प्राणि-जगत् का विकास
लुप्त और विद्यमान प्राणियों के विकास और संरचना का अध्ययन करते हुए प्राणि-शास्त्रियों ने प्राणियों के ऐतिहासिक विकास का तरीका निश्चित किया है।
रीढ़रहित प्राणियों का विकास इसमें कोई संदेह नहीं कि धरती पर सबसे पहले एककोशिकीय प्रोटोजोआ उत्पन्न हुए। एककोशिकीय प्रोटोजोमा से बहुकोशिकीय प्राणियों का विकास हुआ। सीलेंट्रेटा इनमें अव्वल थे।
प्राचीन सीलेंट्रेटा ने कृमियों को जन्म दिया। कृमि जटिल संरचनावाले जीव हैं जिनमें विभिन्न कार्यों के लिए पृथक् इंद्रियां होती हैं।
प्राचीन कृमियों से मोलस्क और आरथ्योपोडा उत्पन्न हुए। कृमियों से इनका संबंध इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि बहुत-से कीटों की इल्लियां और डिंभ कृमि की शक्ल के होते हैं और उनमें औदरिक तंत्रिका-रज्जु आदि होते हैं ।
काइटिनीय आवरण के कारण प्रारथ्योपोडा का जलचर जीवन स्थलचर जीवन में परिवर्तित हुआ और वे धरती की सतह पर बड़ी मात्रा में फैल सके (अरैकनिडा, कोट)।
रीढ़धारियों का विकास रीढ़धारियों या कशेरुक दंडियों की उत्पत्ति लैंसेट-मछली जैसे सरलतर संरचनावाले दूसरे प्राणियों से हुई। इन प्राणियों में रज्जु के इर्द-गिर्द उपास्थीय या अस्थीय कशेरुक परिवर्दि्धत हुए। कशेरुकों ने रज्जु का स्थान लिया। रज्ज केवल कई मछलियों में बची रही जबकि अन्य रीढ़धारी प्राणियों में वह केवल भ्रूणों में पायी जाती है।
लैंसेट-मछली जैसे प्राणियों की सरल तंत्रिका-नलिका से रीढ़धारियों के मस्तिष्क और रीढ़-रज्जु विकसित हुए। खोपड़ी के तैयार होने से मस्तिष्क की – रक्षा होने लगी। आधुनिक रीढ़धारियों के पुरखों के रक्त-परिवहन तंत्र में हृदय की रचना हुई। सयुग्म अंग उत्पन्न हुए। बाकी इंद्रियां भी जटिलतर हो गयीं।
इस कारण रीढ़धारी विकास की दृष्टि से अपने पुरखों से आगे बढ़े। इन पुरखों के लक्षण काफी हद तक लैंसेट-मछली में बने रहे हैं।
हमने जिन रीढ़धारियों का अध्ययन किया उनमें निम्नतम संरचनाबाली प्राचीन मछलियां हैं जो पानी में रहती हैं। पेलिओजोइक युग में मछलियों का बहुत ज्यादा फैलाव हुआ। उस समय उच्चतर संरचनावाले पक्षी और स्तनधारी नहीं थे।
प्राचीन कामोप्टेरीगी से जलस्थलचर परिवर्दि्धत हुए ($ ४८) । धरती पर क्रासोप्टेरीगी के आने के कारण उनकी संरचना में संबंधित परिवर्तन आये । पेलिनोजोइक युग के कारबनिफेरस कालखंड में जल-स्थलचरों का बहुत बड़ा फैलाव था । उस समय मौसम गरम और नम था। नम स्थानों में पेड़नुमा फर्न , क्लब मॉस तथा हार्स-टेल इत्यादि वनस्पतियों की समृद्धि थी। इनके अवशेषों से कोयला तैयार हुआ।
पेलिप्रोजोइक युग के अंत में मौसम फिर से अधिक सूखा हो गया। इससे प्राचीन जल-स्थलचरों में परिवर्तन हुए और उनसे उरग परिवर्दि्धत हुए जो स्थलचर जीवन के लिए पूर्णतया अनुकूल रहे. ($ ५२ )। मेसोजोइक युग में उरगों का काफी फैलाव हुआ और उनमें काफी विविधता भी आयी।
मेसोजोइक युग के मध्य में उरगों से पक्षी उत्पन्न हुए (७५८ )। ये उड़ान के लिए अनुकूलित बन गये और इस माने में उरगों से अधिक सुविधा उन्हें प्राप्त हुई। पक्षियों में और महत्त्वपूर्ण पहलू रहे उपापचय की तीव्रता और उष्णरक्तता का विकास। साइनोग्नेथस नामक प्राचीन उरगों से प्राचीन स्तनधारी उत्पन्न हुए (६६७ ) ।
पक्षियों और स्तनधारियों के उष्ण रक्त, उससे संबंधित जनन की अधिक विकसित प्रणालियों ( अंडे सेना और जीवित बच्चे देना) और मस्तिष्क के सशक्त विकास के कारण इन प्राणियों का विस्तृत फैलाव सुनिश्चित हुआ।
मेसोजोइक युग के अंत में जब मौसम अधिक ठंडा हुया तो उरगों की अपेक्षा पक्षी और स्तनधारी नयी परिस्थितियों के लिए अधिक अनुकूल बन गये। मेसोजोइक या श्उरग-युगश् के बाद सेनोजोइक युग आया जिसमें पक्षियों और स्तनधारियों की प्रधानता रही। विभिन्न परिस्थितियों में जीवन बिताने के साथ उन्होंने बहुत-से नये नये रूपों वाले प्राणियों को जन्म दिया।
स्तनधारियों के बाद के विकास के फलस्वरूप अत्यधिक उच्च मात्रा में संरचित प्राणी अर्थात् बंदर और फिर आदमी पैदा हुए।
अतः आधुनिक प्राणि-जगत् निम्न संरचित प्राणियों से उच्च संरचित प्राणियों के लंबे ऐतिहासिक विकास का परिणाम है। धर्म प्राणियों के विकास की प्रक्रिया से इनकार करता है और मानता है कि उन सब को भगवान् ने उत्पन्न किया है। प्राणियों की उत्पत्ति से संबंधित ऐसी धारणाएं विज्ञान से कोसों दूर और स्पष्टतया वैज्ञानिक खोजों के खिलाफ हैं।
प्रश्न – १. रीढ़रहित प्राणि-जगत् का विकास किस क्रम से हुआ ? २. कौनसे लक्षण यह दिखाते हैं कि मछलियों की अपेक्षा जल-स्थलचरों की संरचना अधिक जटिल है ? ३. किन स्थितियों में और किस प्रकार क्रासोप्टेरीगी जल-स्थलचरों में परिवर्तित हुए? ४. प्राचीन जल-स्थलचरों से उरग किस प्रकार उत्पन्न हुए ? ५. हम किन तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि पक्षी उरगों से उत्पन्न हुए? ६. इसके प्रमाण क्या हैं कि स्तनधारी उरगों से विकसित हुए? ७. किन संरचनात्मक और जननात्मक लक्षणों के कारण सेनोजोइक युग में पक्षियों और स्तनधारियों का विस्तृत फैलाव हो सका ?
मनुष्य और प्राणियों के बीच साम्य-भेद
मनुष्य और प्राणियों के बीच साम्य अत्यधिक विकसित प्राणियों अर्थात् स्तनधारियों का जो परिचय हमने प्राप्त किया उससे यह स्पष्ट होता है कि – उनकी संरचना में बहुत-से लक्षण ऐसे हैं जो मनुष्य की संरचना से मिलते-जुलते हैं।
मनुष्य और स्तनधारियों के शरीर में हमें एक ही प्रकार के इंद्रिय तंत्र नजर आते हैं – गति की इंद्रियां, पचनेंद्रियां, श्वसनेंद्रियां, रक्त-परिवहन इंद्रियां, – उत्सर्जनेंद्रियां, मस्तिष्क तथा रीढ़-रज्जु और ज्ञानेंद्रियां।
शरीर-गुहा की अंदरूनी इंद्रियों की व्यवस्था भी एक-सी पायी जाती है। डायफ्राम द्वारा यह गुहा वक्षीय और औदरिक गुहाओं में विभाजित रहती है।
मनष्य और स्तनधारियों की पृथक् इंद्रियों की संरचना में भी समानता है। दोनों के हृदय के चार कक्ष होते हैं और दांत सम्मुख दांतों, सुपा-दांतों और चर्वण-दंतों में बंटे हुए।
मनुष्य और स्तनधारियों में जनन भी समान होता है ( जीवित बच्चों का जन्म और स्तनपान )।
विशेषकर मनुष्य और मनुष्य सदृश बंदरों में काफी अधिक साम्य है। ध्यान रहे कि उनका नाम वानर से ही निकला है। उनके पूंछ नहीं होती , उनके चेहरों पर बाल नहीं होते , कर्ण-पालियां मनुष्य की सी होती हैं , अंगुलियों पर सपाट नाखून होते हैं , अंगूठा अन्य अंगुलियों की विरुद्ध दिशा में रहता है , इत्यादि।
अन्य किसी भी स्तनधारी की अपेक्षा मनुष्य सदृश बंदर का मस्तिष्क मनुष्य के मस्तिष्क से अधिक मिलता-जुलता होता है। बंदर सक्रिय रूप से अपने इर्द. गिर्द की परिस्थिति के अनुसार बरतते हैं और मनुष्य की ही तरह सुख, आनंद, भय और क्रोध प्रकट करते हैं। वे हंस और रो भी सकते हैं यद्यपि मनुष्य के समान उनके आंसू और ध्वनियां नहीं होती।
मनुष्य और प्राणियों के बीच भेद
यद्यपि मनुष्य के कुछ लक्षण मनुष्य सदृश बंदरों के समान होते हैं तथापि अत्यंत महत्त्वपूर्ण लक्षणों की दृष्टि से मनुष्य उनसे भिन्न है।
मनुष्य केवल पैरों के सहारे और खड़ी स्थिति में चलता है। मनुष्य सदृश बंदर आसानी से पेड़ों पर चढ़ सकते हैं और जमीन पर चल सकते हैं पर ऐसा करते हुए वे झुककर अपने अग्रांगों का सहारा लेते हैं। मनुष्य की टांगें उसके हाथों से लंबी होती हैं जबकि बंदरों के अग्रांग पश्चांगों से लंबे होते हैं (आकृति १८५) ।
यद्यपि मनुष्य का हाथ आम तौर पर बंदर के अग्रांग से मिलता-जुलता होता है फिर भी उनमें काफी फर्क हैं (आकृति १८६ )। यह सही है कि बंदर का अंगूठा अन्य अंगुलियों की विरुद्ध दिशा में होता है पर होता है वह अल्पविकसित। उसके अंग मुख्यतया पेड़ों की शाखाओं को पकड़ने के काम आते हैं। मनुष्य का अंगठा सुविकसित होता है और उसके हाथ तरह तरह के काम कर सकते हैं क्योंकि ये उसकी श्रमेंद्रियों या कर्मेंद्रियों में से हैं।
मनष्य के शरीर के कुछ पृथक् स्थानों में बाल रहते हैं जबकि बंदर में ये अधिक विकसित रूप में सारे शरीर पर होते हैं।
खोपड़ी की संरचना में काफी फर्क पाया जाता है। बंदरों में जबड़ों से बना हमा अगला हिस्सा अधिक विकसित होता है जबकि मनुष्य में कपाल का हिस्सा, जिसमें मस्तिष्क होता है।
इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण अंतर मस्तिष्क की संरचना में है। मनुष्य के उच्च विकसित प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध होते हैं। मनुष्य के मस्तिष्क का वजन कभी भी १,२०० ग्राम से कम नहीं होता और २, ००० ग्राम तक वजनी हो सकता है पर बंदरों के मस्तिष्क का वजन ४००-६०० ग्राम होता है।
मनुष्य उपकरण बनाता है और श्रम के लिए उनका उपयोग करता है। यह अत्यंत सुसंरचित बंदरों की बिसात के बाहर है। मनुष्य की सचेतन गतिविधि उसके मस्तिष्क के ऊंचे विकास और श्रम से संबद्ध है। मनुष्य स्पष्टोच्चारित भाषा बोलते हैं और एक दूसरे को अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। पर मनुष्यों का सबसे विशिष्ट लक्षण है उनका सामाजिक जीवन । मानव-समाज का विकास विशेष नियमों पर आधारित है।
उपकरण बनाने और सचेतन रूप में उनका श्रम के लिए प्रयोग करने की क्षमता और स्पष्टोच्चारित भाषा तथा सामाजिक जीवन के कारण मनुष्य को प्राणि-जगत् के बाहर और उससे ऊंचा स्थान प्राप्त हुआ।
प्राणियों का जीवन आसपास की प्रकृति पर निर्भर है। दूसरी ओर मनुष्य ने प्रकृति के नियम खोज निकाले हैं और वह उसे अपने हितानुसार परिवर्तित करता है।
प्रश्न – १ . मनुष्य और स्तनधारियों के बीच कौनसी समानता है ? २. मनुष्य और मनुष्य सदृश बंदरों में कौनसी समानताएं हैं? ३. मनुष्य और प्राणियों के बीच कौनसी भिन्नताएं हैं ? ४. हम मनुष्य को प्राणी क्यों नहीं मानते ?
मनुष्य का मूल
मनुष्य और प्राणियों, विशेषकर मनुष्य सदृश बंदरों के बीच की समानता केवल संयोगजनित नहीं हो सकती। उससे मनुष्य का प्राणियों के साथ घनिष्ठ संबंध और प्राचीन मनुष्य सदृश बंदरों से उसकी उत्पत्ति का संकेत मिलता है।
बहुत-से तथ्यों से इस निष्कर्ष की पुष्टि होती है। उदाहरणार्थ, मनुष्य के भ्रूण के जल-श्वसनिका-छिद्र और पूंछ होती है और उसके विकास की बाद की अवस्था में वह बंदर के भ्रूण के समान दिखाई देता है।
कुछ लोगों में पूंछ के विकास और सारे शरीर पर बालों के अस्तित्व जैसी अत्यंत विरली घटनाओं का स्पष्टीकरण केवल प्राणियों से मनुष्य की उत्पत्ति मानने पर ही मिल सकता है। स्पष्टतया ये हमारे प्राणि-पूर्वजों के विशिष्ट लक्षण थे।
मनुष्य के शरीर में कुछ इंद्रियां अविकसित और आम तौर पर अकार्यशील होती हैं इसका स्पष्टीकरण भी प्राणियों से उसकी उत्पत्ति मानने पर ही मिल सकता है। उदाहरणार्थ , मनुष्य की कर्ण-पालियों में अल्पविकसित पेशियां होती हैं जबकि स्तनधारियों में वे कानों को गति प्रदान कर सकती हैं। कुछ लोगों में ये पेशियां अधिक विकसित रहती हैं और इनसे कानों में गति पैदा हो सकती है।
मनुष्य और मनुष्य सदृश बंदर की अत्यधिक समानता उनके घनिष्ठ संबंध का संकेत देती है। वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य और आधुनिक मनुष्य सदृश बंदरों के एक ही पुरखे – प्राचीन बंदर थे। काफी समय हुआ ये लुप्त हो चुके हैं।
मनुष्य किस प्रकार बंदरों से उत्पन्न हुआ इस समस्या पर फ्रेड्रिक एंगेल्स ने विस्तृत रूप में प्रकाश डाला है।
प्राचीन बंदरों – मनुष्य के पुरखों – ने अपना वृक्षचर जीवन बदलकर स्थलचर जीवन अपनाया और पश्चांगों के सहारे चलना शुरू किया। अग्रांग स्वतंत्र हुए और बंदरों ने उनका उपयोग भोजन प्राप्त करने और लाठियों तथा पत्थरों के सहारे शत्रुओं से अपना बचाव करने के लिए करना आरंभ किया। मनुष्य के पुरखों ने विभिन्न प्राकृतिक चीजों का उपकरणों के रूप में उपयोग करना सीखा और फिर खुद ही उपकरण तैयार करने लगे। इस प्रकार मनुष्य ने श्रमात्मक क्रियाकलाप शुरू किये जो उसे प्राणियों से भिन्न दिखाते हैं। हाथों की बहुविध श्रमात्मक गतियों के कारण उनका और विकास हुआ और उनमें पूर्णता आयी।
मनूष्य के श्रमात्मक क्रियाकलापों के दौरान उसके सामाजिक जीवन और साथ साथ स्पष्टोच्चारित भाषण-क्षमता और बुद्धि का भी विकास हूआ। श्रम ने बंदर को मनुष्य बना दिया।
प्रश्न – १. प्राणि-पूर्वजों से मनुष्य की उत्पत्ति दिखानेवाले कौनसे चिह्न मनुष्य के भ्रूण में मिलते हैं ? २. बालदार और पूंछदार लोगों के अस्तित्व का स्पष्टीकरण हम किस प्रकार दे सकते हैं ? ३. मनुष्य के पुरखों ने खड़ी स्थिति में चलना शुरू किया इसका क्या महत्त्व है ? ४. मनुष्य के विकास में श्रम का क्या महत्त्व रहा है ?
मनुष्य द्वारा प्राणि-जगत् में परिवर्तन
प्राकृतिक नियमों का अध्ययन करके मनुष्य ने अपने हितार्थ प्रकृति का उपयोग करना सीखा । मनुष्य द्वारा प्राणि-जगत् सहित प्राकृतिक स्रोतों के कुशल और सक्षम उपयोग का विशेष स्पष्ट उदाहरण सोवियत संघ में किये गये प्राकृतिक परिवर्तनों में प्रतिबिंबित है।
सोवियत संघ में कृषि-नाशक प्राणियों और रोगों के उत्पादकों तथा वाहकों के विरुद्ध विस्तृत कार्यवाहियां की जाती हैं। इन कार्यवाहियों के फलस्वरूप सोवियत संघ में टिड्डियों का नामोनिशान लगभग मिट चुका है य बहुत-से स्थानों में मलेरिया के मच्छर नष्ट हो चुके हैं रू ठप्पेदार गोफरों की संख्या काफी घट चुकी है , इत्यादि।
व्यापारिक मछलियों , पक्षियों और फरदार प्राणियों की रक्षा के लिए विस्तृत कार्यवाहियां की जाती हैं। इसके फलस्वरूप जंगलों में गोजनों, सैबलों, इत्यादि की संख्या बढ़ गयी है। प्राणियों के फैलाव और नये प्राणियों के ऋतुअनुकूलन के फलस्वरूप प्रकृति में परिवर्तन किया जा रहा है। इस प्रकार बीवर अब केवल वोरोनेज के रक्षित उपवन में ही नहीं बल्कि २० से अधिक प्रदेशों और इलाकों में फैले हुए हैं। हमारे देश में लगभग ३० वर्ष पहले आयात किये गये। ओंडाटा का शिकार अब कई प्रदेशों में किया जाता है। फरदार प्राणियों का पालन पशु-पालन की एक नयी शाखा है जो सोवियत संघ में विकसित हो रही है।
रुपहली-काली और आर्कटिक लोमड़ियां और सैबल अब पालतू प्राणी बन रहे हैं। इधर गोजन पालतू बन चुका है।
इस प्रकार मनुष्य के योजनाबद्ध क्रियाकलापों के फलस्वरूप प्राणि-जगत् समाज के लिए उपयुक्त रूप में परिवर्तित हो रहा है।
पालतू प्राणियों पर मनुष्य का प्रभाव विशेष सशक्त रहा है। मनुष्य ने न केवल उन्हें साध लिया , पर उनका स्वभाव ही बदल डाला। पालतू प्राणियों का सुधार बराबर जारी है। नयी और अधिकाधिक विकसित नस्लें संवर्दि्धत की जा रही हैं।
नयी नस्लें सुप्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक मिचूरिन द्वारा प्रस्तुत की गयी पद्धति के आधार पर संवर्दि्धत की जा रही हैं। इवान व्लादीमिरोविच मिचूरिन ( १८५५-१९३५) ने अपना समूचा जीवन फल-वृक्षों की नयी नयी किस्में विकसित करने में लगा दिया। उन्होंने ३०० से अधिक किस्में विकसित की। वह न केवल बागवान बल्कि एक सुविख्यात वैज्ञानिक थे और उन्होंने जीवधारियों के जीवन से संबंधित आम नियमितताएं खोज निकाली। प्राणियों के नये बायोलोजिकल प्रकार उत्पन्न करने के संबंध में मिचूरिन द्वारा विकसित की गयी पद्धतियों का कुशलतापूर्वक उपयोग करनेवालों में से एक हैं म० फ० इवानोव जिन्होंने उक्रइनी स्तेपीय सफेद सूअरों की नस्ल पैदा करायी (८६)।
इ० व्ला ० मिचूरिन का आदर्श-वाक्य यह था – ‘‘ हम प्रकृति की मेहरबानी की प्रतीक्षा नहीं करेंगे बल्कि खुद उसका खजाना हासिल करेंगे‘‘। यह अब प्रगतिशील जीव-वैज्ञानिकों का आदर्श-वाक्य बन गया है।