भरतनाट्यम कहां का शास्त्रीय नृत्य है , भरतनाट्यम नृत्य कहाँ से पल्लवित हुआ है ? प्राचीन नाम क्या था ?

भरतनाट्यम नृत्य कहाँ से पल्लवित हुआ है ? प्राचीन नाम क्या था ? भरतनाट्यम कहां का शास्त्रीय नृत्य है ? bharatnatyam which state in hindi

भारतीय शास्त्रीय नृत्य
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में नत्य की विविध शैलियों का विकास हुआ है, जिनमें से प्रत्येक के अपने विशिष्ट सूक्ष्मांतर हैं। यद्यपि, नृत्य की इन सभी विधाओं को नाट्य शास्त्र में वर्णित आधारभूत नियमों तथा दिशा-निर्देशों के अनुसार संचालित किया जाता है, परन्तु फिर भी मुख्य नियम यही है कि ज्ञान का हस्तांतरण केवल गुरु के माध्यम से हो सकता है। गुरु विभिन्न परम्पराओं – सम्प्रदायों – का ज्ञान शिष्य को प्रदान करता है। यह ‘गुरु-शिष्य परम्परा‘ भारत की शास्त्रीय कला शैली का मुख्य तत्व है।

वर्तमान भारत में आठ शास्त्रीय नत्य विधाएं अस्तित्व में हैं, जिन्हें निम्नलिखित रूप से वर्णित किया गया हैः

भरतनाट्यम

नृत्य विधा का सर्वाधिक प्राचीन रूप, भरतनाट्यम का नाम भरत मुनि तथा ‘नाट्यम‘ शब्द से मिल कर बना है। तमिल में नाट्यम शब्द का अर्थ नृत्य होता है । यद्यपि, अन्य विद्वान ‘भरत‘ नाम का श्रेय ‘भाव‘, ‘राग‘ तथा ‘ताल‘ को देते हैं।
इस नृत्य विधा की उत्पत्ति का संबंध तमिलनाडु में मंदिर नर्तकों अथवा ‘देवदासियों‘ की एकल नृत्य प्रस्तुति – ‘सादिर‘ से है, इसलिए इसे ‘दाशीअट्टम‘ भी कहा जाता था।
देवदासी प्रथा के अवसान के पश्चात, यह कला भी लगभग लुप्तप्राय हो चली थी। तथापि, एक प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी. ई. कृष्ण अय्यर के प्रयासों ने इस नृत्य विधा को पुनर्जीवित कर दिया। पूर्व में, इस नृत्य विधा पर एकल महिला नर्तकों का एकाधिकार थाय पुनर्जीवित होने के बाद यह पुरुषों और कलाकार समूहों में भी यह विधा उत्तरोत्तर लोकप्रिय होती चली गयी। भरतनाट्यम की एक अन्य समर्थक, रुक्मिणी देवी अरुन्डेल, को इस नृत्य को वैश्विक पहचान दिलाने का श्रेय जाता है।

भरतनाट्यम की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं निम्नलिखित हैं : 
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व में, तंजावुर के चार नृत्य शिक्षकों ने भरतनाट्यम की प्रस्तति के अवयवों को परिभाषित कियाः
ऽ अलारिप्पूः यह प्रदर्शन का आह्वानकारी भाग है जिसमें आधारभूत नृत्य मुद्राएं सम्मिलित होती हैं तथा इस लयबद्ध शब्दांशों के साथ प्रस्तुत किया जाता है। इसका उद्देश्य ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करना है।
ऽ जातिस्वरम: यह विभिन्न मुद्राओं तथा चालों सहित नृत्य की शुद्ध विधा है।
ऽ शब्दम्: यह गीत में अभिनय को समाविष्ट करने वाला नाटकीय तत्व है। सामान्यतः इसे ईश्वर की प्रशता में प्रयुक्त किया जाता है।
ऽ वर्णम: यह ताल तथा राग के साथ समकालिक नृत्य तथा भावों का मेल है।
ऽ पदम्: यह अभिनय के ऊपर कलाकार की सिद्धहस्तता को प्रदर्शित करता है।
ऽ जवाली: यह अपेक्षाकृत तीव्र गति के साथ प्रस्तुत लघु प्रेमगीति काव्य होता है।
ऽ थिल्लन: यह प्रस्तुतिकरण की समापन अवस्था है तथा इसमें विशुद्ध नृत्य के साथ उल्लासपूर्ण गति तथा जटिल लयबद्ध स्पंदन को समाविष्ट किया जाता है।
‘तंजौर चतुष्क‘ के नाम से विख्यात, तंजावुर के ये चार शिक्षक चिनियाह, पोनियाह, वादिवेलू तथा शिवानंदम के नाम जाने जाते हैं। उनके संरक्षण में भरतनाट्यम को तंजौर नाट्यम के नाम से भी ख्याति मिली।
ऽ भरतनाट्यम को प्रायः ‘अग्नि नृत्य‘ के नाम से भी जाना जाता है, चूँकि यह मानव शरीर में अग्नि की अभिव्यक्ति करता है। भरतनाट्यम में अधिकाँश मुद्राएं लहराती हुई आग की लपटों से सादृश्य रखती हैं।
ऽ नृत्य की इस विधा में नृत्य के दोनों पक्षों – तांडव तथा लास्य – पर समान मात्रा में बल दिया जाता है, तथा मुख्य रूप से मुद्राओं को केंद्र में रखा जाता है।
ऽ मुख्य मुद्राओं में से एक है ‘कटक मुख हस्त‘, जिसमे तीन उंगलियों को जोड़ कर ऊँ का प्रतीक निर्मित किया जाता है।
ऽ भरतनाट्यम की प्रस्तुति में, घुटने अधिकांशतः मुड़े होते हैं तथा शरीर का भार दोनों पैरों पर समान रूप से वितरित किया जाता है।
ऽ इसे ‘एकचर्य लास्यम‘ शैली से भी पहचाना जाता है जिसमें एक ही नर्तक बहुत-सी अलग-अलग भूमिकाओं को निभाता है।
अन्य प्रसिद्ध समर्थकों में यामिनी कृष्णमूर्ति, पद्मा सुब्रह्मण्यम, मृणालिनी साराभाई, इत्यादि सम्मिलित हैं।

इतिहास :

भरत के नाट्यशास्त्र में वर्णित है कि जब सभी देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा से मनोविनोद के एक साधन की रचना करने की प्रार्थना की, तो उन्होंने चारों वेदों के कुछ पहलुओं को मिला कर नाट्य वेद नाम के पांचवें वेद की सणि की। नाट्य स्वयं में नृत्य, नाटक तथा संगीत का मिश्रण है और इसमें ऋग्वेद से पथ्य (शब्द), यजुर्वेद से अभिनय (भंगिमाएं), सामवेद से गीत (संगीत) तथा अथर्ववेद से रस (भाव) ले कर मिश्रित किए गए हैं।
इससे भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में नृत्य को दैवीय महत्व प्रदान करने की बात उजागर होती है। सृष्टि, पालन तथा संहार के प्रतीक शिव के तांडव नृत्य से लेकर पार्वती के नारी सुलभ प्रत्युत्तर तक, भारतीय पौराणिक कथाएं नृत्य विधाओं तथा अभिव्यक्तियों के दृष्टान्तों से भरी पड़ी हैं। उसी प्रकार, भीमबेटका में सामुदायिक नृत्य संबंधी नक्काशियाँ तथा हड़प्पा सभ्यता की खुदाई से प्राप्त कांसे की नृत्यमयी बाला सामाजिक मनोरंजन विधा के रूप में नृत्य के महत्व को उजागर करती हैं।
नृत्य का पहला औपचारिक उल्लेख भरत मुनि की प्रसिद्ध कृति नाट्यशास्त्र में पाया जाता है जिसमें भारतीय शास्त्रीय नृत्य के विविध पहलुओं पर सर्वाधिक विविध तथा रोचक प्रबंध प्राप्त होते हैं। इस कृति का संकलन ईसा बाद दूसरी शताब्दी में किया गया तथा इसमें तकनीकों, मुद्राओं, भावों, आभूषणों, मंच तथा यहाँ तक कि दर्शकों के बारे में विस्तृत ब्यौरा प्राप्त होता है। भरत मुनि नृत्य को सर्वाधिक ‘पूर्ण कला‘ की संज्ञा देते हैं, जिसकी परिधि में कला के अन्य सारे रूप – संगीत, शिल्पकला, काव्य तथा नाटक – सम्मिलित हैं।

नृत्य के स्वरूप
नृत्य के रूपः नाट्य शास्त्र के अनुसार, भारतीय शास्त्रीय नृत्य के दो आधारभूत स्वरूप हैंः
ऽ लास्य: इसमें लालित्य, भाव, रस तथा अभिनय निरूपित होते हैं। कला का यह रूप नृत्य की नारी सुलभ विशेषताओं का प्रतीक है।
ऽ तांडव: यह नृत्य की नर अभिमुखताओं का प्रतीक स्वरूप है तथा इसमें लय तथा गति पर अधिक बल दिया गया है।
नृत्य पर नंदिकेश्वर के प्रसिद्ध ग्रन्थ अभिनय दर्पण के अनुसार, किसी अभिनय को तीन आधारभूत तत्वों में विभाजित किया गया हैः
ऽ नृत्ता या नृत्त: इसका संदर्भ लयबद्ध रूप से किए जाने वाले नृत्य के आधारभूत पद संचालनों से है जिनमें किसी अभिव्यक्ति या मनोदशा का समावेश नहीं किया गया है।
ऽ नाट्य: इसका आशय नाटकीय निरूपणों से है जो नृत्य प्रस्तुति के माध्यम से विस्तृत कथा को निरूपित करता है।
ऽ नृत्य: नृत्य का आशय नर्तन के माध्यम से वर्णित रस तथा भावों से है। इसमें मूक अभिनय तथा मुद्रा सहित नर्तन में प्रयुक्त अभिव्यक्ति की विभिन्न विधियों का समावेश रहता है।
नंदिकेश्वर पुनः नायक-नायिका भाव का सविस्तार वर्णन करते हैं जिसमें शाश्वत देवता को नायक तथा नृत्य का प्रदर्शन करने वाले भक्त को नाटक की नायिका के रूप में देखा जाता है। नृत्य के द्वारा नौ रसों या भावों की अभिव्यक्ति होती है।
ऽ प्रेम के लिए शृंगार ऽ संत्रास के लिए भयानक
ऽ हास्य तथा विनोद नाटक के लिए हास्य ऽ शूरता के लिए वीर
ऽ क्रोध के लिए रौद्र ऽ आश्चर्य के लिए अद्भुत
ऽ दुखांत घटना के लिए करुणा ऽ शान्ति तथा अक्षोभ के लिए शांत
ऽ घृणा के लिए वीभत्स

इन मनोदशाओं तथा अभिव्यक्तियों को मुद्राओं – हाथ की भंगिमाओं तथा शरीर की मुद्राओं के मेल – के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। 108 आधारभूत मुद्राएं होती हैं। इनके मेल से किसी विशिष्ट भाव का चित्रण किया जाता है।