को बढ़ाकर इन किलों को वापस प्राप्त कर लिया। उन्होंने कर्नाटक में भी कई किलों पर विजय प्राप्त की। शिवाजी ने 1674 में अपना राज्याभिषेक समारोह आयोजित किया तथा ‘छत्रपति‘ की उपाधि धारण की। उनके शासन में राजा सम्पूर्ण साम्राज्य का सर्वाेच्च पदाधिकारी था। इसकी सहायता के लिए आठ मंत्रियों की एक समिति थी, जिसे ‘अष्ट प्रधान‘ के नाम से जाना जाता था। उनकी आय के मुख्य स्रोत-भू-राजस्व, चैथ एवं सरदेशमुखी थे। शिवाजी ने एक स्थायी सेना भी रखी तथा उस पर कठोर अनुशासन स्थापित किया। यह सेना विभिन्न किलों की देखरेख भी करती थी।
शिवाजी के पौत्र साहू के शासनकाल में पेशवा या प्रधानमंत्री बालाजी विश्वनाथ राज्य के वास्तविक शासक बन गए। बालाजी विश्वनाथ की नीतियों ने साहू की स्थिति को महाराष्ट्र में अत्यधिक शक्तिशाली बना दिया। इसी समय साहू ने पेशवा को अत्यधिक शक्तियां दे दी, इससे छत्रपति का महत्व कम हो गया। पेशवा के अभ्युदय से अन्य मराठा सरदारों की महत्वाकांक्षाएं जाग उठीं तथा साम्राज्य की एकता भंग हो गयी। 1761 ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध के उपरांत, जिसमें कई प्रमुख मराठा सरदार मारे गए, मराठा साम्राज्य एक दुर्बल परिसंघ बनकर रह गया, जिसमें शासन का संचालन मराठा सरदार करते थे। इन मराठा सरदारों की महत्वाकांक्षा एवं आपसी संघर्ष से पूना स्थित पेशवा का मुख्यालय एवं मराठा साम्राज्य दोनों को हानि पहुंची। इससे मराठा साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई तथा वह पांच भागों में बंट गयाः बरार के रघुजी भोंसले; इंदौर के होल्कर; ग्वालियर के सिंधिया; बड़ौदा के गायकवाड़ एवं पूना के पेशवा।

 

1765 ई. में भारत

1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात्, 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुगल साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया और तीव्र हो गई। औरंगजेब की नीतियों के अतिरिक्त कई अन्य कारण भी थे, जिनमें मुगल साम्राज्य का तेजी से पतन हुआ। इन कारणों में-दरबारी गुटबाजी, अत्यधिक केंद्रीयकृत मुगल प्रशासन, नादिरशाह एवं अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण तथा मराठों जैसी स्थानीय शक्तियों का अभ्युदय तथा परवर्ती मुगल शासकों का आयोग्य होना सबसे प्रमुख थे।
मुगल साम्राज्य के पतन से कई क्षेत्रीय स्वायत्त राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों के शासकों ने न केवल अपने राज्य में कानून व्यवस्था स्थापित की बल्कि सुव्यवस्थित प्रशासन एवं आर्थिक व्यवस्था की स्थापना भी की। इस काल में मुगल साम्राज्य के विघटन से बनने वाले प्रमुख क्षेत्रीय राज्य थे-अवध, बंगाल एवं हैदराबाद। स्वतंत्र राज्यों में मैसूर, राजपूत राज्य एवं केरल भी सम्मिलित थे। मराठा, सिख एवं जाटों के नए राज्य थे, जो मुगल साम्राज्य से विद्रोह के उपरांत निर्मित हुए थे।
1765 ई. का वर्ष भारत में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के प्रभुत्व का वर्ष भी रहा। विशेष रूप से इस वर्ष अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने बक्सर के युद्ध में दूरगामी सफलता प्राप्त की। विदेशियों का भारतीय मामलों में आलिप्त होना तभी प्रारंभ हो गया था, जब पुर्तगाली व्यापारी वास्को डि गामा 1498 ई. में कालीकट के तट पर उतरा था। इससे भारत एवं यूरोप के मध्य आधुनिक वाणिज्यिक संबंधों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। गोवा, दमन एवं दीव में अपने व्यापारिक केंद्रों की स्थापना के अतिरिक्त पुर्तगालियों ने मालाबार तट पर स्थित भारतीय रियासतों के राजनीतिक मामलों में रुचि प्रारंभ कर दी तथा भारत के पश्चिमी तट पर अपनी स्थिति को भी सुदृढ़ करने लगे। डच, जो भारत आने वाले दूसरे यूरोपीय थे, उन्होंने भारतीय व्यापार पर पुर्तगाली एकाधिकार को समाप्त करने के लिए अपनी नौसैनिक शक्ति का प्रयोग किया तथा कोरोमंडल तट में नागापट्टनम, मसूलीपट्टनम इत्यादि कई स्थानों पर अपनी फैक्ट्रियां भी स्थापित की।
फ्रांसीसी अगली यूरोपीय व्यापारिक शक्ति थी, जिसकी भारतीय व्यापार में रुचि उत्पन्न हुई। फ्रांसीसियों ने औरंगजेब से फरमान प्राप्त करने के उपरांत भारत में अपनी पहली फैक्ट्री सूरत में स्थापित की। 1674 में फ्रांसीसियों ने बीजापुर के सुल्तान से पांडिचेरी प्राप्त किया, जो आगे चलकर भारत में फ्रांसीसियों की व्यापारिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र बन गया। चंद्रनगर जैसे स्थानों में फैक्ट्री की स्थापना कर फ्रांसीसी भारत में अपनी स्थिति को धीरे-धीरे सुदृढ़ करने लगे। इन्होंने राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण भारतीय राज्यों के राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप भी प्रारंभ कर दिया तथा भारत में स्थायी साम्राज्य स्थापित करने का सपना देखने लगे। इससे अंग्रेजों से इनका संघर्ष प्रारंभ हो गया।
पुर्तगाली एवं डच व्यापारियों द्वारा भारतीय व्यापार से अत्यधिक मुनाफा कमाने के कारण अंग्रेज भी अपनी प्रथम व्यापारिक कंपनी स्थापित करने हेतु प्रेरित हुए। 1615 में सर टामस रो ने जहांगीर से फरमान प्राप्त किया तथा आगरा, अहमदाबाद एवं भड़ौच में फैक्ट्री स्थापित करने की अनुमति प्राप्त कर ली। मुगल साम्राज्य के पतन से इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी विस्तारवादी नीतियां अपनाने हेतु प्रोत्साहित हुई। 1717 में मुगल सम्राट फर्रुखसियार से कंपनी ने 3,000 रु. प्रति वर्ष के बदले बंगाल में कर मुक्त व्यापार करने की अनुमति प्राप्त कर ली। इसी तरह उसे गुजरात में भी 10,000 रु. के बदले कर मुक्त व्यापार की अनुमति मिल गयी। धीरे-धीरे कंपनी स्थानीय मुद्दों में रुचि लेने लगी, वह स्थानीय राजनीति से संलग्न हो गयी तथा भारत में अपना उपनिवेश स्थापित करने की दिशा में कार्य करने लगी। प्रभुत्व की इस होड़ में अंग्रेजों का फ्रांसीसियों से संघर्ष प्रारंभ हो गया, जिसके कारण 1740 से 1763 ई. के मध्य तीन कर्नाटक युद्ध लड़े गए। इन युद्धों में फ्रांसीसी निर्णायक रूप से पराजित हो गए तथा भारत से उनके भाग्य का अंत हो गया। तृतीय युद्ध के उपरांत हुई पेरिस की संधि में फ्रांसीसियों से अपनी फैक्ट्रियों के दुर्गीकरण का अधिकार भी छीन लिया गया।
इस बीच अंग्रेज स्थानीय मामलों से संबद्ध हो गए। व्यापारिक हितों की वजह से कंपनी का नवाब से भी संघर्ष प्रारंभ हो गया। जून 1757 की प्लासी की लड़ाई, जो अंग्रेजों तथा सिराजुद्दौला के मध्य लड़ी गई, में अंग्रेजों ने विजय प्राप्त की। इस युद्ध से तत्कालीन भारत के समृद्धतम बंगाल के समस्त संसाधनों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
1764 ई. में बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब, मगल सम्राट एवं अवध के नवाब की संयक्त सेनाओं को पराजित कर बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली तथा मुगल सम्राट को पेंशनयाफ्ता बना दिया। 1765 में अंग्रेजों को हैदराबाद के निजाम से उत्तरी सरकार क्षेत्र प्राप्त हो गया।

1797 – 1805 की अवधि में भारत

भारतीय व्यापार में पुर्तगाली एवं डचों द्वारा अत्यधिक लाभ कमाने से अंग्रेज भी भारत में स्वयं की व्यापारिक कंपनी स्थापित करने हेतु प्रोत्साहित हुए। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के उपरांत जब मुगल साम्राज्य धीरे-धीरे विघटित हो रहा था, उस समय तक प्रारंभ में अंग्रेज केवल व्यापारिक कार्यों तक सीमित थे। इस स्थिति से अंग्रेजों की महत्वाकांक्षाएं धीरे-धीरे जागृत होने लगीं। 1717 में अंग्रेजों ने मुगल सम्राट फर्रुखसियर से बंगाल में कर मुक्त व्यापार की अनुमति प्राप्त कर ली। इसके ऐवज में उसे केवल 3000 रु. सालाना अदा करने थे। इसी तरह गुजरात में उन्हें 1000 रु. सालाना के बदले करमुक्त व्यापार की छूट मिल गयी। इस तरह कंपनी धीरे-धीरे स्थानीय मुद्दों से संलग्न होने लगी। इस प्रक्रिया में अंग्रेजों का कई स्थानीय शक्तियों एवं यूरोपीय व्यापारिक शक्तियों, मुख्यतया फ्रांसीसियों से संघर्ष हुआ। अपने प्रतिद्वंदियों को सफलतापूर्वक समाप्त करने के उपरांत अंग्रेजों ने भारत में अपना शासन स्थापित कर लिया। 1797 से 1805 की अवधि में भारत में अंग्रेजों के प्रभाव में तेजी से वृद्धि हुई।
कर्नाटक के तीन लगातार युद्धों में अंग्रेजों की तीन निरंतर विजयों ने भारत में उनके पांव जमा दिए तथा उनके सबसे मुख्य व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी फ्रांसीसियों के व्यापारिक भविष्य की संभावनाएं सदैव के लिए समाप्त कर दीं। विगत् 20 वर्षों में, ये तीन कर्नाटक युद्ध 1740-48 ई., 1751-55 ई. एवं 1758-63 ई. में लड़े गए। तीसरे एवं अंतिम युद्ध की समाप्ति पेरिस की संधि (1763) से हुई। इस संधि से अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों की छीनी गई फैक्ट्रियों को तो लौटा दिया किंत उनसे फैक्टियों के दर्गीकरण का अधिकार छीन लिया गया, तथा वे केवल देश के व्यापार में भाग ले सकते थे।
1757 ई. में प्लासी के युद्ध के उपरांत, जिसमें अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब सिराजद्दौला को पराजित किया तथा मार डाला में अंग्रेजों ने अपने कठपुतली नवाब मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया। मीर जाफर ने नवाब बनते ही अंग्रेजों को बंगाल के समृद्ध संसाधनों को लूटने की खुली छूट दे दी। 1764 ई. में बक्सर के युद्ध के उपरांत अंग्रेजों ने बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली तथा वहां द्वैध शासन लागू कर दिया। इसमें उन्होंने दीवानी अर्थात् राजस्व वसूली का अधिकार स्वयं के पास रखा, जबकि प्रशासन का उत्तरदायित्व नवाब के कंधों पर डाल दिया।
मैसूर का उदय 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हैदर अली एवं टीपू सुल्तान के नेतृत्व में हुआ। इनकी फ्रांसीसियों से निकटता से मैसूर के अंग्रेजों के साथ संबंध खराब हो गए। इससे भी अधिक मालाबार तट से होने वाले सम्पूर्ण व्यापार पर मैसूर का नियंत्रण था, इससे काली मिर्च एवं इलायची के अंग्रेजी व्यापार पर खतरा मंडराने लगा। 1767 से 1799 ई. के मध्य चार आंग्ल-मैसूर युद्ध लड़े गए। अंतिम एवं चतुर्थ मैसूर युद्ध लार्ड वैलेजली के नेतृत्व में अंग्रेजों एवं टीपू सुल्तान के मध्य हुआ, जिसमें मैसूर की पराजय हुई। इस युद्ध में टीपू सुल्तान मारा गया तथा अंग्रेजों ने उसकी राजधानी श्रीरंगापट्टनम पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात अंग्रेजों ने मैसूर को तीन भागों में विभाजित कर दिया। एक भाग निजाम को दे दिया गया, दूसरा हिस्सा मैसूर के पुराने वाडियार वंश को प्राप्त हुआ तथा तीसरा हिस्सा अंग्रेजों ने स्वयं अपने पास रख लिया। इसमें कनारा, वायनाड, कोयम्बटूर, दारापोरम एवं श्रीरंगापट्टनम सम्मिलित थे। इन नए राज्यों ने सहायक संधि स्वीकार कर ली तथा अग्रेजों पर आश्रित राज्य बन गए। 1800 में, हैदराबाद के निजाम ने मैसूर से अपना अधिकार कंपनी को सौंप दिया।
अंग्रेजों ने 1775 से 1805 ई. के मध्य मराठों से दो युद्ध लड़े। इस अवधि में दोनों पक्षों ने अनेक संधियां कीं। इनमें से अंतिम संधि बसीम की संधि थी, जो 1802 में संपन्न हुई। इस संधि द्वारा पेशवा बाजीराव द्वितीय अंग्रेजों से सहायक संधि करने को बाध्य हो गया, जिससे मराठों को अपने 26 लाख आय के भू-क्षेत्र कंपनी को सौंपने पड़े, सूरत का शहर देना पड़ा तथा निजाम के प्रभुत्व वाले सभी क्षेत्रों से चैथ वसूली का अधिकार त्यागना पड़ा। आर्थर वैलेजली के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना पूना में पेशवा की सहायता के लिए रख दी गयी तथा 1803 में अंग्रेजों ने पेशवा को उसके पद पर पुनः बहाल कर दिया। पेशवा द्वारा सहायक संधि स्वीकार करने के उपरांत सिंधियां एवं भोंसले ने मराठा परिसंघ को बचाने का प्रयास किया। किंतु वे अपने प्रयासों में सफल नहीं हो सके तथा उन्हें भी अंग्रेजों से सहायक संधियां करने को बाध्य होना पड़ा। इसी तरह यशवंत राव होल्कर ने भी 1804 में अंग्रेजों को पराजित करने का प्रयास किया किंतु वह भी सफल नहीं हो सका तथा उसे भी सहायक संधि स्वीकारने हेतु विवश होना पड़ा।
1805 तक, कंपनी के साम्राज्य में कई रियासतें सम्मिलित या उस पर आश्रित हो चुकी थींः इनमें थींः 1798 में एवं 1800 में हैदराबाद का निजाम; तंजौर-1799; अवध-1801; पेशवा-1802; भोंसले-1803; एवं ग्वालियर-1804 (सभी सहायक संधि के द्वारा); बिहार एवं बंगाल-1765; बनारस एवं गाजीपुर-1775; मालाबार एवं सालेम-1792; कोयंबटूर एवं तंजौर-1799; उत्तरी एवं दक्षिणी कनारा-1799; सूरत, बेल्लारी, अनंतपुर एवं गुडप्पा-1800; उत्तरी अर्काट, दक्षिणी अर्काट, त्रिचनापल्ली, बस्ती एवं गोरखपुर-1801; कटक-1803 (अन्य विधियों द्वारा कंपनी साम्राज्य में शामिल करना, जैसे कि, युद्धों को जारी रखना या पहले से ही अधीनस्थ शासकों के राज्यों पर पूर्ण अधिकार स्थापित करना)।

1858 में भारत

इस अवधि के दौरान अंग्रेजी ईस्ट कंपनी ने अखिल भारतीय साम्राज्य स्थापित करने की दिशा में पूरे जोर-शोर से कार्य किया। उसने अपने नियंत्रण में अधिकाधिक क्षेत्रों को लाने के लिए सभी प्रकार के साधनों को अपनाया। मराठे, जो अपना साम्राज्य खोने के अपमान को अभी भी भूले नहीं थे, उन्होंने 1817 में अपनी स्वतंत्रता के लिए एक बार पुनः प्रयास किया। पेशवा ने मराठा सरदारों के साथ एक संयुक्त मोर्चा बनाकर नवंबर 1817 में पूना स्थित ब्रिटिश रेसीडेंसी पर आक्रमण किया। किंतु पेशवा भोंसले एवं होल्कर की संयुक्त सेनाओं को अंग्रेजों ने पराजित कर दिया। इसके पश्चात पेशवा का पद समाप्त कर दिया गया तथा उसे पेंशनयाफ्ता बनाकर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा के क्षेत्र को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया तथा बम्बई नामक एक नई प्रेसीडेंसी बनाई गई। होल्कर एवं भोंसले ने सहायक संधि स्वीकार कर ली। मराठों के पतनोपरांत सम्पूर्ण राजपूताना भी अंग्रेजों के प्रभाव क्षेत्र में आ गया। 1818 तक, पंजाब एवं सिंध को छोड़कर समस्त राष्ट्र अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आ चुका था। प्रारंभ में अंग्रेज या तो इन क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण करते थे या अपनी सेना रखकर सार्वभौम शक्ति का प्रयोग करते थे एवं उनके विदेशी संबंधों को नियंत्रित करते थे या वहां अपना रेजीडेंट रख देते थे।
वह प्रमुख क्षेत्र, जिस पर इस काल में अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया, वह सिंध था। सिंध कई दृष्टियों से अंग्रेजों के लिए महत्वपूर्ण था। एक तो इसका व्यापारिक महत्व था, दूसरा सिंधु नदी के मुख पर स्थित होने के कारण यह भारत की प्राकृतिक सीमा का निर्धारण करता था। इसका सामरिक महत्व भी था। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में सिंध पर तीन अमीर शासन कर रहे थे, जिन्होंने अंग्रेजों को यह आश्वासन दिया था कि वे सिंध में फ्रांसीसियों या किसी अन्य यूरोपीय शक्ति को बसने की इजाजत नहीं देंगे। लेकिन अंग्रेज सिंध के अधिग्रहण की ओर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। अंततः अंग्रेजों ने सिंध के अमीरों को अपदस्थ कर दिया तथा 1843 में सिंध का अधिग्रहण कर लिया।
पंजाब में रणजीत सिंह की मृत्यु के उपरांत उपजी राजनीतिक अव्यवस्था की स्थिति ने अंग्रेजों का ध्यान पंजाब की ओर आकर्षित किया। तत्पश्चात अंग्रेजों ने पंजाब को हस्तगत कर अपने साम्राज्य की सीमाओं को उत्तर-पश्चिम दिशा में विस्तृत करने का निर्णय किया। 1845 में अंग्रेजों ने सिखों को पराजित कर दिया तथा उन पर एक संधि के माध्यम से कई अपमानजनक शर्ते थोप दीं। इन शर्तों से सिखों की स्थिति अत्यंत कमजोर हो गयी। यद्यपि अभी भी पंजाब को अधिग्रहित नहीं किया गया था। 1848 में दोनों पक्षों के मध्य पुनः पहले रामनगर में फिर गुजरात में युद्ध हुआ। इन युद्धों में सिख पूर्णतयाः पराजित हो गए तथा उन्होंने अंग्रेजों के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया। इसके उपरांत अंग्रेजों ने सम्पूर्ण पंजाब का कंपनी के क्षेत्र में विलय कर लिया।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार एवं उसके सुदृढ़ीकरण के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण कदम लार्ड डलहौजी ने उठाया। डलहौजी ने व्यपगत के सिद्धांत का प्रतिपादन किया तथा भारतीय राज्यों पर कुशासन का आरोप लगाकर उन्हें हड़प लिया। उसके इस सिद्धांत के अंतर्गत यदि किसी राज्य का शासक, निःसंतान होता था तो उसे बच्चा गोद लेने का अधिकार नहीं था तथा ऐसे राजा की मृत्यु के बाद उसका राज्य स्वयमेव ब्रिटिश साम्राज्य में मिल जाता था। डलहौजी ने व्यपगत के सिद्धांत द्वारा 1848 में सतारा, एवं 1853 में झांसी एवं 1854 में नागपुर का कंपनी साम्राज्य में विलय कर लिया। अवध का विलय कशासन के आधार पर 1856 ई. में किया गया। डलहौजी के व्यपगत के सिद्धांत ने भारतीय शासकों में तीव्र असंतोष उत्पन्न कर दिया तथा यही असंतोष 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख राजनैतिक कारण रहा। 1857 का विद्रोह जो भारतीयों द्वारा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध किया गया प्रथम व्यापक संघर्ष था, जिसने कंपनी साम्राज्य की जड़ों को हिलाकर रख दिया। इस विद्रोह के उपरांत भारत से ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया तथा इसका नियंत्रण ब्रिटिश शासक ने स्वयं अपने हाथों में ले लिया। इसके पश्चात् अधिग्रहण एवं विस्तार की नीति का परित्याग कर दिया गया तथा ब्रिटिश सरकार की सर्वाेच्चता को मान लेने के बदले भारतीय रियासत के शासकों को उनके आंतरिक मसलों में हस्तक्षेप नहीं करने हेतु आश्वस्त किया गया।
व्यपगत के सिद्धांत के आधार पर सम्मिलित राज्यः सतारा-1848; जैतपुर एवं संभलपुर-1849; बघाट-1850; उदयपुर-1852; झांसी-1853; एवं नागपुर-1854।
सहायक संधिः इंदौर-1817, उदयपुर, जयपुर एवं जोधपुर-1818 । प्रत्यक्ष विजय द्वारा भी कई राज्यों को कंपनी साम्राज्य में मिलाया गया तथा कुछ प्रांतीय अधीनस्थ शासक बना लिए गएरू गड़वाल एवं कुमायूं-1815; पूना, जबलपुर, मंडला, अजमेर, नासिक-1818; न अहमदनगर, शोलापुर एवं बीजापुर-1822; कुर्ग-1830; काशी-1833; दार्जीलिंग-1838; सिंध-1843; पटियाला-1845; पंजाब-1849; न बरार-1853; बिलासपुर-1854; अवध-1856 एवं गारो पहाड़ियां-1872।

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