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भारतीय फेबियन : किस प्रधानमंत्री ने समाजवाद की विचारधारा को प्रारंभ किया , क्यों कहा जाता है , कारण

जाने भारतीय फेबियन : किस प्रधानमंत्री ने समाजवाद की विचारधारा को प्रारंभ किया , क्यों कहा जाता है , कारण ?

उत्तर : जवाहरलाल नेहरू जी को भारतीय फेबियन कहते है और इसलिए कह सकते है जवाहरलाल नेहरू जी प्रधानमंत्री ने समाजवाद की विचारधारा को प्रारंभ किया था |

प्रश्न: जवाहरलाल नेहरू के विभिन्न पक्षों पर विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: नेहरू को भारतीय फेबियन कहते हैं। नेहरू महान समाजवादी नेता माने जाते हैं परन्तु उनके चिंतन पर इंग्लैण्ड के समाजवाद की स्पष्ट छाप थी। इंग्लैण्ड में 1884 में फेबियन समाज बना जिसने 1920 में लेबर पार्टी को जन्म दिया व लास्की इस समाजवाद के सबसे बड़े विचारक मान जाते है। चूकि नेहरू का चिंतन अंग्रेजी समाजवाद पर टिका है इसलिए नहरू को भारतीय फेबियन कहते है। नेहरू ये चाहते थे कि देश में बहुदलीय व्यवस्था हो, खुले व निष्पक्ष चुनाव हो और काग्रेस पार्टी समाजवादी कार्यक्रम को लेकर इन चुनावों में लागू करे। इसलिए जब 1955 में आवडी (मद्रास) में कांग्रेस का आधवेशन हुआ तो उसमें कांग्रेस ने समाज का समाजवादी रूप प्रस्तुत किया व दूसरी पंचवर्षीय योजना इसी पर आधारित था। नेहरू कहते थे कि निजी संपत्ति पर राज्य का कठोर नियंत्रण होना चाहिए तथा जनहित में निजी संपत्ति का राष्ट्रायकरण हो। इसलिए बिहार में जमींदारी प्रथा समाप्त की व नेहरू की सरकार ने 1955 में निजी बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण कर लिया।
संसदीय लोकतंत्र : नेहरू ब्रिटिश लोकतंत्र के पक्के समर्थक थे अतः वे चाहते थे कि हर वयस्क नागरिक को वोट का अधिकार मिले। देश में बहुदल हो, चुनाव खुले व स्पष्ट हो, जो पार्टी जीते वह सरकार बनाये परन्तु सरकार उत्तरदायी हो इसलिए नेहरू ने विपक्ष का सदैव आदर किया। संसदीय लोकतंत्र में सदैव प्रेस व न्यायपालिका स्वतंत्रत होती है इसलिए नेहरू ने उनकी स्वतंत्रता को बनाये रखा।
धर्मनिरपेक्षवाद : नेहरू धर्म निरपेक्षवाद के समर्थक थे। अतः उन्होंने धर्म व राजनीति को पृथक कर भारतीय संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसलिए हमारे संविधान में सभी को कानून के समक्ष समानता प्राप्त है व धर्म, नस्ल या जाति के आधार पर भेदभाव वर्जित है। वे सम्प्रदायवाद के आलोचक थे चाहे वह हिन्दू या मुसलमानों का हो। इसलिए उन्होंने भारतीय सम्प्रदायवाद को यूरोप के सम्प्रदायवाद का नमूना कहा। पाश्चात्य देशों में जो फासीवाद है वहीं भारत में सम्प्रदायवाद है। लेकिन नेहरू का दृष्टिकोण वैज्ञानिक था उन्होंने कहा कि यदि समाज सुधार के लिए आवश्यक हो तो राज्य धर्म में हस्तक्षेप कर सकता है इसलिए नेहरू ने हिन्दू धर्म का संहिताबद्धीकरण कर दिया।
अन्तर्राष्ट्रवाद : नेहरू अन्तर्राष्ट्रवादी थे वे गाँधीजी, टैगोर व रॉय की तरह विश्व बधुत्ववादी नहीं थे। वे चाहते थे कि दुनिया में राष्ट्र हो व उनके बीच मधुर संबंध हो। यदि राष्ट्रों के बीच विवाद हो तो उन्हें शांति पूर्ण तरीके से निपटा लिया जाये। इसलिए नेहरू ने उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद व दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद का कड़ा विरोध किया, परमाणु यंत्रों की निंदा की, निशस्त्रीकरण पर बल दिया। जब अमेरिका व सोवियत संघ अपने सैनिक गुट बना रहे थे तो नेहरू ने इसका विरोध करते हुए गुट निरपेक्ष आंदोलन चलाया। उन्होंने हमेशा न्छव् को समर्थन दिया।

मुगल काल की कुछ महत्वपूर्ण जानकारी

मुगलों ने सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में बाबर के रूप में भारत में प्रवेश किया था। फरगना और काबुल के इस तैमूरी शासक ने दिल्ली के लोदी सुल्तान को तथा मेवाड़ के राजपूत राजाओं को 1526-27 में परास्त किया। उसके बेटे हुमायूं ने बंगाल, मालवा और गुजरात पर अधिकार करने के असफल प्रयास किए। अस्थिरता के अस्थायी दौर के बाद वह अंततः देश में अपने पैर जमाने में सफल हो ही गये। इस घटना के साथ ही भारत में भारतीय-इस्लामिक कला और वास्तु शिल्प का महत्वपूर्ण दौर शुरू हुआ।
बाबर और हुमायूं दोनों में से कोई भी अपने नए साम्राज्य का सुख भोगने के लिए बहुत दिन जीवित नहीं रहे। यह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1556-1605) का शासन काल था, जिसमें देश की कलाओं में असाधारण परिवर्तन देखने में आए। उसी के शासन काल में विशिष्ट मुगल वास्तुकला ने साकार रूप ग्रहण किया।
भारत में हर कहीं मुगल भवनों में एक विशिष्ट रूप से समान निर्माण शैली देखने में आई जिसकी विशेषताएं थीं चार केंद्रों वाले मेहराब सहित भव्य अग्रभाग, अर्ध गुम्बदीय छतें, आपस में एक-दूसरे को विभाजित करते मेहराब वाले प्रकोष्ठ, उभरे हुए लघु ग्रीवा वाले गुम्बद, उलटे कमल के आकार के शिखर और कलश, पत्थर और संगमरमर में नक्काशी, पच्चीकारी,गोमेद और सूर्यकांत जैसे कठोर उपरत्नों का जड़ाऊकाम, मुलम्माकारी आदि। भारतीय-इस्लामिक वास्तुकला को इस शैली का संरचनात्मक योगदान दोहरे गुम्बद के रूप में है। लाल बलुआ पत्थर और सफेद मार्बल के मिश्रण से मुगलकालीन भवन शैली, फारसी स्थापत्य और भारतीय शैली का आकर्षक संगम है जो सन् 14वीं शताब्दी के दिल्ली के सुल्तानों के स्थापत्य कला के अलाई दरवाजे के रूप में झलकता है। लाल बलुआ पत्थर पर सफेद संगमरमर की खूबसूरत सजावट के अन्य उदाहरण जमाली-कमाली (सन् 1528-29) किला-ए-कुहना मस्जिद (सन् 1534 ई.) तथा अत्गा खां का मकबरा (1556-67) हैं।
वास्तविक मुगल शैली में प्रथम स्मारक हुमायूं का मकबरा है जिसका निर्माण उसकी विधवा ने 1569 ई. में करवाया था। यह भारत भूमि पर विशिष्ट तैमूर रूप की पहली इमारत और मुगलों द्वारा विकसित मकबरा उद्यानों की शृंखला की पहली कड़ी है। ऊंचे और चैड़े वग्रकार मंच पर खड़ी इस इमारत के पाश्र्व में छोटे मेहराबदार मुख वाले कक्ष हैं। इस मकबरे की योजना और रूप में गहरा विदेशी, मुख्यतः मध्य एशियाई, फारसी प्रभाव गजर आता है। अपने नियोजन में यह मकबरा वग्रकार है लेकिन, इसके कोण समतलित हैं। अपने विभिन्न भागों के सर्वांग संपूर्ण समानुपात, बलुआ पत्थर तथा सफेद संगमरमर का खूबसूरत विरोधाभास और मुखर मेहराबों के बड़े वक्रो और गुम्बद के बड़े आयतन के कारण यह मकबरा वास्तुकला की एक महान उपलब्धि है। हुमायूं के मकबरे के निर्माण में तीन तरह के पत्थर नामतः लाल बलुआ पत्थर, सफेद पत्थर तथा स्फटिक का इस्तेमाल किया गया है। अहाते की दीवारें तथा दो द्वार स्थानीय स्फटिक से बने हैं और उनके ऊपर लाल बलुआ पत्थर संगमरमर लगाया गया है। मुख्य मकबरे के चबूतरे की सीढ़ियों को भी स्फटिक से सज्जित किया गया है। स्फटिक, दिल्ली के पथरीले क्षेत्र में ही मिल जाता है जबकि लाल बलुआ पत्थर, आगरा के निकट तातपुर की खदानों से लाया गया और सफेद संगमरमर, राजस्थान की प्रसिद्ध मकराना खदानों से आया।
विशाल बगीचे में निर्मित चार कक्षों और अनेक छोटे वग्रकार ढांचों से घिरा यह मकबरा मुगलकालीन चार बाग का नमूना है जिसमें छोटे-छोटे अंतराल पर जलमाग्र और जलकुण्ड और उन पर सेतु बना, गए हैं। मकबरे के चारों ओर अनगढ़े पत्थरों की दीवार है और इसके पश्चिम एवं दक्षिण में प्रवेश द्वार बना, गए हैं।
अकबर वास्तुकला का गुणी संरक्षक था। उसकी भवन निर्माण योजनाएं अनेक और विविध थीं, जो अधिकांशतः लाल बलु, पत्थर की बनी हैं और उनमें संगमरमर का सीमित उपयोग हुआ है। उदार दृष्टिकोण वाले और सुरुचि सम्पन्न अकबर ने स्वदेशी भवन निर्माण परम्पराओं को संरक्षण दिया। इसके फलस्वरूप उसके काल की इमारतों का सशक्त वास्तुशिल्प पूर्णतः स्वदेशी तथा विदेशी निर्माण शैलियों का विवेकपूर्ण समन्वयन है। अकबर के भवनों का केंद्रीय भाव बीम पर आधारित निर्माण हैं। चापाकार प्रणाली का उपयोग मुख्यतः सजावट के उद्देश्यों से किया गया है। अलंकरण मुख्यतः नक्काशी और मुखर जड़ाऊकाम का है।
छेददार जालियां, दीवारों तथा कलापूर्ण अंदरूनी छतों पर सोने से या रंगों से चित्रण किया गया है। अकबर का प्रथम विशिष्ट निर्माण यमुना के किनारे आगरा का लाल किला था। योजना में अनियमित अर्धवृत्ताकार, इसकी बड़ी मोटी दीवारें कंक्रीट और भराव की थीं, जिसके ऊपर बारीकी से तराशे गए लाल बलुआ पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े लगाए गए हैं। किले के अंदर उपस्थित वर्तमान भवन वे हैं जिनका निर्माण शाहजहां के शासन काल में किया गया था। किले की अकबरकालीन इमारतों में केवल जहांगीरी महल बचा हुआ है लाल बलुआ पत्थर का बना विशाल वग्रकार महल, जिस पर की गई नक्काशी और निर्माण शैली पर हिंदू प्रभाव स्पष्ट है।
अकबर की असाधारण वास्तुकला परियोजना फतेहपुर सीकरी नगर का निर्माण था। यह आगरा से 36 किलोमीटर पश्चिम में है। इसका निर्माण उसने अपने पहले बेटे जहांगीर के जन्म के उपलक्ष्य में करवाया था। यहां के सारे भवन पूरी तरह लाल बलुआ पत्थर से बने हैं। रिहायशी भवनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं पंचमहल, खुली छतरियों वाला पंचमंजिला भवन, इसकी अभिकल्पना पारस्परिक हैः जोधाबाई का महल बाहर से एकदम सादा है पर अंदर कलापूर्ण पच्चीकारी वाली छजलियां और पत्थर की छेददार खिड़कियां तथा अलंकृत आले हैं। स्वदेशी वास्तुशिल्प की छाप वाला एक मंजिला भवन है तुर्की की सुल्ताना का महल। सुंदर पत्थर मढ़े प्रांगण और जल प्रवाहिकाएं तथा भवन के अंदर और बाहर की सतहों पर सुंदर पच्चीकारी की गई है। सरकारी भवनों में दीवान-ए-खास असाधारण है। यह अपनी आंतरिक सज्जा तथा ऊपर की ओर बनी गैलरियों के लिए असाधारण है जोकि कोनों से बाहर निकलती हैं।
इसमें एक केंद्रीय स्तंभ है जिस पर लगे सुंदर कोष्ठकों पर गोलाकार सिंहासन आधारित है जो उससे निकलते पुलों के माध्यम से गैलरियों से जुड़ा हुआ है। जामा मस्जिद एक शानदार इमारत है। यह अपने सामान्य स्वरूप मंे तो इस्लामिक है लेकिन इसके निर्माण में विशेषकर इबादत के पाश्र्वीय हिस्से और आच्छादित माग्र को बनाने में हिंदू शैली का उपयोग भी किया गया है। उत्कीर्णन, चित्रकारी तथा पच्चीकारी के काम में अद्भुत सजावट है। बुलंद दरवाजा एक अन्य प्रभावशाली स्मारक है। इसका निर्माण अकबर द्वारा दक्कन के विजय अभियान से लौटने के उपलक्ष्य में किया गया था और यह मस्जिद का दक्षिणी द्वार है। रूपाकार में यह मुख्य रूप से फारसी है और इसका अर्धगेलाकार गुम्बद, जिसमें इसका वास्तविक दरवाजा लगा हुआ है इस युग की वास्तुकला की परिपाटी को अभिव्यक्त करता है। शेख सलीम चिश्ती का मकबरा सफेद संगमरमर का बना हुआ है। उस पर किया गया जाली का काम बहुत सुंदर है। नाजुक ज्यामितीय आकार गुजरात शैली की याद दिलाते हैं। इसकी गहरी कार्निस दुर्लभ स्वरूप वाली कोष्ठकों पर टिकी है और शानदार पच्चीकारी चंदेरी में बने शहजादी के मकबरे की याद दिलाती है।
जहांगीर काल की वास्तुकला कमोबेश अकबर युगीन वास्तुशिल्प को ही आगे बढ़ाती है। इस युग का सबसे महत्वपूर्ण स्मारक अकबर का मकबरा (1612-13) है जो आगरा के निकट सिकंदरा में है और जिसकी अभिकल्पना अकबर ने अपने जीवनकाल में ही की थी। संगमरमर की जालियों का काम और उपासना कक्ष जो चारों ओर से पीठिकाओं पर बने स्तंभों और रमणीय बेलबूटों से सजी दीवारों, टाइल सज्जा तथा स्वर्ण व अन्य रंगों में रेखांकन से अद्भुत प्रभाव उत्पन्न करता है। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि इसकी वास्तु कल्पना बौद्ध विहारों के सिद्धांतों पर की गई है। यह मकबरा चारबाग और सुंदर बाग के मध्य में बना हुआ है, इसकी दक्षिण की ओर रमणीय आयतन प्रचुर पच्चीकारी सज्जा और चार सुंदर मीनारों से, (जो नई किंतु पूरी तरह विकसित शैली की थीं और जिन्हें उत्तर भारत में पहली बार लागू किया गया था) बहुत प्रभावशाली गजर आता है।

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