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पुनर्जागरण से क्या अभिप्राय है ? इसकी प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए । भारत के पुनर्जागरण आंदोलन के मुख्य अभिलक्षण

जान पाएंगे पुनर्जागरण से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।

प्रश्न: भारत के पुनर्जागरण आंदोलन के मुख्य अभिलक्षणों की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर: 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत के सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में कई सुधारवादी आंदोलन प्रारंभ हुए, जिन्हें भारतीय पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन के स्वरूप एवं विशेषताएं इस प्रकार है-
1. इस आंदोलन की सर्वप्रमुख विशेषता यह थी कि इसका स्वरूप सुधारवादी था। सदियों से गुलामी की बेड़ी में जकड़े होने के कारण भारत के सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में अनेक कुरीतियों का बोलबाला था। सभी सामाजिक कुरीतियों को धार्मिक मान्यता प्राप्त थी इसलिए इसमें व्याप्त रूढ़िवादिता को सुधारने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हुए। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही राजा राम मोहन राय, केशव चंद्र सेन, ईश्वर चंद्र विद्यासागर तथा स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे आधुनिक सुधारकों के प्रयासों से ही पुनर्जागरण का आरंभ हो सका।
2. इस आंदोलन की दूसरी विशेषता यह थी कि लगभग सभी सुधारकों ने स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर दिया। तत्कालीन सभी सामाजिक कुरीतियां, जैसे- बाल-विवाह, सती प्रथा, बहुपत्नी प्रथा आदि स्त्रियों से ही संबंधित थी, जिसमें अशिक्षा का बहुत बड़ा हाथ था। इसलिए लगभग सभी सुधारकों ने स्त्रियों को शिक्षित बनाने पर विशेष जोर दिया।
3. इन सुधार आंदोलनों को पुनर्जागरण के बजाय आधुनिकीकरण के रूप में ज्यादा जाना जाता है। यूरोपीय पुनर्जागरण के विशिष्ट तत्वों यथा, मूर्तिकला, चित्रकला, विज्ञान तथा साहित्य आदि का विकास को इसमें सर्वथा अभाव पाया जाता है। अतः इस सुधारवादी आंदोलन को अधिक-से अधिक आधुनिकीकरण के रूप में ही जाना जा सकता है।
4. इन आन्दोलनों के सभी सुधारवादी अपने-अपने धर्मों से प्रेरणा ग्रहण कर रहे थे तथा उनमें सैद्धांतिक अंतर्विरोध भी था। सर सैयद अहमद, मुहम्मद इकबाल मिर्जा, गुलाम अहमद जैसे सुधारक इस्लाम धर्म से प्रेरित हो रहे थे। दयानंद सरस्वती वेदों की ओर लौटने का नारा दे रहे थे। राजा राम मोहन राय, केशवचंद्र सेन एवं स्वामी विवेकानंद जैसे सुधारक भी धार्मिक ग्रंथों से प्रेरणा ग्रहण कर रहे थे। इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय पुनर्जागरण कई मायनों में विशिष्ट था इसकी अपनी अलग अभिलाक्षणिक विशेषताए थी।
प्रश्न: उन्नीसवीं शताब्दी में सामाजिक-धार्मिक सुधारों का क्या स्वरूप था और उन सुधारों ने भारतीय राष्टीय जागरण में किस प्रकार योगदान किया था ?
उत्तर: 19वीं शताब्दी में लगभग सभी भारतीय धर्मों में सुधार की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी। तत्कालीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था अन्योन्याश्रित रूप से धर्म से जुड़ी थी। धर्म सुधार एवं समाज सुधार बहुत हद तक एक-दूसरे के पर्याय थे। इस समय हिन्दू धर्म में ब्रह्म समाज एवं आर्य समाज, मुस्लिम धर्म के अन्तर्गत अलीगढ़ एंव अहमदिया आन्दोलन, सिख धर्म में अकाली आन्दोलन एवं पारसी धर्म के अन्तर्गत रहनुमाई मजिदायासन सभा जैसे धार्मिक-सामाजिक सधारक आन्दोलनों ने जन्म लिया। लगभग सभी सुधारक विज्ञान तथा विवेकशीलता और मानवतावाद के सिद्धान्त से प्रभावित थे। किन्तु स्वरूप को दृष्टि से इन आन्दोलनों में भी थोड़ा-बहुत फक्र था।
कुछ सधारकों की अतीत पर निर्भरता अधिक थी, तो कुछ विचारकों पर पाश्चात्य चिंतन का प्रभाव अधिक था। उदाहरणार्थ आर्य समाज थियोसोफिस्टों, बहाबियों आदि की अतीत पर निर्भरता अधिक थी, तो ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज एवं रहनुमाई मजिदायासन सभी पाश्चात्य चिंतन से अधिक प्रभावित थे।
यह आन्दोलन शहरी मध्यम एवं उच्च वर्ग से जुड़ा हुआ था जिसके अन्तर्गत तक्रबुद्धिवाद एवं धार्मिक सार्वभौमवाद पर जोर देते हुए सामाजिक प्रथाओं में सुधार एवं आधुनिकीकरण पर जोर दिया गया। साथ ही, सांस्कृतिक विरासत के धार्मिक एंव दार्शनिक पहलू पर विशेष जोर दिया गया जबकि कला, वास्तुकला, संगीतकला, विज्ञान-प्रौद्योगिकी आदि अपेक्षाकृत कम लाभान्वित हुए।
सामाजिक-धार्मिक सधारों ने आधनिक राष्ट्रीय जागरण में अग्रिम भूमिका निभायी। सामाजिक-धार्मिक नेताओं ने भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का अन्वेषण किया। उन्होंने विभिन्न प्रकार के सामाजिक-धार्मिक आडंबर पर चोट पर आधुनिक भारत की सामाजिक शक्ति को मजबूत किया। इन आन्दोलनों ने भारतीयों को आधुनिक राजनीतिक विचारधारा एवं स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के उदात्त विचारों से भी अवगत कराया। इन सबसे जनता में मानवतावादी नैतिकता का प्रचार स्वदेशी एवं स्वावलंबन जैसे नारों ने लोगों में एक नई चेतना का प्रसार किया। स्वाभाविक रूप से सामाजिक-धार्मिक सुधारों ने राष्ट्रीय जागरण हेतु आधारभूमि तैयार करने में अहम भूमिका निभाई।
प्रश्न: 19वीं शताब्दी का सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन की उपलब्धियाँ/योगदान/महत्व/परिणाम बताइए।
उत्तर:
ऽ नव समाज निर्माण व नवराष्ट्र निर्माण के दृष्टिकोण के अन्तर्गत महत्व
ऽ सामाजिक बुराइयों व कुरीतियों के प्रति जागृति, सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था के प्रति एक विवेचक दृष्टि।
ऽ सामाजिक-धार्मिक बुराइयों व कुरीतियों की पहचान। बौद्धिक प्रहार।
ऽ शिक्षा का प्रसार। सभी आंदोलनों ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई (विद्यालय खोलें, महिला शिक्षा पर जोर..)
ऽ महिला क्षेत्र में सुधार के अन्तर्गत इसका महत्व (सती प्रथा, अशिक्षा, बाल विवाह, कन्या वध, विधवा विवाह …)
ऽ इनके प्रयासे का सामाजिक विधायन में दृष्टिगोचर होता है।
ऽ भारत के गौरव की स्थापना, भारत के गौरव में आस्था के विकास में भूमिका।
ऽ इन आंदोलनों से आत्म-विश्वास की भावना को बल मिला। इसका साम्राज्यवादी व उपनिवेशवादी शासन के अन्तर्गत विशेष महत्व था। साथ ही भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान की दिशा में प्रयास किया गया।
ऽ भारतीय संस्कृति को सुरक्षा प्रदान करने में महत्व (उद्भव के सन्दर्भ में).
ऽ इन आंदोलनों से प्रगतिशील विचारों को बल मिला।
ऽ भारत की तात्कालिक जड़ता की समाप्ति
ऽ भारत के अतीत को उजागर कर भारतवासियों के मन में आत्म-सम्मान और आत्मगौरव की भावना जगाने की कोशिश की।
ऽ स्वतंत्रता एवं समानता का प्रचार-प्रसार
ऽ अन्य विश्व के साथ तादात्म्य स्थापित (अलगाव समाप्त) करने का प्रयास।
ऽ भारतीय परम्पराओं के प्रति सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष के प्रति जागृति।
ऽ सामाजिक चेतना का विकास – भारतीय भाषाओं
ऽ सामाजिक भाषाओं
राष्ट्रीय चेतना की पृष्ठभूमि का विकास

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