हिंदी माध्यम नोट्स
भूआकृतिक प्रदेश क्या हैं , भू-आकृति प्रक्रिया किसे कहते हैं , भारत में भूमि पर विभिन्न प्रकार की भू आकृतियों में मैदान भू क्षेत्र कितने प्रतिशत है
भारत में भूमि पर विभिन्न प्रकार की भू आकृतियों में मैदान भू क्षेत्र कितने प्रतिशत है भूआकृतिक प्रदेश क्या हैं , भू-आकृति प्रक्रिया किसे कहते हैं भारत के प्रमुख भू-आकृतिक विभाग कौन से हैं हिमालय क्षेत्र की भू आकृति का वर्णन कीजिए ?
भूआकृतिक प्रदेश : द. पू. छोटानागपुर पहाड़ी उच्चभाग है जिस पर बिखरी पहाड़ियों, घाटियों, वानच्छादित पर्वत श्रेणियों, ऊबड़-खाबड़ एवं समतल सतह वाली विस्तृत नदी बेसिनों का समूह पाया जाता है। धरातलीय विशेषताओं, निरपेक्ष एवं सापेक्षिक उच्चावच्च, औसत ढाल, घर्षण सूचकांक आदि के आधार द.पू. छोटानागपुर प्रदेश को पाँच भूआकतिक उपप्रदेशों में विभक्त किया गया है-
(i) पश्चिमी उच्च प्रदेश सिंहभमि के मध्य पठारी भाग के पश्चिम में स्थित है। सामान्यतया इस युग की सागर तल से ऊँचाई 305 मीटर है परन्तु कई पहाड़ियाँ 800 मीटर से अधिक ऊँची हैं। यह भाग की प्रक्रियाओं द्वारा अत्यधिक घर्षित हो गया है। पूर्व में इसका ढाल खड़ा है। पूर्वी कगार उत्तर में खड़े ढ़ाल वाला परन्तु दक्षिण में मन्द ढाल वाला है। दक्षिणी कोयल एवं संजय नदी तथा उनकी अनेकों सरितायें अपवाह तंत्र की रचना करती हैं।
(2) मध्य पठारी प्रदेश को सिंहभूमि ग्रेनाइट मैदान के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रदेश पश्चिम में पश्चिमी उच्चभाग से, पूर्व में स्वर्णरेखा घाटी एवं धनजोरी उच्चभाग तथा उत्तर में डालमा पहाड़ी से दक्षिण में बैतरनी बेसिन तक विस्तृत है। सामान्यतया इस प्रदेश का धरातलीय स्वरूप समतल उबड़-खाबड है जिसकी नीरसता डोलेराइट डाइक द्वारा भंग होती है। मध्य पठारी प्रदेश को दो उप प्रदेशों में विभाजित किया जाता है -(i) गम्हरिया पठार तथा (ii) उत्तरी निचला पठार। गम्हरिया पठार हाट गम्हरिया के दक्षिण में स्थित है तथा उड़ीसा सीमा तक विस्तृत है। सामान्य ऊँचाई 305 से 500 मीटर है। अवशिष्ट पहाडियों में दादरा बुरु, घारीपाट बुरु, चारदा बुरु, जंगी बुरु, चंगुरिया बुरु आदि प्रमुख हैं। उत्तरी निम्न पठार अपेक्षाकत नीचा भाग है जिस पर छिछली एवं चैड़ी नदी घाटियों का विकास हुआ है।
(3) डालमा उच्चभाग द. पू. छोटानागपुर के उ. पू. भाग में अवस्थित है। इसकी रचना प्रतिरोधी लावा एवं आसानी से अपरदनशील फाइलाइट तथा माइका-शिस्ट से हुई है। डालमा उच्चभाग वास्तव में पोरहट उच्चभाग का बढ़ा भाग है तथा 240 किमी. तक फैला है।
(4) धनजोरी उच्चभाग का विशेषक अपरदन के कारण अत्यधिक अपरदन हुआ है। मध्य पठारी प्रदेश एवं स्वर्ण रेखा घाटी के मध्य धनजोरी उच्चभाग त्रिभुजाकार आकृति में फैला है जो उत्तर-पूर्व की ओर संकरा होता जाता है।
(5) स्वर्णरेखा मैदान धनजोरी एवं डालमा उच्चभागों के मध्य अवस्थित है। जमशेदपुर के पास घाटी प्रदेश की चैड़ाई 15 किमी. है तथा घाटशिला के पास 3 किमी. ही रह जाती है। स्वर्णरेखा आकियन वलित पर्वतों की केन्द्रीय अक्ष के सहारे प्रवाहित होती है और आर्कियन यग की अपनति पर अपन मदान का निर्माण किया है तथा अपने सम्पूर्ण मार्ग में टर्शियरी उत्थान से जनित नवोन्मेष को इंगित करती है।
स्थलाकृतियाँ
द. पू. छोटानागपुर प्रदेश की वर्तमान स्थलाकृति पालिम्पसेस्ट स्थलाकृति की उदाहरण है जिसकी उत्पत्ति विगत भूआकृतिक इतिहास में अनाच्छादन, उत्थान, संवलन, अवतलन, नमन, चार इत्यादि की कई प्रावस्थाओं के परिणामस्वरूप हआ है। यहाँ की जटिल स्थलाकृति का निर्माण प्राचा सतह टकेटेड अपनति एवं स्पर स्थलाकतिक विसगंति निक प्वादण्ट जलप्रपात. अधः का वेदिका, बाढ़ मैदान, टार आदि स्थलरूपों के विभिन्न संयोगों के कारण हुआ है। इस प्रदश का कई घटनाये परी हो चकी हैं परन्त परानी स्थलाकतियों का अधिकतर भाग अगला अपराद्वारा विनष्ट हो गया है तथा बचे भाग का इतना अधिक रूप परिवर्तन हो गया है कि उनक की पुनर्रचना करना कठिन कार्य है। फिर भी इसके निम्न विभाग किए जाते हैं :-
(1) 915 मीटर सतह को ससंगदा सतह के नाम से जाना जाता है। यह सतह रांची पठार के पश्चिमी उच्च भाग की 915 मीटर सतह के समकक्ष है। ससंगदा एवं डालमा पहाड़ियों की 915 मीटर वाली सतह इस अपरदन सतह की प्रतिनिधि है। वास्तव में यह सतह पोस्ट-डालमा पेनीप्लन का अवशिष्ट भाग है। इस सतह का गोण्डवाना पूर्व टर्शियरी चक्र द्वारा पुनः अपरदन हुआ है।
(2) 610 मीटर सतह का प्रतिनिधित्व पश्चिमी उच्चभाग, डालमा तथा धनजोरी उच्चभाग की पहाड़ियों के संगत शिखर तलों द्वारा होता है। यह अपरदन सतह रांची पठार की 10 मीटर सतह के समकक्ष है।
(3) 457 मीटर सतह को गम्हरिया सतह भी कहते हैं जिसका निर्माण मध्य टर्शियरी अपरदन चक्र के समय हुआ माना गया है। इसका विस्तार सम्पूर्ण गम्हरिया पठार पर पाया जाता है।
(4) 305 मीटर सतह का निर्धारण उत्तरी निम पठार की सतह द्वारा होता है। यह सतह अन्तिम टर्शियरी पेनीप्लेन की परिचायिका है।
(ब) निचली सोन घाटी का प्रदेश – भारत की प्राचीनतम नदियों में से एक सोन नटी मानी जाती है। यह नदी जबलपुर के द. पू. में 200 किमी. दूर अमरकण्टक पहाड़ी से निकलकर पहले उ.-प. दिशा की ओर प्रवाहित होती है किन्तु कुछ दूर जाकर अचानक उ.-पू. की ओर मुड़ जाती है तथा इसी दिशा में 500 किमी. प्रवाहित होने के बाद पटना के पास गंगा से मिल जाती है। अपने ऊपरी प्रवाह मार्ग में सोन गोण्डवाना क्रम की चट्टानों को काटकर प्रवाहित होती है किन्तु जहाँ से इसकी दिशा उ.-पू. हो जाती है, निचले विन्ध्यन क्रम की चट्टानें आ जाती हैं तथा निचले भाग में नूतन जलोढ़ जमाव का आधिक्य हो जाता है। सम्पूर्ण घाटी में संरचनात्मक जटिलता के कारण विभिन्न प्रकार के स्थलरूपों का निर्माण हुआ है। निचली सोन घाटी सोन नदी के सुदूर पूर्वी भाग को प्रदर्शित करती है जिसके अन्तर्गत रोहतास पठार जो कि विन्ध्यन पठार का पूर्वी छोर है, को सम्मिलित किया जाता है।
भूरचना :- निचली सोन घाटी में आधारभूत चट्टानें आर्कियन ग्रेनाइट तथा नीस हैं जिनके ऊपर असम विन्यास के बाद बिजावर क्रम की ग्रेनाइट तथा नीस चट्टानों का समावेश है। जिनके ऊपर पुनः असम विन्यास पाया जाता है। इस असम विन्यास के ऊपर निचले विन्ध्यन क्रम की सेमरी श्रेणी की चट्टानें पायी जाती हैं। सेमरी श्रेणी की चट्टानों की बनावट तथा उत्पत्ति के विषय में पर्याप्त मतभेद पाया जाता है। सेमरी श्रेणी में विशेष रूप से चूने के पत्थर तथा बालुका पत्थर पाये जाते हैं। इस श्रेणी के सबसे नीचे कांग्लोमरेट तथा बालुका प्रस्तर मिलते हैं जिनके ऊपर शेल तथा मोटी परत वाला चूने का पत्थर पाया जाता है। इनके बाद पुनः शैल, बालुका प्रस्तर, बजरी, शेल आदि संस्तर मिलते हैं जिनमें आतपफटन तथा तरंग चिन्ह इत्यादि पाय जाते है, जो कि उत्थान को इंगित करते हैं। निचले विन्ध्यन क्रम के ऊपर पुनः असम विन्यास के पाद ऊपरी विन्ध्यन क्रम की चट्टानें मिलती हैं जिनमें नीचे से ऊपर कैमर, रीवा तथा भाण्डेर श्रेणी की शैलें पृष्टगत होती हैं, जिनमें बालुकाप्रस्तर, चनाप्रस्तर. शेल आदि प्रमुख चट्टानें पायी जाती हैं। सबसे ऊपर क्वाटरनरी युग के जलोढ़ जमाव मिलते हैं।
विवर्तनिक इतिहास
(Tectonic History)
इन चट्टानों के संस्तर जल, नति कोण (dip angles) आदि से पता चलता है टर्शियरी काल में विभिन्न उत्थानों का प्रभाव इस क्षेत्र में प्रादेशिक तथा स्थानीय दोनों रूपों में अवश्य पड़ा है, यदि उत्तर से दक्षिण अवलोकन किया जाये तो इस क्षेत्र में कम से कम दो भ्रंशन के प्रमाण अवश्य मिलते हैं इनमें एक भ्रंशन विली, कजरहट, हल्दी, हर्रा आदि वस्तियों के दक्षिण से होकर गुजरती है, जबकि दूसरी जमील, बड़ा गांव, गरदा के दक्षिण तथा मरकुण्डी गाँव के उत्तर से गुजरती है। दोनों अंशन व्युत्क्रम प्रकार की हैं। इस भ्रंशन के कारण सोन उत्तर स्थित भाग का उत्तर की ओर झुकाव हो गया। भ्रंशन के कारण सोन का उत्तर की ओर खिसकाव हो गया। जबकि उत्तरी तट कगार युक्त है तथा तीव्र ढाल वाला है। सोन के उत्तरी कगार से घघर के अलावा कोई भी मुख्य नदी सोन में नहीं मिलती है परन्तु इसके उत्तरी ढाल से नकलकर बेलन तथा कर्मनाशा नदियों से मिलती हैं।
अपवाह तंत्रः- सोन नदी के दोनों ओर अपवाह प्रतिरूप में पर्याप्त परिवर्तन है। सोन के उत्तर में कगार इतना तीव्र ढाल वाला है कि कोई पसनदी मोन से नहीं मिल पाती है। कगार के उत्तर से कई नदियाँ निकलकर गंगा क्रम में मिल जाती हैं। सोन के दक्षिण में कई नदियाँ आकर सोन में मिलती हैं, जिनमें प्रमुख है रिहन्द, कन्हर तथा उत्तरी कोयल। मध्यप्रदेश वाले भाग में गोपद तथा बनास नदियाँ सोन से मिलती है। सोन के दक्षिणी भाग में आयताकार प्रकार का अपवाह प्रतिरूप देखने को मिलता है। नदियों की तरुणावस्था को देखने से अभास होता है कि इनका अध्यारोपण प्राचीन संरचना पर वर्तमान ही में हुआ है। नदियों की अनुदैध्र्य परिच्छेदिकाओं को देखने से इस क्षेत्र में क्रीटैसियस यग से क्वाटरनरी युगों तक हुए महादेशजनक संचलनों के स्पष्ट प्रमाण मिलते है।
अपरदन सतह
(Erosion Surfaces)
सोन के उत्तरी भाग में, उत्तर से दक्षिण की ओर अर्थात् रोहतास जिले की भभुआ तहसील से सोन घाटी तक निम्न अपरदन सतह क्रम से मिलती हैं।
1. 200 मीटर सतह- यह मैदानी भाग है, जो कि रोहतास पठार के उत्तरी कगार के उत्तर में विस्तृत है।
2. 250 मोटर सतह-यह उच्चभाग है जो कि छोटे-छोटे टीले जैसा दृष्टिगत होता है ये टीले सपाट सतह वाले होते हैं जो कि मन्द ढाल वाले कगारों से घिरे हैं। कैमूर पठार से आने वाली नदियों ने अपने साथ लाये मलबा के जमाव से इनका निर्माण (सम्भवतः) किया होगा।
3. 300-350 मीटर सतह- यह पठार का बाह्य भाग है, जिसे बाह्य पठार कहा जा सकता है। उत्तरी कगार के उत्तर में मैदानों के बीच में चैड़े शिखर वाली ये पहाड़ियाँ ये सतह से 250 मीटर ऊँची हैं।
4. 400 मीटर सतह- यह सतह मुख्य पठार पर मिलती है तथा सबसे अधिक विस्तृत है। यह चारों ओर से तीव्र कगार से घिरी है, जिस कारण पठार दुर्गम बन गया है। कैमूर श्रेणी की चट्टनों से निर्मित होने के कारण यह भाग कैमूर पठार के नाम से जाना जाता है।
5. 450 मीटर सतह-मुख्य पठार की ऊपरी सपाट सतह पर कुछ अधिक ऊँचाई वाले छोटे-छोटे बिखरे पठार मिलते हैं, जिकी सामान्य ऊँचाई 500 मीटर है।
(स) चम्बल घाटी- यमुना की प्रमुख सहायक नदी के रूप में चम्बल घाटी का महत्व पाया जाता है। जो विन्ध्य पठार के उ.-प. लोब तथा अरावली पर्वत के मध्य जलोढ़ संरचना से होकर प्रवाहित होती है। कोटा के पास सामान्य ऊँचाई 200 से 250 मीटर है तथा संगम की ओर यह ऊँचाई शनैः-शनैः घटती जाती है। यमुना के साथ संगम के पास यह ऊँचाई घटकर 125 मीटर ही रह जाती है। चम्बल द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों में बीहड़ सर्वप्रमुख स्थान रखते हैं। लगभग 50,000 हैक्टेयर भूमि में बिहड़ का निर्माण हुआ बाहर है जो कि कृषि की दृष्टि से हानिप्रद तो हैं ही, साथ ही सुरक्षा के लिए सिर दर्द बने हुए है। बीहड़ों का विस्तार कोटा से प्रारम्भ होकर यमुना के संगम तक 480 किमी. की लम्बाई में पाया जाता है। कोटा से धौलपुर तक बून्की-करौली पहाड़ी श्रेणी तथा धौलपुर के आगे छोटी परबती तक उत्तरी सीमा फैली है। दक्षिण में इनकी सीमा काली सिन्ध परबती तथा कवारी नटियों द्वारा निश्चित होती है। चम्बल के दोनों किनारों पर बीहड़ों का विकास 10 किमी. की चैड़ाई में हुआ है।
जलवायु :- यहाँ की जलवायु अर्द्धशुष्क है। वार्षिक वर्षा 750 मिमी से कम होती है परन्तु वहाँ वर्षा इतना अधिक होती है कि प्रारम्भ के मानसन में ही वर्षा का अधिकांश भाग प्राप्त हो जाता है। कोटा तथा धौलपुर में वर्षा की दैनिक गहनता क्रमशः 21 तथा 19 मिमी. तक हो जाती है, परिणामस्वरूप मूसलाधार दृष्टि के कारण वर्षाकाल में अत्यधिक जल की प्राप्ति के कारण नदियों के जल का आअयतन अधिकतम हो जाता है। नदियों का वेग बढ़ जाता है, जिस कारण अपाटन अत्यधिक सक्रिय हो जाता है। ग्रीष्मकाल में औसत तापमान 32° ऊपर उठ जाता है परन्त शरटकाल में यह 10° से. तक पहुंच जाता है। आकार तथा गहराई में बीहड़ों में पर्याप्त अंतर पाया जाता है। गहराई, चैड़ाई तथा ढाल के आधार पर एच.एस. शर्मा (1968) ने चम्बल के बीहड़ों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है।
बीहडों की गहराई, चैड़ाई तथा आकार विशेष रूप से मिट्टी के प्रकार तथा उसकी गहराई पर निर्भर जाता है। इन बीहड़ों की उत्पत्ति के विषय में दो सुझाव (शर्मा, 1968) दिए जा सकते हैं- (i) आधार तल में उत्थान के कारण अवनयन तथा (ii) अपरदन में नवोन्मेष। चम्बल तथा उसकी सहायक नदियों में इस गाय नवोन्मेष देखने को मिलता है। हिमालय प्रदेश में टर्शियरी हलचल के कारण मध्य प्लीस्टोसीन युग में चम्बल घाटी में उत्थान हो गया जिस कारण टर्शियरी अपरदन चक्र विघ्नित हो गया एवं नदियों में नवोन्मेष आ गया जिस कारण निम्नवर्ती अपरदन के तीव्र हो जाने से गहरे बीहड़ों का निर्माण सम्भव हो पाया।
बीहड़ों के विकास में चार क्रमिक अवस्थायें बतायी जा सकती हैं :
(1) जलगर्तिका अवस्था- प्रारम्भिक अवस्था में नदी के दोनों किनारों पर सपाट धरातल पर जल तथा मिट्टी के कणों के सम्मिलित कार्य द्वारा छोटे-छोटे छिद्र बन जाते हैं।
(2) सुरंगीकरण अवस्था- धीरे-धीरे छिद्र बढ़ते जाते हैं तथा जल अन्दर-अन्दर या तो दूसरे छिद्र के नीचे तक पहुँच कर सुरंग का निर्माण करता है या अन्दर की अन्दर निकटवर्ती बीहड़ के नीचे चला जाता
(3) अवपतन अवस्था- जब सुरंग अधिक विस्तृत हो जाती है तथा ऊपरी छत अधिक पतली रह जाती है तो वह नीचे ध्वस्त हो जाती है तथा बीहड़ ऊपर दृष्टिगत होने लगता है।
(4) निवर्तन अवस्था- बीहड़ का शीर्ष तथा पार्श्व भाग धीरे-धीरे विस्तृत होने लगता है तथा शुष्क समय में मलबा बीहड़ की तली में बैठ जाता है। उसकी गहराई कम हो जाती है। वर्षा काल में ये बहा लिये जाते हैं। इस तरह बीहड़ों के शीर्ष तथा किनारों के पीछे हटते जाने से समस्त भाग शंक्वाकार भाग में बदल जाता है।
(द) थार मरुस्थलः- थार मरुस्थल का विस्तार भारत एवं पाकिस्तान दोनों देशों में है। थार मरुस्थल का नामकरण पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में स्थित थारपरकार जलनद के आधार पर किया गया है। थार मरुस्थल की पश्चिमी सीमा सिन्धु घाटी तथा पूर्वी सीमा अरावली पहाड़ियों द्वारा निर्धारित होती है। भारत में स्थित थार मरुस्थल को विशाल भारतीय मरुस्थल कहा जाता है जिसका विस्तार 22°-30‘-32°05‘ उ. अक्षांश एवं 68°05‘-75°45‘ पूर्वी देशान्तर के मध्य राजस्थान गुजरात एवं पंजाब तथा हरियाणा प्रान्तों के 2,85,680 वर्ग किमी. क्षेत्र पर पाया जाता है राजस्थान में थार का सर्वाधिक विस्तार पाया जाता है।
भूआकृतिः- थार मरुस्थल का ऊपरी आवरण यद्यपि रेत एवं जलोढ़ का बना है परन्तु उसके नीचे पैल्योजोइक एवं मेसोजोइक युगों की विभिन्न शैलें पायी जाती है जिनके दश्यांश विभिन्न स्थानों में दृष्टिगत होते है। इन आधारीय शैलों पर रेत का विस्तार हआ है जिसका अधिकांश भाग आयातित है। थार मरुस्थल का लगभग दो तिहाई क्षेत्र रेत से निर्मित है। वाय निक्षेपित अवसादों की गहराई 20 से 60 मीटर तक है। रेत विशेष रूप से बड़े-बड़े रेत के ढेरों के रूप में पायी जाती है। पर्व में जाने पर रेत जमाव की गहराई कम होती जाती है। यहाँ पर वाय निर्मित स्थलरूप अन्तिम प्लीस्टोसीन काल के हैं। थार मरुस्थल का द. पू. भाग प्राचीन जलोढ़ मैदान का बना है जिसका निर्माण अरावली से निकलने वाली नदियों ने किया है।
जलवायुः- थार मरुस्थल में अति विषम एवं कठोर मानसनी जलवाय है जिसमें तापमान एवं वर्षा की अतिदशाये (extreme conditions) पायी जाती हैं। ग्रीष्मकालीन उच्च तापमान, आत न्यून वार्षिक, शुकता की दीर्घ अवधि, अति सर्द शीतकाल. मई-जन में अति उच्च तापमान तथा रेत भरी तीव्र वेग वाली आंधियाँ आदि इस मरुस्थली प्रदेश की जलवायु सम्बन्धी चरम दशायें है।
भूआकृति प्रक्रम सर्वाधिक सक्रिय होते हैं ये प्रक्रम दो प्रकार के होते हैं।
(1) वायुढ़ प्रक्रम: यह सर्वाधिक सक्रिय होता है।
(2) जलीय प्रक्रम: यह प्रक्रम खण्डकालिक होता है।
Recent Posts
सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है
सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…
मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the
marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…
राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi
sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…
गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi
gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…
Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन
वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…
polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten
get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…