JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: indian

पहाड़ी चित्रकला की विशेषताएं क्या है , पहाड़ी कला शैली के मुख्य लक्षणों को समझाइए किससे सम्बन्धित है

जाने पहाड़ी चित्रकला की विशेषताएं क्या है , पहाड़ी कला शैली के मुख्य लक्षणों को समझाइए किससे सम्बन्धित है ?
पहाड़ी चित्रकला
हालांकि राजस्थान की चित्रकला को इंगित करने के लिए ‘राजपूती चित्रकला’ का शब्द बहुधा प्रयोग में लाया गया है, लेकिन पंजाब के पहाड़ी इलाकों के छोटे हिंदू रजवाड़ों में भी महत्वपूर्ण और भिन्न चित्रशैली विकसित हुई। हिमालय की तराई का यह लम्बा और कम फैलाव वाला क्षेत्र राजस्थान की ही भांति कई स्वतंत्र राज्यों में बंटा था, जो चेनाब, रावी, व्यास, सतलज और यमुना की समृद्ध घाटियों में फैला था। इनमें से अधिकांश राज्य जैसे वसोहली, चम्बा, गुलेर, जम्मू, नूरपुर, कुल्लू, गढ़वाल, कांगड़ा और अन्य कई बर्फीली चोटियों और अनुपम भू-दृश्यों के बीच स्थित थे। इन पर परम्परागत राजपूत परिवारों का शासन था, जो आपस में विवाह या अन्य कारणों से एक दूसरे के सम्बंधी भी थे।
इन पहाड़ी राज्यों की चित्रकला, जिसे पहाड़ी कला कहा गया, न तो आकस्मिक रूप से विकसित हुई थी और न ही वहां के लोगों से बिल्कुल अलग किस्म की थी। यह पहाड़ियों के गीत, संगीत और धार्मिक विश्वासों से सराबोर और उनकी भावनाओं और अनुभवों की गहराइयों में रची-बसी थी।
पहाड़ी शैली का प्रेरक तत्व और निमग्न होने का भाव प्रेम है। यहां के लघुचित्रों में कृष्ण की बाल लीलाओं और उनके ग्वाले सखाओं या राधा के साथ उनके प्रेम-प्रसंगों, अन्य लीलाओं या बांसुरी बजागे का चित्रण है, पर प्रमुख विषय पुरुष के स्त्री से प्रेम या स्त्री के पुरुष से प्रेम से ही लिया गया है, जिसमें राधा और कृष्ण का प्रेमिका व प्रेमी के रूप में सांकेतिक चित्रण है।
अपने पहले चरण में यह चित्रशैली बसोली राज्य में विकसित हुई। राजा कृपाल सिंह (1678-1694) के शासन काल में यह शैली अपना एक अलग ही कलेवर लिए विकसित हुई, जो परंपराग्त लोककला और मुगल शैली का मेल भी हो सकती थी।
18वीं शताब्दी के प्रारंभ में कई चित्रशाला,ं खुली, जिनमें बसोली शैली ही स्थानीय तत्वों के साथ निरूपित होती रही। रसमंजरी, भागवत पुराण, गीत गोविंद, बारमासा और राजमाला पर आधारित हजारों लघुचित्रों को मिलाकर व्यापक चित्र बना, गए।
यह शैली अपनी शुरूआती सजीवता और चेतनता, गहरी रेखाओं और चटक रंगों के कारण 1740 तक बनी रहीए इसके बाद उत्तर भारत की राजनीतिक उथल-पुथल ने लघुचित्रों की कला को प्रमुखता से प्रभावित किया। नादिरशाह के आक्रमण और मुगल बादशाह मुहम्मद शाह की उदासीनता और 1750 में अफगानी बादशाह अहमद शाह अब्दाली के सामने पंजाब के सूबेदार के आत्मसमर्पण से स्थिति और बदतर होती चली गई।
नए लोगों के आगमन से स्थानीय कलाकारों के मेल और उनकी सम्मिलित प्रतिभा से उपजे परिष्कार का असर पहाड़ी कलाकारों पर पड़ा, जिन्होंने बसोली शैली की ‘प्राकृत प्रखरता’ का क्रमशः त्याग कर दिया। गुलेर और जम्मू इस नई चित्रशैली के महत्वपूर्ण केंद्र रहे और इस परिवर्तित शैली में बनी कलाकृतियां पहाड़ी कला के मध्यकाल की मानी गईं।
गुलेर की नई शैली मुख्यतः प्रभावी कलाकारों के परिवार की ही एक शैली थी, जो संभवतः जम्मू व कश्मीर मूल के रहे होंगे और गुलेर में बस गए होंगे। तथापि, इस परिवार के सदस्य पंडित सेऊ की अगुवाई में इन पहाड़ी क्षेत्रों के कई केंद्रों में कार्य करते थे। वैसे गुलेर में पनपी शैली बाद के चरण की सबसे भिन्न शैलियों में से थी, जिसमें उन महिलाओं का प्रशांत व सौम्य चेहरा चित्रित किया जाता था, जिनके प्रेमी उनके पास नहीं थे। इसके विपरीत बसोली शैली की नायिकाएं उदास और आवेशाकुल रहती थीं। पंडित सेऊ के पुत्र नैनसुख को गुलेर शैली का सर्वाधिक प्रसिद्ध और प्रवर्तक कलाकार माना जाता है।
कृष्ण की लीलाओं को समर्पित कई लघुचित्र गुलेर शैली के ही हैं और उन्हें मध्य युग की इस शैली के सर्वोत्कृष्ट रूप में चित्रित किया गया है।
जम्मू और गुलेर दोनों स्थानों पर मुगलों का आंशिक प्रभाव देखा जा सकता है। जम्मू में मुगल शैली के साथ सामंजस्य बिठाने के प्रयास दिखते हैं तो गुलेर में मुगल और बसोली शैलियों का बेहतर सामंजस्य है। यहां के चित्रों में मनोरम तरलता तथा स्वाभाविकता है। व्यक्ति चित्रों में मुद्राओं और भाव-भंगिमाओं की विशेष भूमिका रही और चेहरे से ही पूरे चरित्र की पहचान हो जाती थी। इन नई विशेषताओं के साथ बसोली शैली की अन्य खूबियां भी विद्यमान रहीं।
कांगड़ाः कांगड़ा की एकांत घाटी में कलाकारों ने जिन चित्रों का निर्माण कियाए उनका स्थायी महत्व है। राजा संसार चंद, जहां महान योद्धा और कुशल राजनीतिज्ञ था, वहीं उसमें कला के प्रति भी अगाध प्रेम था। उनके दरबार में चित्रकारों का जमघट लगा रहता था। उनके काल में कांगड़ा शैली का अच्छा विकास हुआ।
कांगड़ा शैली वस्तुतः दर्शनीय और रोमांटिक है। इसमें पौराणिक कथाओं तथा रीतिकालीन नायिकाओं के चित्रों की प्रमुखता है। कांगड़ा शैली के चित्रों में सर्वाधिक प्रभावशाली आकृतियां स्त्रियों की हैं।
कांगड़ा कलम के चित्रकार सदैव स्त्री चित्रों की दिशा में सचेष्ट रहे हैं, सर्वदा ही उन्होंने भारतीय परम्परा के अनुसार उसके आदर्शरूप को ही ग्रहण किया है। लारेंस विलियम का मानना है कि कांगड़ा शैली नितांत गिजी है और उसका आधार प्राचीन भित्तिचित्र हैं। इस शैली की एक उपशाखा सिख शैली के रूप में 19वीं सदी में पंजाब के महाराजा रंजीत सिंह के शासनकाल में पल्लवित हुई।

दक्कन चित्रकला
दक्कन सल्तनत की अकबर के समय से भी पहले से अपनी स्वतंत्र सांस्कृतिक परंपरा थी। दक्कनी शैलियां मुगल चित्रकला की समकालीन थीं। हालांकि उसने अपना परंपराग्त स्वरूप विजयनगर और बहमनी राज दरबार से प्राप्त किया था। इब्राहिम आदिल शाह के समय में बीजापुर के राज भवन की चित्रकला अत्यधिक ऊंचाई तक पहुंची।
गोलकुंडा के चित्र फलों, सुगंधित फूलों और पालतू जागवरों में राजकीय रुझान दर्शाते हैं। बाद में इनकी जगह हैदराबादी शैली ने ली, जो कि कार्यान्विति में कोमल व मुगल परंपरा जैसी थी।
राजस्थानी चित्रकला
राजस्थानी चित्रकला का उद्गम आरम्भिक 16वीं सदी के सल्तनत काल को माना जा सकता है। इसी काल में राजस्थान में चित्रकला की उपशैलियां भी विकसित हुईं। लेकिन मेवाड़, आमेर, बूंदी और मालवा केंद्रों के आरंभिक चित्र 17वीं सदी के आरंभ से ही मिलने शुरू होते हैं। सभी शैलियों में कुछ समान तत्व भी हैं जो इस बात का संकेत है कि ये सभी उपशैलियां एक सामान्य राजस्थानी चित्र शैली से निकली हैं। ये चित्र समकालीन साहित्यिक कृतियों और संगठित रूढ़ियों से ग्हन रूप से प्रभावित हैं और इन्हीं के रूपांकनों को अपना आधार बनाया है। अपनी संरचना और रंग संयोजन में ये सभी उपशैलियां सज्जात्मक हैं।
मेवेवाड़ः 1605 मंे मवेाड $ के पहाडी़ क्षेत्र मंे तैयार की गई रागमाला चित्र-शंृखला के साथ हम इस शैली के विशिष्ट चित्रकला कार्य को देखते हैं। मेवाड़ शैली के चित्रों में मुख्यतः कृष्ण के जीवन तथा गोपियों के साथ उनके रास-रंग, हिंदी काव्य के नायक-नायिका विषयों और भारतीय रागों (रागमाला) का स्वरूप चित्रण किया गया है। भागवत तथा रामायण संदर्भों पर आधारित चित्र अपेक्षाकृत व्यापक फलक पर अवधारित और चित्रित हैं। दृश्यों में अंकित सैकड़ों आकृतियां तत्कालीन सामाजिक जीवन की पृष्ठभूमि में अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाती दिखती हैं। ग्रामीण जीवन, विवाह समारोह,शोभायात्राएं, नृत्य और संगीत तथा सामाजिक सम्मिलन और राजमहलों का जीवन जैसे विषय इनमें अंकित किए गए हैं।
पक्षियों और पशुओं के चित्रांकन से इस शैली के गुजराती उद्गम का पता चलता है। घोड़ों और हाथियों के चित्रों के यथार्थपरक स्वरूप पर शाहजहां काल का मुगल प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। हालांकि दृश्यावली में मुगल शैली के प्रकृतिवाद का अभाव है, लेकिन इसका चरित्र कल्पनाशील है जो अपने परंपराग्त चित्रांकन के बावजूद अद्वितीय सौंदर्यशाली हैं। घने पेड़, कमल पुष्पों से भरी नदी और गहन नील बादलों से धरती पर गिरती वर्षा की बूंदें, आकाश में कौंधती विद्युत का संकेत देती स्वर्ण रेखाएं, बहुत ही नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करती हैं। सन् 1652 के बाद मेवाड़ चित्रशैली की प्रगति के बारे में कुछ विशेष पता नहीं चलता, लेकिन रागमाला चित्र-शृंखला और सुचित्रित भागवत पुराण को देखने से यह निश्चित लगता है कि मेवाड़ चित्रशैली की समृद्ध परंपरा 17वीं शताब्दी के अंत तक चलती रही थी।
मारवाड़ः चित्रकला को मारवाड़ ने अपने आधारों पर विकसित किया और मुगल यथार्थवादी प्रवृत्तियां पृष्ठभूमि में आने लगीं। जोधपुर मारवाड़ शैली के एक मुख्य केंद्र के रूप में उभरकर आया और राजा उदयसिंह द्वारा मुगलों के साथ संधि करने के समय से आरंभ राजपूत चित्रकला प्रवृत्तियों को दरबार में प्रश्रय मिलना रुक गया। उन्हें पुराना समझा जागे लगा। लेकिन सन् 1750 के बाद से राजपूत तत्व एक बार फिर उभरने लगे और यद्यपि परवर्ती राजपूत कलाकार मुगल चित्रण तकनीकों को अधिक पसंद करते रहै, यह धीरे-धीरे सच्ची राजपूत चित्र शैली में बदल गई। जोधपुर शैली के सर्वाधिक महत्वपूर्ण चित्र राजपरिवार तथा सामंतों द्वारा घुड़सवारी करते हुए बना, गए हैं। जोधपुर और नागौर शैली के चित्रों में मानव आकृतियों के चैड़े मीन नेत्र और पेड़ों के रीतिबद्ध चित्रण में अत्यंत मुखर अभिव्यक्तियां प्रकट हुई हैं।
18वीं शताब्दी तक राजस्थानी चित्रकला राजस्थान के हर राजदरबार में अपना स्थान बना चुकी थी। बूंदी, जयपुर, किशनगढ़, बीकानेर और कोटा इस शैली के नए केंद्र बने थे। वैसे यह शैली आत्मा से हिंदू थी और 15वीं शताब्दी से देश की कला व संस्कृति पर अपना व्यापक प्रभाव जमा चुके वैष्णववाद के रूप में लोकप्रिय हिंदू संस्कृति के पुगर्जागरण से प्रेरित थी।
किशनगढ़ः अठारहवीं सदी की राजस्थानी चित्रकला की एक महत्वपूर्ण शैली के रूप में किशनगढ़ शैली विकसित हुई। जोधपुर शैली की ही एक उपशाखा यह किशनगढ़ शैली वल्लभी सम्प्रदाय के अनुयायी और भगवान कृष्ण के भक्त राजा सामंत सिंह (1748-64) के व्यक्तित्व से जुड़कर समृद्ध हुई। राजदरबार के चित्रकारों में निहालचंद का नाम सबसे प्रसिद्ध था। उन्होंने एक ऐसी असाधारण रीतिबद्धशैली विकसित की, जिसमें उनकी कृतियों का छरहरापन और उनकी बादामी आंखें प्रमुखता लिए हुई थीं। सुंदरता के लिहाज से इनमें गेयता का तत्व था। इन चित्रों में राधा और कृष्ण के प्रेम प्रसंगों की ही बहुलता थी।
जयपुरः सवाई प्रताप सिंह (1778-1803) के समय से ही जयपुर की चित्र शैली ने बिल्कुल नया रूप धारण किया। मुगल साम्राज्य अपने अंतिम दौर में था। इसीलिए राजपूती कला पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। यह समय सामान्य अराजकता, असुरक्षा, अनैतिकता और अत्यधिक विलासिता का भी था। अतएव, विवेक की सुविधा के लिए धर्म का नया दृष्टिकोण सामने आया। उदाहरण के लिए कृष्ण की रासलीला प्रेम संबंधी लौकिक मनोरंजन बन गई। यह सब कुछ चित्रकला में प्रतिबिम्बित हुआ। हालांकि पारम्परिक अभिव्यक्तियां बनी रहीं, किंतु चित्रकला सजावटी कला बन गई।
बूंदीः दक्षिण-पूर्व राजस्थान में बूंदी और कोटा के रजवाड़ों में संगति अनुसार दिलचस्प चित्र शैलियां विकसित हुई। बूंदी की चित्रकला में राव छत्रसाल और भाऊ सिंह के दरबारी दृश्य प्रमुखता लिए रहे और पूरी 17वीं तथा 18वीं सदी के दौरान कुलीनों, प्रेमियों और राजप्रसाद की महिलाओं के दृश्य ही चित्रित किए जाते रहे।
कोटाः कोटा का रजवाड़ा 1625 में एक मुगल आदेश के अंतग्रत बनाया गया था और कुछ कलाकार ऐसे थे, जिन्होंने दोनों जगहों पर कार्य किया। कोटा में एक अज्ञात कलाकार ने हाथियों की लड़ाई और अपने शाही संरक्षकों की बारीक चित्रकारी कर इसे और परिष्कृत और कल्पनाशील बनाया। कोटा 18वीं सदी में बना, गए आखेट दृश्यों के कारण अत्यंत प्रसिद्ध हो गया, किंतु दरबारी चित्रकला 19वीं सदी तक जारी रही। कोटा चित्रकारी के अंतिम महान संरक्षक या यूं कहें कि राजपूती चित्रकला के अंतिम संरक्षक राव राम सिंह द्वितीय (1827-1865) थे, जिन्होंने अपने कुलदेवता के मंदिर में पूजा-अर्चना के दृश्यों, परंपराग्त शिकार, दरबार और जलसों के दृश्यों को बड़ी ही खूबसूरती से चित्रण हेतु प्रोत्साहित किया।

Sbistudy

Recent Posts

मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi

malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…

1 month ago

कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए

राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…

1 month ago

हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained

hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…

1 month ago

तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second

Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…

1 month ago

चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi

chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…

1 month ago

भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi

first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…

2 months ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now