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मधुबनी चित्रकला की विशेषता क्या है , मधुबनी पेंटिंग के प्रकार , इतिहास पेंटिंग कहां की है भूमिचित्रण (अरिपन)
जाने मधुबनी चित्रकला की विशेषता क्या है , मधुबनी पेंटिंग के प्रकार , इतिहास पेंटिंग कहां की है भूमिचित्रण (अरिपन) ?
मधुबनी चित्रकला
भारत के सभी क्षेत्रों में लोक कला का स्वच्छंद विकास हुआ है। भारत के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा मिथिला क्षेत्र की लोक कला की समृद्ध एवं उन्नत परम्परा है। मिथिला की पारम्परिक चित्रकला जो मधुबनी चित्रकला के नाम से भी जागी जाती है, आज भी उतनी ही सजीव है जितनी कि वह आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व थी। मिथिला की लोक चित्रकला का आज विश्व में विशेष स्थान है। आज मधुबनी पेंटिंग्स नाम से प्रसिद्ध इस चित्रकला की अलौकिक कला-कृतियां देशी-विदेशी कला मर्मज्ञों का मन मोह लेती हैं। मधुबनी जैसाकि नाम से ही स्पष्ट है ‘शहद के वन’। यह क्षेत्र अपनी हरियाली तथा सदा लहलहाती फसलों, रंग-बिरंगे फूलों से भरे बागों व फूलों से लदे वृक्षों के लिए प्रसिद्ध था। इसी कारण इस क्षेत्र को लोग मधुबन कहने लगे और यहां की चित्रकला मधुबनी चित्रकला के नाम से प्रसिद्ध हुई।
इस चित्रकला में साधारणतः चित्रांकन का कार्य तीन प्रकार से किया जाता है भित्तिचित्र, पट्टचित्र तथा भूचित्रण (अरपिन)। मिथिला में चित्रांकन के यह तीनों प्रकार मिथिलावासियों के जीवन का अभिन्न अंग हैं।
भूमिचित्रण (अरिपन) की परम्परा मिथिला में बेहद प्रचलित है और इसमें मिथिला की संस्कृति परिलक्षित होती है। यह वैदिक संस्कृति का प्रतिफल है। अरिपन के मूल में धार्मिक भावना प्रबल रही है जिसकी प्रेरणा महर्षियों से मिली होगी। मिथिला में सामान्यतः कोई ऐसा वग्र नहीं है जिसके घर में किसी पर्व के अवसर पर अरिपन को अनिवार्य नहीं माना जाता हो। प्रत्येक शुभ अवसर के लिए पृथक्-पृथक् अरिपन बनाने का विधान है तथा सभी अरिपनों की पृष्ठभूमि में कुछ-न-कुछ धार्मिक भावना अंतर्निहित है। इनमें अंकित सभी रेखाएं एवं चिन्ह प्रतीक बोधक होते हैं तथा अट्ठारह पुराणों तथा अन्य शास्त्रों के गूढ़ तत्वों पर आधारित हैं।
मिथिला में मुख्य से रूप से तुसारी पूजा का अरिपन, पृथ्वी अरिपन, चतुःशंख अरिपन,षड़दल अरिपन, अष्टदल अरिपन, स्वास्तिक अरिपन, कोजागर का अरिपन, सुसरात्रि का अरिपन, मधुश्रावणी पूजा का अरिपन,षष्टी पूजा का अरिपन, स्त्रियों का दशापात अरिपन, उबटन लगाने का अरिपन, कल्याणदेई पूजा का अरिपन, सांझ अरिपन, मौहक अरिपन, तुलसी पूजा का अरिपन इत्यादि अरिपन निर्मित किए जाते हैं।
मिथिला में भूचित्रण के समान भित्तिचित्र की भी समृद्ध परम्परा है। धार्मिक भित्तिचित्र में शिव-पार्वती, राधा-कृष्ण, विष्णु, दुग्र-काली, लक्ष्मी-सरस्वती, दशावतार की प्रमुखता रहती है। इन चित्रों के दार्शनिक तथ्य से लोक जीवन सतत् उद्वेलित होता है, जो लौकिक एवं परलौकिक जीवन-परम्परा का द्योतक है। भित्तिचित्र में वर-कन्या, हाथी-मछली, सुग्गा (तोता)-मैना, सूर्य-चंद्र-कमल, शंख आदि के सभी चित्र रहते हैं। इसमें हाथी-घोड़ा ऐश्वर्य के, सूर्य-चंद्र दीर्घ जीवन और हंस-मयूर सुख-शांति के प्रतीक हैं।
मिथिला की चित्रकला में कोहबर चित्रण अथवा कोहबर लेखन का एक विशेष महत्व है तथा इसमें मंगल सूचक मान्यताएं अंतर्निहित हैं। कोहबर लेखन मिथिला की ज्यामितिक एवं तांत्रिक पद्धति की चित्रकला है जिसमें अनेक प्रतीक चिन्हों का निरूपण किया जाता है। कोहबर में बांस, तोता, कछुआ, मछली, कमल वृद्धि का प्रतीक है तथा कमल का पत्ता स्त्री प्रजनेंद्रीय का। उसी प्रकार तोता ज्ञान अथवा ज्ञान के विकास का प्रतीक है। भित्तिचित्रों में नयना योगिन, पुरैन, दही का भरिया, मछली का भरिया, सरोवर,गोपी चीर हरण लीला, कटहल का पेड़, केला का भरिया, मोर का चित्र, अनार का पेड़, आम का पेड़, सामा-चकेवा के चित्रण, जट-जट्टिन एवं सल्हेस के चित्रण प्रमुखता से किए जाते हैं।
मिथिला में पट्टचित्रों की भी अपनी विशेषता है। जिसका विकास प्राचीन भारतीय चित्रकला एवं नेपाल की पट्चित्रकला से हुआ है। अट्ठारहवीं शताब्दी में यहां पट्चित्रों की रचना खादी पर भी की जागे लगी। पुनः कागज की सहज उपलब्धता से कलाकारों ने अपनी प्रतिभा एवं भावना को कागज पर भी उतारना शुरू किया। साथ ही घर के भीतर कमरों के साज-सज्जा के लिए प्रयोग में लाया जागे लगा।
यों तो सम्पूर्ण मिथिला क्षेत्र की लोक कला का भाव एवं कलाशैली सामान्यतः एक ही है परंतु स्थान विशेष एवं वग्र विशेष की लोक चित्रकला में कुछ विभिन्नताएं भी अवश्य हैं।
मिथिला चित्रकला की प्रमुख उन्नायिकाओं में नीलू यादव, जगदम्बा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, बौआ देवी, भास्कर कुलकर्णी, अनमना देवी, त्रिपुरा देवी, चंद्रकलादेवी, बअुदेवी, हीरादेवी, कर्पूरी देवी, उर्मिला झा, सावित्री देवी, श्यामा देवी, जागकी देवी, चंद्रप्रभा देवी, पूना देवी, त्रिवेणी देवी,गौरी देवी, मालती देवी एवं चंद्रमुखी देवी प्रमुख नाम हैं।
मिथिला चित्रकला को अंतरराष्ट्रीय कलेवर देने में एक जापानी व्यक्ति हासेगावा ने जापान में एक मिथिला संग्रहालय बनाया है जो विश्व में अपनी तरह का एक अनोखा संग्रहालय है जिसमें मिथिला चित्रकला के दुर्लभ चित्रों का संकलन है। जर्मनी की शोधकर्ता एरिक स्मिथ ने भी मधुबनी की चित्रकला पर शोधकार्य किया है। अमेरिका के रेमंड्स का भी मिथिला चित्रकला के अर्थतंत्र में बड़ा योगदान है। यह कला अब देश की सीमाओं को लांघकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर रही है।
मिथिला की लोक चित्रकला में न केवल मिथिला अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक प्रतिबिम्ब झलकता है। ये चित्र जीवन की कविता के दृश्यमान हैं। सही मायने में यह कला परम्पराओं का एक सम्मिश्रण है, जो वंश परम्परा के अनुसार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में हस्तांतरित होती रही है।
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