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मध्य काल में शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र कौन-कौन से थे , निम्नलिखित स्थानों में से कौन सा स्थान पूर्व मध्य काल में शिक्षा का केंद्र नहीं था
जानिये मध्य काल में शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र कौन-कौन से थे , निम्नलिखित स्थानों में से कौन सा स्थान पूर्व मध्य काल में शिक्षा का केंद्र नहीं था मध्यकालीन भारतीय विश्वविद्यालय का विकास ?
मध्य काल में शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र
भारत में मुस्लिम शासन काल के दौरान कई शहरों ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
दिल्लीः शुरुआती मुस्लिम शासकों ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। मुगल रानियों ने भी भारत के इस महानगर को सुंदर एवं गरिमामय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह स्वाभाविक था कि दिल्ली मुस्लिम शिक्षा का केंद्र बना। नसीरुद्दीन ने दिल्ली में शिराज की अध्यक्षता में ‘मदरसा-ए-नसीरिया’ की स्थापना की। गुलाम वंश के अन्य शासकों ने भी दिल्ली को मुस्लिम शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र बना, रखने का प्रयास किया।
अलाउद्दीन खिलजी ने भी दिल्ली में कई मदरसा स्थापित किए और वहां पर सुप्रसिद्ध अध्यापकों की नियुक्ति की। इन संस्थानों में 40 से भी अधिक विद्वान मुस्लिम धर्म विज्ञानी एवं मुस्लिम कानूनों के अध्यापक थे। अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में दिल्ली साहित्यकारों और कलाकारों का केंद्र बना।
मुहम्मद तुगलक और उसके उत्तराधिकारी, फिरोज तुगलक के शासन काल के दौरान दिल्ली निरंतर मुस्लिम शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा।
मुगलों के शासनकाल के दौरान, दिल्ली ने न केवल अपना शिक्षा के केंद्र होने का दर्जा बना, रखा अपितु इसमें सुधार भी किया। यह अब उत्तरी भारत में मुस्लिम शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान बन चुका था। हुमायूं ने दिल्ली में खगोलशास्त्र एवं भूगोल के अध्ययन के लिए संस्थानों की स्थापना की। अकबर ने भी ऐसे शैक्षिक संस्थानों में इजाफा किया जहां अरबी, फारसी, व्याकरण, दर्शन एवं खगोलशास्त्र जैसे विषय भी पढ़ा, जाते थे। यह कहा जाता है कि यहां तक कि अकबर की ‘आया’ ने भी 1561 में दिल्ली में एक बड़ा शैक्षिक संस्थान स्थापित किया, और प्रसिद्ध विद्वान बदायूंनी ने यहां से शिक्षा ग्रहण की। जहांगीर और शाहजहां ने भी दिल्ली के इस मुकाम को बना, रखा और इसमें योगदान करने के लिए वह सब कुछ किया जो वे कर सकते थे। औरंगजेब ने दिल्ली को एक रूढ़िवादी मुस्लिम शिक्षा के एक शहर के रूप में तब्दील करने का भरसक प्रयास किया। इसके दृष्टिगत उसने कई नए शिक्षा संस्थान खोले और मौजूदा केंद्रों को वित्तीय मदद प्रदान की। उसके पश्चात् दिल्ली के इस दर्जे में कमी आनी शुरू हो गई।
आगराः सिकंदर लोदी ने आगरा को मुस्लिम शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनाया। उसने इस शहर में कई मकतबों एवं मदरसों की स्थापना की जहां विदेशों से भी विद्यार्थी अध्ययन के लिए आए। सिकंदर लोदी के बाद बाबर एवं हुमायूं ने भी आगरा में मदरसों की स्थापना की। लेकिन अकबर ने आगरा को न केवल शिक्षा एवं अधिगम का एक केंद्र बनाया अपितु संस्कृति, दस्तकारी एवं ललित कलाओं का भी एक मुख्य स्थान बनाया। उसके शासन काल में, आगरा एक बड़ा विश्वविद्यालय बना जहां कई जगहों से विद्वान एवं शोधार्थी आए। आगरा के निकट एक प्रसिद्ध शहर फतेहपुर सीकरी है, जहां अकबर ने कई विद्यालयों का निर्माण किया। उसकी मृत्यु के पश्चात्, जहांगीर एवं शाहजहां ने भी मौजूदा मदरसों एवं शैक्षिक संस्थानों की संख्या में इजाफा किया और उन्हें वित्तीय मदद भी प्रदान की। औरंगजेब के शासनकाल के दौरान आगरा इस्लामी शिक्षा का एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान माना जागे लगा। लेकिन मुगल साम्राज्य के पतन के साथ, आगरा की प्रस्थिति में भी कमी होती गई।
जौनपुरः तुर्कों, अफगानों एवं मुगलों के शासन काल के दौरान, जौनपुर को भी मुस्लिम शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र के तौर पर ख्याति प्राप्त हुई। यह कहा जाता है कि शेरशाह सूरी ने भी यहीं के किसी एक विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। यहां पर शिक्षा के विभिन्न किस्म के संस्थान थे। यहां विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए कई स्थानों से आ, और इतिहास, राजनीति विज्ञान, दर्शन, और युद्धास्त्रों का भी ज्ञान प्राप्त किया।
इब्राहीम शर्की ने जौनपुर में कई मदरसों की स्थापना की और राज्य द्वारा उनके वित्त पोषण की व्यवस्था की। मुगल शासकों में हुमायूं से लेकर शाहजहां तक ने इस स्थान पर उचित ध्यान दिया और इसे शिक्षा का एक स्थान बनाने का प्रयास किया। यह शहर दस्तकारी एवं ललित कलाओं के लिए प्रसिद्ध था। मोहम्मद शाह के शासन के दौरान यहां 20 शैक्षिक संस्थानों की स्थापना की गई। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही इस स्थान की शैक्षिक स्थान के तौर पर गरिमा धूमिल होने लगी।
बीदरः यह दक्षिण भारत में बहमनी शासकों के शासनाधीन एक शहर था। यह शिक्षा का एक महत्वपूर्ण स्थान था और मोहम्मद गवन ने कई मकतबों एवं एक विशाल मदरसे का यहां निर्माण किया। इस मदरसे में बेहद विद्वान मौलवी नियुक्त किए गए। इस मदरसे के साथ एक विशाल पुस्तकालय भी बनाया गया जिसमें इस्लामी धर्म विज्ञान, संस्कृति, दर्शन, चिकित्सा विज्ञान, खगोलशास्त्र, इतिहास, कृषि इत्यादि पर लगभग 3,000 पुस्तकें थीं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी मकतब थे जिनके माध्यम से अरबी एवं फारसी भाषा का विस्तार किया गया। बहमनी शासक विशेष प्रकार की शिक्षा का विस्तार करते थे। इस शासन के तहत् एक भी ऐसा गांव नहीं था जहां कम से कम एक शैक्षिक संस्थान न हो। इसलिए यह स्वाभाविक था कि बीदर दक्षिण भारत में इस्लामी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना।
मध्यकाल मदरसों की वृद्धि एवं विकास का साक्षी रहा जिसने उच्च शिक्षा का प्रतिनिधित्व किया। प्रारंभिक मदरसों के बारे में अधिक ज्ञात नहीं है, मुहम्मद गौरी ने अजमेर में कई मदरसों की स्थापना की जिसे उनके उत्तराधिकारियों ने कई स्थानों पर शृंखलाबद्ध किया। मदरसों को राजनीतिक संरक्षण एवं भूमि पर्याप्त रूप से प्राप्त हुई।
यद्यपि मुस्लिम शासन काल के दौरान पर्दा प्रथा थी, फिर भी इस्लाम ने महिला शिक्षा का विरोध नहीं किया। इन दो विपरीत कारकों ने महिला शिक्षा को दो तरीके से प्रभावित किया। लड़कियों को एक निर्धारित आयु तक लड़कों के समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था लेकिन उसके पश्चात् उनकी शिक्षा रोक दी जाती थी। हालांकि, उच्च वर्गें की लड़कियां घर पर अपनी पढ़ाई जारी रख सकती थीं।
आधुनिक काल में शिक्षा
भारत में सामाजिक जीवन के अन्य पहलुओं की तरह, पूर्ववर्ती शताब्दियों की कई सारी परम्परागत विशेषताएं शिक्षा के क्षेत्र में आधुनिक काल के प्रारंभ या 18वीं शताब्दी में बनी रहीं। तक्षशिला, नालंदा, भागलपुर के गजदीक विक्रमशिला, उत्तरी बंगाल में जगदल, काठियावाड़ में वल्लभी और दक्षिण भारत में कांची जैसे उच्च शिक्षा के प्राचीन प्रसिद्ध केंद्र काफी समय पहले विलुप्त हो चुके थे। दूसरी ओर इस्लामी शिक्षा शासकों एवं संतों के संरक्षण में फली-फूली। फिर भी हिंदू जनसंख्या का एक बड़ा भाग उस समय के प्रसिद्ध सम्मानित शैक्षिक संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करता रहा।
लगभग 150 वर्षों तक, ब्रिटिश भारत में व्यापार एवं विजय प्राप्त करने में मशगूल थे। अतः उन्होंने शिक्षा सहित सभी प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियों से दूरी बना, रखी। शुरुआत 1781 में वारेन हेस्टिंग्ज के ओरियंटल स्काॅलरशिप से हुई जब उन्होंने कलकत्ता मदरसा की शुरुआत की। उनके प्रयास प्राथमिक तौर पर प्रशासनिक कारणों से थे। गयारह वर्षों बाद, 1792 में, जोनाथन डंकन, जो वाराणसी के रेजीडेंट थे, ने यूरोपीय लोगों की मदद के लिए हिंदुओं को शिक्षित करने के उद्देश्य से एक संस्कृत काॅलेज की शुरुआत की।
इसी बीच, ईसाई मिशनरियों ने प्राथमिक स्कूलों को खोलकर पश्चिमी शिक्षा को प्रस्तुत करने का प्रयास किया और समाज के दलित एवं कमजोर वर्गें, जिसमें अछूत जातियां भी शामिल थीं, को अधिकाधिक शिक्षा प्रदान की।
प्रारंभिक 60 वर्षों तक ईस्ट इंडिया कंपनी एक विशुद्ध व्यापारिक कंपनी थी। उसका उद्देश्य व्यापार करके केवल अधिक से अधिक लाभ कमाना था तथा देश में शिक्षा को प्रोत्साहित करने में उसकी कोई रुचि नहीं थी। इन वर्षों में शिक्षा के प्रोत्साहन एवं विकास हेतु जो भी प्रयास किये गये, वे व्यक्तिगत स्तर पर ही किये गये थे।
1781 में वारेन हेस्ंिटग्स ने कलकत्ता मदरसा की स्थापना की। इसका उद्देश्य, मुस्लिम कानूनों तथा इससे संबंधित अन्य विषयों की शिक्षा देना था। 1791 में बनारस के ब्रिटिश रेजिडेन्ट, जोनाथन डंकन के प्रयत्नों से बनारस में संस्कृत कालेज की स्थापना की गयी। इसका उद्देश्य हिन्दू विधि एवं दर्शन का अध्ययन करना था। वर्ष 1800 में लार्ड वैलेजली ने कंपनी के असैनिक अधिकारियों की शिक्षा के लिये फोर्ट विलियम काॅलेज की स्थापना की। इस काॅलेज में अधिकारियों को विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा भारतीय रीति-रिवाजों की शिक्षा भी दी जाती थी। (किंतु 1802 में निदेशकों के आदेश पर यह कालेज बंद कर दिया गया)।
कलकत्ता मदरसा एवं संस्कृत काॅलेज में शिक्षा पद्धति का ढांचा इस प्रकार तैयार किया गया था कि कंपनी को ऐसे शिक्षित भारतीय नियमित तौर पर उपलब्ध कराये जा सकें, जो शास्त्रीय और स्थानीय भाषाओं के अच्छे ज्ञाता हों तथा कंपनी के कानूनी प्रशासन में उसे मदद कर सकें। न्याय विभाग में अरबी, फारसी और संस्कृत के ज्ञाताओं की आवश्यकता थी ताकि वे लोग न्यायालयों में अंग्रेज न्यायाधीशों के साथ परामर्शदाता के रूप में बैठ सकें तथा मुस्लिम एवं हिन्दू कानूनों की व्याख्या कर सकें। भारतीय रियासतों के साथ पत्र-व्यवहार के लिये भी कंपनी को इन भाषाओं के विद्वानों की आवश्यकता थी। इसी समय प्रबुद्ध भारतीयों एवं मिशनरियों ने सरकार पर आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष एवं पाश्चात्य शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये दबाव डालना प्रारंभ कर दिया क्योंकि (प) प्रबुद्ध भारतीयों ने निष्कर्ष निकाला कि पाश्चात्य शिक्षा के माध्यम से ही देश की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दुर्बलता को दूर किया जा सकता है। (पप) मिशनरियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार से भारतीयों की उनके परंपराग्त धर्म में आस्था समाप्त हो जायेगी तथा वे ईसाई धर्म ग्रहण कर लेंगे। सीरमपुर के मिशनरी इस क्षेत्र में बहुत उत्साही थे।
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