मछली का जनन और परिवर्द्धन क्या है | मछली का प्रचलन अंग क्या है | पर्च के अंगों के नाम श्वसन अंग का नाम लिखें

पर्च के अंगों के नाम श्वसन अंग का नाम लिखें मछली का जनन और परिवर्द्धन क्या है | मछली का प्रचलन अंग क्या है | reproductive system in fish and reptiles in hindi

पर्च-मछली की शरीर-गुहा की इंद्रियां
यदि हम पर्च-मछली के धड़ की वगलवाली दीवाल को हटा दें तो हमें उसकी शरीर-गुहा दिखाई देगी जिसमें पाचन , उत्सर्जन आदि की इंद्रियां होती हैं।
पचनेंद्रियां पर्च-मछली अपने मुंह से शिकार पकड़ लेती है। उसका मुंह तेज दांतों के रूप में शस्त्रसज्जित होता है। पर्च-मछली बिना चबाये ही अपना भोजन निगल लेती है। गले और ग्रसिका से होकर भोजन उसके बड़े-से जठर ( प्राकृति ७३) में पहुंचता है। जठर की दीवालों से पाचक रस रसता है जिससे भाजन का पाचन प्रारंभ होता है। जठर से भोजन आंत में पहुंचता है। कई कुंडलियों वाली यह प्रांत गुदा में खुलती है।
जठर की बगल में ललौहें-भूरे रंग का बड़ा यकृत् होता है। यकृत् में उत्पन्न पित्त पित्ताशय में संचित होता है। जब भोजन प्रांत में पहुंचता है तो एक वाहिनी के जरिये पित्त बहकर प्रांत के प्रारंभिक हिस्से में पहुंचता है। आंत में पित्त और प्रांत की दीवालों से रसनेवाले पाचक रस के प्रभाव से भोजन की पाचनक्रिया जारी रहती है। प्रांत से चलते हुए पचा हुआ द्रव दीवालों से अवशोषित होकर रक्त में चला जाता है। भोजन के अनपचे अवशेप गुदा द्वारा शरीर से बाहर फेंके जाते हैं।
पचनेंद्रियों में मुख , गला, ग्रसिका, जठर, प्रांत और यकृत् शामिल हैं।
वायवाशय पर्च-मछली के जठर के ऊपर वायवाशय या हवा की थैली होती है। यह लंबी और रुपहले रंग की होती है (आकृति ७३ ) और वायवाशय नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और कारवन डाइआक्साइड के मिश्रण से भरा रहता है। वह संकुचन और प्रसरणशील होता है। इसके संकुचित होने के साथ पर्चमछली का शरीर कुछ धंसता है और पानी से भारी हो जाता है। ऐसी हालत में मछली आसानी से नीचे की ओर चलती है। इसके विपरीत थैली के प्रसरण के साथ शरीर कुछ फूलता है और पानी से हल्का हो जाता है जिससे पर्च-मछली ऊपर की ओर उतराने लगता है।
श्वसनेंद्रियां पर्च-मछली को जिंदा रहने के लिए पानी के अलावा ऑक्सीजन आवश्यक है। यह गैस काफी मात्रा में नदी के पानी में घुली हुई रहती है। ऑक्सीजन श्वसनेंद्रियों अर्थात् जल-श्वसनिकाओं द्वारा ग्रहण किया जाता है।
ये सिर और धड़ के बीच की सीमा पर जल-श्वसनिका के आवरणों के नीचे होती हैं। जल-श्वसनिकाएं चमकदार लाल रंग की अनगिनत श्वसनिका-छड़ों से बनती हैं जो श्वसनिका-मेहराबें कहलानेवाली विशेष हड्डियों से जुड़ी रहती हैं (आकृति ७४) । मेहराबों के बीच श्वसनिका-छेद होते हैं। श्वसनिका-आवरणों की बराबर ऊपर-नीचेवाली गति के कारण पानी का सतत प्रवाह जारी रहता है। पानी मुंह से गले में बहता है और फिर श्वसनिका-छेदों में से होता हुआ श्वसनिकाछड़ों को छूता है। इसी क्षण पानी का ऑक्सीजन छड़ों की पतली झिल्लियों और रक्त-वाहिनियों की दीवालों में पैठता हुआ रक्त में चला जाता है। साथ साथ शरीर की सभी इंद्रियों ने प्रानेवाला कारवन डाइ-आक्साइड रक्त से हटकर पानी में जा मिलता है।
श्वननिका-छड़े हवा के संपर्क में आते ही आते सूख जाती हैं और प्रॉक्सीजन को अवशोपित करने की उनकी क्षमता नष्ट हो जाती है। इसी कारण पानी से निकाली गयी मछली फौरन मर जाती है। अतः जल-श्वसनिकाएं केवल पानी में ही श्वसनेंद्रियों का काम दे सकती हैं।
रक्त-परिवहन इंद्रियां पचा हुआ भोजन रक्त में अवशोषित होता है। जल श्वसनिकायों में अवशोषित प्रॉक्सीजन भी यहीं आ पहुंचता है। रक्त सभी इंद्रियों को पोषक पदार्थ और ऑक्सीजन पहुंचा देता है। यहां रक्त कार्बन डाइ-आक्साइड और शरीर से बाहर किये जाने योग्य सभी उत्सर्जन द्रव्य प्राप्त करता है।
पर्च-मछली का रक्त रक्त-वाहिनियों में रहता है और हृदय (प्राकृति ७५) उसे गति प्रदान करता है। मछली का नन्हा-सा हृदय शरीर-गुहा के अगले हिस्से में जल-इवसनिकाओं के पीछे होता है। हृदय के दो कक्ष होते हैं – मोटी पेशियों की दीवालों वाला निलय और पेशियों की ही, पर काफी पतली दीवालों वाला अलिंद।
सभी रक्त वाहिनियां एक-सी नहीं होतीं। उन्हें धमनियों, शिराओं और केशिकाओं में विभक्त किया जाता है। धमनियां वे वाहिकाएं हैं जिनके जरिये रक्त हृदय से निकलकर शरीर की सभी इंद्रियों में पहुंचता है। शिराओं के जरिये रक्त हृदय में लौट आता है। धमनियों और शिराओं के बीच स्थित और केवल माइक्रोस्कोप से दिखाई दे सकनेवाली सूक्ष्म वाहिनियां केशिकाएं कहलाती हैं।
शिराओं से हृदय की ओर पानेवाला रक्त पहले पहल अलिंद में प्रवेश करता है। अलिंद के संकुचित हो जाने पर वह निलय में प्रवेश करता है जबकि निलय का संकुचन उसे हृदय से धमनी में बहा देता है जो उसे जल-श्वसनिकायों की ओर ले जाती है। यहां रक्त ऑक्सीजन से समृद्ध और कारवन डाइ-आक्साइड से खाली हो जाता है। जल-श्वसनिकाओं से रक्त बड़ी धमनी में प्रवेश करता है जो क्रमशः छोटी छोटी धमनियों में विभाजित होती है। ये सभी इंद्रियों में पैठती हैं और अत्यंत सूक्ष्म केशिकाओं के शाखा-जाल का रूप धारण करती हैं।
शरीर की केशिकाओं में रक्त सभी इंद्रियों के लिए आवश्यक प्रॉक्सीजन और पोषक पदार्थ छोड़ देता है। यहीं रक्त में कारवन डाइ-आक्साइड और शरीर से बाहर किये जाने योग्य अन्य पदार्थ प्रा मिलते हैं। केशिकाओं में से रक्त शिराओं में प्रवेश करता है और वापस हृदय की ओर जाता है।
इस प्रकार रक्त बराबर रक्त-वाहिनियों में से बहता हुआ अखंडित चक्कर लगाता रहता है।
उत्सर्जक इंद्रियां जल-श्वसनिकाओं द्वारा वाहर छोड़े जानेवाले कार्बन डाइ-आक्साइड के अलावा दूसरे उत्सर्जन योग्य पदार्थ शरीर की सभी इंद्रियों में तैयार होते हैं। ये पदार्थ रक्त में प्रविष्ट होते हैं और रक्त उन्हें उत्सर्जक इंद्रियों में अर्थात् गुर्दो में पहुंचा देता है जहां से वे शरीर के बाहर फेंके जाते हैं (आकृति ७३ )।
पर्च-मछली के गुरदे ललौहें-भूरे रंग की दो फीतानुमा इंद्रियों के रूप में होते हैं। ये शरीर के ऊपरवाले हिस्से में होते हैं। गुरदों से सयुग्म नलिकाएं निकलती हैं। ये मूत्रवाहिनियां कहलाती हैं। ये मूत्राशय में पहुंचती हैं जिसकी वाहिनी गुदा के पीछे खुलती है।
उपापचय पर्च-मछली का शरीर ऑक्सीजन और पोषक पदार्थ प्राप्त करता है। जटिल रासायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप भोज्य पदार्थ पर्च-मछली के शरीर-संवर्द्धन में लग जाते हैं। ऑक्सीजन शरीर में पदार्थों के विघटन और उसके जीवन के लिए आवश्यक उष्णता के उत्पादन में सहायक होता है। इसी के साथ साथ कार्बन डाइ-आक्साइड तैयार होकर जलश्वसनिकानों से बाहर कर दिया जाता है और अन्य अनुपयुक्त पदार्थ गुरदों से उत्सर्जित होते हैं । इस प्रकार शरीर और वातावरण के बीच सतत आदान-प्रदान जारी रहता है- बाहर से कुछ पदार्थ मछली के शरीर में प्रवेश करते हैं जबकि कुछ पदार्थ शरीर के बाहर फेंके जाते हैं।
पर्च तथा अन्य मछलियों में उपापचय पंछियों और स्तनधारियों की तुलना में कम तीव्र रहता है। वाहिनियों में रक्त धीरे धीरे बहता है और उसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है। शरीर में उत्पन्न उप्णता की मात्रा भी कम रहती है और इसी कारण आसपास के पानी के तापमान के साथ उसके शरीर का तापमान भी घटता-बढ़ता है और वह पानी के तापमान से केवल १-२ सेंटीग्रेड से ही ऊंचा होता है।
प्रश्न – १. भोजन का पाचन कहां और किन रसों के प्रभाव के अधीन होता है ? २. वायवाशय या हवा की थैली क्या काम देती है ? ३. पर्चमछली की श्वसन-क्रिया का वर्णन दो। ४. पर्च-मछली के लिए रक्त-परिवहन का क्या महत्त्व है ? ५. गुरदों का काम क्या है ? ६. उपापचय क्या होता है ?
व्यावहारिक अभ्यास – जब घर पर मछली पकायी जा रही हो उस समय मछली की अंदरूनी इंद्रियों की जांच करो।
पर्च-मछली का जनन और परिवर्द्धन
जननेंद्रियां पर्च में नर और मादा होते हैं। बाह्य रूप से लिंग की भिन्नता नहीं दिखाई देती। शरीर को काटने के बाद ही लिंगेंद्रियों की भिन्नता स्पष्ट होती है।
मादा की शरीर-गुहा में अंडाशय होता है जिसमें अंड-समूह या अंड-कोशिकाओं का परिवर्द्धन होता है। नर के दूध जैसे सफेद दो वृषण होते हैं जिनसे बिल्कुल नन्हे नन्हे चल शुक्राणु उत्पन्न होते हैं। अंडाशय और वृषण गुदा के पास स्थित बाह्य जनन-द्वारों में खुलते हैं।
संसेचन वसंत के प्रारंभ में अर्थात् अप्रैल के अंत या मई के प्रारंभ में , जब हवा में गरमी आ जाती है तो पर्च-मछलियां अंडे देती हैं। वे छिछले जल के ऐसे स्थान में बड़े बड़े झुंडों में इकट्ठी होती हैं जहां पौधे उगे रहते हैं और पानी काफी गरमी लिये होता है।
यहां मादा अंड-समूह छोड़ देती है जो जल के पौधों से लटके हुए जैलीनुमा लंबे फीते-से लगते हैं (आकृति ७६ )। इसी समय नर अपने वृषणों से शुक्राणु युक्त द्रव छोड़ देते हैं। हर मादा बहुत बड़ी मात्रा में अंड-समूह देती है। २०० ग्राम वजनवाली अपेक्षतया छोटी पर्च-मछली के अंडाशय में दो से लेकर तीन लाख तक अंडे हो सकते हैं। नरों द्वारा छोड़े जानेवाले शुक्राणुओं की संख्या तो इससे भी ज्यादा यानी करोड़ों तक हो सकती है।
पानी में चल शुक्राणु तैरते हुए अंडों के पास पहुंचते हैं और उन्हें संसेचित कर देते हैं। अंडा शुक्राणु से मिलता है और उनके नाभिकों का और जीवद्रव्य का समेकन हो जाता है। दो कोशिकाओं से एक कोशिका बन जाती है और फिर वह एक नये जीव में परिवर्दि्धत होती है।
परिवर्द्धन संसेचित अंडा दो, चार, पाठ, इस क्रम से विभक्त होता है। फिर बहुकोशिकीय भ्रूण तैयार होता है। उसके शरीर में विभिन्न इंद्रियों और ऊतकों की रचना होती है और पांच-छः दिन बाद वह केवल आधा सेंटीमीटर लंबाईवाले नन्हे-से डिंभ में परिवर्दि्धत होता है (आकृति ७७)। डिंभ के उदर पर हम योक के बुदबुद देख सकते हैं – यह अंडे में स्थित पोपक पदार्थों के अवशेष हैं। योक के समाप्त हो जाने के बाद डिंभ जलगत सूक्ष्म पौधों, इनसोरिया, नन्हे क्रस्टेशिया ( डैफनीया और साइक्लाप ) इत्यादि खाने लगते हैं जो अंड-समूहों के उत्पत्ति क्षेत्र में बड़ी भारी मात्रा में पलते हैं। डिंभ बढ़ने लगता है, उसे वयस्क पर्च-मछली का सा रूप प्राप्त होता है।
पर्च-मछली जहां अंडे देती है, जल के उन छिछले स्थानों में अंड-समूह के परिवर्द्धन और डिंभ तथा बच्चों के जीवन के लिए आवश्यक सभी चीजें मौजूद रहती हैं। पानी गरमी लिये होता है य अंड-समूहों के फीतों को आधार देने के लिए जल के पौधों की कोई कमी नहीं होती य पौधों के कारण पानी में ऑक्सीजन काफी मात्रा में होता है । डिंभ और फ्राई के भोजन के लिए ढेरों सूक्ष्म प्राणी होते हैं।
पर्च-मछली द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में अंड-समूह दिये जाते हैं , और यह आवश्यक भी है क्योंकि उसमें से एक हिस्सा असंसेचित रह जाता है जबकि कई संसेचित अंड-समूह भी पानी के सूख जाने या ऑक्सीजन के अभाव में मर जाते हैं। इसके अलावा जल-पक्षी आदि और मछलियां भी कई अंड-समूहों को चट कर जाती हैं। शत्रुओं के झुंड के झुंड डिंभों और फ्राई के लिए घात लगाये रहते हैं। इनमें से अधिकांश , मछलियों का शिकार हो जाते हैं और थोड़े से ही वयस्क अवस्था को पहुंच पाते हैं।
जनन-काल में मछली का वरताव सहज प्रवृत्त होता है अर्थात् वह जन्मजात प्रतिवर्ती क्रियाओं का एक सिलसिला ही होता है।
प्रश्न – १. संसेचन कहलानेवाली प्रक्रिया क्या होती है और पर्च-मछली के मामले में वह किस तरह चलती है? २. पर्च-मछली का संसेचित अंडा किस प्रकार परिवर्दि्धत होता है ? ३ . अंड-समूह के परिवर्द्धन और फ्राई के जीवन के लिए कैसी परिस्थिति आवश्यक है ?