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भारतीय सेवक समाज की स्थापना किसने की , वर्ष 1950 में मुंबई में भारत सेवक समाज की स्थापना किसने की

जानेंगे भारतीय सेवक समाज की स्थापना किसने की , वर्ष 1950 में मुंबई में भारत सेवक समाज की स्थापना किसने की ?

प्रश्न: भारतीय सेवक समाज
उत्तर: गोपाल कृष्ण गोखले ने बम्बई में 1905 में भारतीय सेवक समाज की स्थापना की जो एक समाज सुधारक संस्था थी। इसके अन्य सदस्य श्री निवास शास्त्री, हृद्यनाथ कुंजरू, एन.एम. जोशी थे।

भाषा एवं साहित्य
कन्नड़
450 ई. से कन्नड़ अभिलेख प्राप्त होते हैं। कन्नड़ की सर्वप्रथम साहित्यिक कृति नौवीं सदी की है, हालांकि इससे भी पुरानी कृतियों के संदर्भ उपलब्ध हैं। किसी जैन द्वारा लिखित वोद्दराधना इस भाषा की सबसे प्राचीन कृति मानी जाती है। तथापि, कन्नड़ की उपलब्ध प्राचीनतम कृति है कविराजमाग्र। इसे राष्ट्रकूट राजा नृपतुंग अमोधवर्श द्वारा लिखित मानते हैं। दसवीं शताब्दी में लेखन की ‘कम्पू’ शैली को और अधिक निखारा गया। पम्पा इस कला का अग्रदूत था और उसे कन्नड़ कविता का जनक माना जाता है। महाकाव्य की परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में पोन्ना और रन्ना थे। पम्पा, पोन्ना और रन्ना को त्रिरत्न माना जाता है और ‘स्वर्ण युग’ का प्रयोग भी इन्हीं के काल के लिए किया जाता है।
लेखन में वाचन शैली की शुरूआत करने वाले वसवेश्वर के साथ 12वीं शताब्दी में इस शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन आए। आम जिन्दगी से उठाए गए ये ‘कथन’ मानव की समानता और श्रम की प्रतिष्ठा के पोषक थे। 1260 ई में कन्नड़ का पहला मानक व्याकरण शब्दमणि दर्पण केसिराज के लिखा। होयसल राजाओं ने संरक्षण में कई उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियां लिखी गईं।
14वीं-16वीं शताब्दी के दौरान विजयनगर के राजाओं और उनके सामंतों के अधीन कन्नड़ साहित्य का खूब संवर्धन हुआ। कुमार व्यास का लिखा कन्नड़ भारत विशिष्ट रचना है। जैन, वीरसैव और ब्राह्मणों ने कविताएं और संतों के जीवन-चरित लिखे। कुछ प्रमुख नाम हैं रत्नाकर वरनी (भारतेश्वर चरित), अभिनववादी विद्यानंद (काव्यसार), साल्व (रस रत्नाकर), नागजुंदा कवि (कुमार रामणे काथे), भीम कवि (बासव पुराण), चामरस (प्रभुलिंग-लिलाई), नरहरि (तोरवे रामायण)। वैष्णव आंदोलन के दौरान पुरंदरदास और कनकदास के शाश्वत् गीत सामने आए। सत्रहवीं शताब्दी के एक महान कवि लक्समीसा थे, जिन्होंने जैमिनी भारत लिखा। सर्वजना आम आदमी के कवि थे।
विजयनगर साम्राज्य के पतन के साथ, मैसूर रियासत (1565-1947) और केलाड़ी नायको के साम्राज्य (1565-1763) ने विभिन्न विषयों पर साहित्यिक पाठ्य सामग्री के सृजन को प्रोत्साहन दिया। नाटकीय प्रस्तुति के साथ कवित्त साहित्य के अद्वितीय एवं स्थानीय रूप को यक्षगान कहा गया जिसने 18वीं शताब्दी में लोकप्रियता हासिल की। 16वीं शताब्दी में यक्षगान के उदय के साथ आधुनिक कन्नड़ थिएटर का प्रवेश हुआ। यक्षगान का संघटन राजा कांतिवीर नरसराजा वोदियार-प्प् (1704-1714) और मुमादी कृष्णराजा वोदियार (1794-1868) के शासन से सम्बद्ध है, जो इस समय के बेहतरीन लेखक थे जिन्होंने 40 से अधिक कृतियों का सृजन किया जिसमें एक कवित्त रोमांस भी शामिल है जिसे सौगंधिका परिणय कहा गया। राजा चिक्का देवराज वोदियार (1673-1704) ने गीथा-गोपाला लिखा, जो संगीत पर लिखा गया प्रसिद्ध लेख था।
यह प्रथम लेखन था जिसने कन्नड़ भाषा में वैष्णव मत का प्रचार किया। जैमिनी भारत,शप्तपदी में लिखा गया उसका महाभारत संस्करण, एक लोकप्रिय कविता है। वैष्णव आंदोलन ने पुरंदरदशा एवं कनक-दशा के अमर गीतों को प्रस्तुत किया।
आधुनिक कन्नड़ साहित्य उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में प्रारंभ हुआ और इसने दो पहलुओं को अपने में समेटा पश्चिमी विचारों का समावेश और प्राचीन युग की पुनर्खोज। लक्ष्मीनरनप्पा (मुड्डना) ने कुछ अच्छे गद्य लिखे। बी.एमण् श्रीकांथैय्या (इंगलिश गीतगलू) ने कन्नड़ कविता को आधुनिक दिशा दी। डीवी.गुंडप्पा और के.वी. पुट्टप्पा भी उच्च कोटि के कवि थे। सबसे अधिक प्रसिद्धि डी.आर. बेंद्रे को मिली। पुट्टप्पा (रामायण दर्शनम) और बेन्द्रे (नकुथांथी) को ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला है। कन्नड़ में लिखे गए उपन्यासों ने भी अपनी छाप छोड़ी। एमण्एस. पुट्टन्ना ने कन्नड़ भूमि की महक अपने उपन्यासों में समाहित की। के. शिवराम कारंत भी श्रेष्ठ उपन्यासकारों में आते हैं। इन्होंने चोमना डुडी और मराली मन्निगे और अन्य कई उपन्यास लिखे। इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल चुका है। मस्ती वेंकटेश अय्यंगर, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता, को कन्नड़ लघु कथा का जनक माना जाता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त एक अन्य लेखक हैं प्रोवी. के. गोकक, जो कवि और उपन्यासकार हैं। बासवप्पा शास्त्री, टी.पी. कैलाशम और संसा अच्छे नाटककारों में गिने जाते हैं। आज कन्नड़ साहित्य पी. लंकेश, निसार अहमद, गिरीश कर्नाड, यू.आर. अनंतमूर्ति के हाथों फल-फूल रहा है।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, महाराजा कृष्णराजा वोदियार-प्प्प् और उनके दरबारी कवियों ने कवित्त के पुराने रूप चम्पू को छोड़कर संस्कृत काव्यों एवं नाटकों की तरफ रुख किया। केम्पू नारायण द्वारा रचित मुद्रामंजूषा (1823) कन्नड़ का प्रथम आधुनिक उपन्यास है। आधुनिक कन्नड़ साहित्य का विकास भारत में औपनिवेशिक काल और कन्नड़ कार्यों एवं शब्दकोशों का यूरोपीय भाषाओं एवं अन्य भारतीय भाषाओं में उनका अनुवाद और यूरोपीय शैली के समाचार-पत्रों एवं पीरियोडीकल्स का कन्नड़ में पदार्पण द्वारा हुआ। 19वीं शताब्दी में, यूरोपीय प्रौद्योगिकी के साथ अंतक्र्रिया, नवीन छपाई तकनीकियों ने आधुनिक कन्नड़ साहित्य को जबरदस्त बढ़ावा दिया।
प्रथम कन्नड़ समाचार-पत्र मैंगलौर समाचार था जिसका प्रकाशन 1843 में हरमन मोगलिंग द्वारा किया गया( और इसी समय भाष्यम भाष्याचार्य ने मैसूर में मैसूरू रितंता बोधिमी नामक प्रथम पीरियोडीकल्स का प्रकाशन किया।
1970 के दशक के पूर्वार्द्ध से, लेखकों के एक नवीन समूह ने ऐसे उपन्यासों एवं कहानियों का लेखन प्रारंभ किया जिन्हें एंटी-‘नव्य’ कहा गया। इस शैली को नवयोत्तरा कहा गया और इसने अधिक सामाजिक उत्तरदायित्व की भूमिका अदा की। इस शैली के प्रसिद्ध लेखक पूरणचंद्र तेजस्वी और देवनूर महादेव थे।
हाल ही में नाटकीय साहित्य के विकास एवं प्रभुत्व में आशातीत वृद्धि हुई। बंध्या (विद्रोही) और महादेव के मरीकोंडाबरू और मुदाला सीमेलि कोल गीले इत्येदि जैसे दलित साहित्य इस शैली के उदाहरण हैं।

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