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परमोच्चता के सिद्धांत के विरुद्ध सरदार वल्लभभाई पटेल भारत की रियासतों का एकीकरण करने में किस प्रकार सफल हुए
प्रश्न: परमोच्चता के सिद्धांत के विरुद्ध सरदार वल्लभभाई पटेल भारत की रियासतों का एकीकरण करने में किस प्रकार सफल हुए ?
उत्तर: 2 फरवरी, 1947 की एटली की घोषणा और 3 जून, 1947 की माउन्टबेटन योजना ने यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेजों की सर्वश्रेष्ठता समाप्त हो जायेगी और रियासतों को अधिकार होगा कि वे पाकिस्तान अथवा भारत में सम्मिलित हो सकती हैं। लॉर्ड माउंटबेटन ने किसी एक रियासत अथवा अनेक रियासतों के संघ को एक तीसरी इकाई के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया। 27 जून, 1947 को देशी राज्यों की समस्या को सुलझाने के लिए राष्ट्रीय अंतरिम सरकार के अन्तर्गत एक राज्य विभाग (State Department) खोला गया, जिसके प्रधान वल्लभभाई पटेल बनाये गये। 15 जुलाई, 1947 को उन्होंने एक बड़ा ही महत्वपूर्ण वक्तव्य निकाला, जिसमें देशी नरेशों से अपील की गयी थी कि वे वैदेशिक मामले यातायात एवं सुरक्षा सम्बंधी विषयों को भारत सरकार को सौप दें। शेष विषय में वे स्वतंत्र रहेंगे। ऐसा न होने पर देश में भयानक अराजकता फैल जायेगी, जिससे सभी को हानि होगी।
हैदराबाद, जूनागढ़ एवं कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी देशी राज्य प्रवेश-पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर करके भारतीय संघ में सम्मिलित होने को तैयार हो गये। देशी राज्यों का विलय चार प्रकार से किया गया-
(1) छोटे-छोटे देशी राज्यों का विलय निकटवर्ती प्रान्तों में कर दिया गया, जैसे- बड़ौदा, बम्बई में मिला दिया गया।
(2) कुछ देशी राज्यों को केन्द्रीय सरकार के अधीन रखा गया। त्रिपुरा, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों का विलय इसी प्रकार हुआ।
(3) जो देशी राज्य समीप होने के अतिरिक्त ऐसे थे, जिन्हें मिलाकर स्वावलम्बी संघ बनाया जा सकता था, उन्हें वैसा ही बना दिया गया। सौराष्ट्र संघ, पूर्वी पजांब रियासती संघ आदि ऐसे ही थे।
(4) बड़े देशी राज्यों को यों ही छोड़ दिया गया और वहां के शासक राजप्रमुख के रूप में स्वीकार कर लिये गये।
जूनागढ़ का शासक पाकिस्तान में मिलना चाहता था, लेकिन जनमत के दबाव में आकर वह दिसम्बर, 1948 में भारत में मिल गया। हैदराबाद के निजाम ने स्वतंत्र राज्य घोषित करने की कोशिश की, मगर तेलगांना क्षेत्र में हुए एक आन्तरिक विद्रोह तथा भारतीय सेनाओं के पहुंचने के बाद उसे भी 1948 में भारत मे शामिल कर लिया गया। कश्मीर के महाराजा, नेशनल कांफ्रेस के शेख अब्दुल्ला की स्वीकृति से भारत में शामिल हो गये। इस प्रकार वल्लभभाई पटेल भारत की रियासतों का समामेलन करने में सफल हुए।
प्रश्न: देशी रियासतों के विलय एवं राजनीतिक एकीकरण में कश्मीर का विलय
उत्तर: कश्मीर राज्य की सीमा भारत तथा पाकिस्तान दोनों से मिलती थी। यहां की 75ः जनसंख्या मुस्लिम थी किन्तु राजा हरिसिंह हिन्दू था। हरिसिंह अपने राज्य को भारत या पाकिस्तान दोनों से अलग स्वतंत्र रखना चाहता था क्योंकि वह भारत के लोकतंत्र एवं पाकिस्तान के संप्रदायवाद दोनों से बचना चाहता था। भारतीय नेता यह चाहते थे कि कश्मीर की जनता ही यह निर्णय ले कि वह भारत के साथ जुड़ना चाहती है या पाकिस्तान के साथ। परन्तु पाकिस्तान शुरू से ही ‘जनमत संग्रह‘ के सिद्धांत को मानने से इन्कार करता रहा था और कश्मीर के मामले में भी उसने इसी प्रकार के अदूरदर्शितापूर्ण कार्य किया। पाकिस्तान ने 22 अक्टूबर को अपनी सेना पठान कबीलाइयों के वेश में कश्मीर में भेज दिया, जो तेजी से कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे। 24 अक्टूबर, 1947 को महाराज हरिसिंह ने भारत से सैनिक सहायता की अपील की किन्तु अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत भारत तभी अपनी सेनाएं कश्मीर में भेज सकता था जब राज्य का औपचारिक विलय भारत में हो चुका हो। घबड़ाकर महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को भारत में विलय संबंधी प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए।
27 अक्टूबर, 1947 को भारतीय सेना ने श्रीनगर समेत कश्मीर के बड़े भाग पर से पाकिस्तानी सेना को बाहर खदेड़ दिया किन्तु संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ था। इसी बीच भारत एवं पाकिस्तान के बीच व्यापक युद्ध हो जाने की आशंका से भारत सरकार ने माउंटबेटन की सलाह पर कश्मीर समस्या 30 दिसम्बर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भेज दिया। सुरक्षा परिषद के एक प्रस्ताव से 31 दिसम्बर, 1948 को दोनों देशों ने युद्ध विराम स्वीकार कर लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक प्रस्ताव के अन्तर्गत कश्मीर में जनमत संग्रह कराया जाना था किन्तु पाकिस्तान के अडियल रवैया के कारण ऐसा नहीं हो सका। आज तक पाकिस्तान ने तथाकथित आजाद कश्मीर से अपनी सेना वापस नहीं बुलायी है।
प्रश्न: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में विदेशी उपनिवेशों का विलय
उत्तर: जूनागढ़, कश्मीर तथा हैदराबाद के भारतीय संध में विलय के बाद अब बारी थी भारत के पश्चिमी एवं पूर्वी समद्री तटों पर पांडिचेरी तथा गोवा के इर्द-गिर्द फैली फ्रांसीसी और पुर्तगाली स्वामित्व वाली बस्तियों की।
भारत में फ्रांस से संबंधित उपनिवेशों से संबंधित क्षेत्र थे – पांडिचेरी, कराइकल, यमन, माहे तथा चंद्र नगर जबकि पुर्तगाल के भारतीय उपनिवेशों में गोवा, दमन-दीव तथा दादरा एवं नागर हवेली थे। इन बस्तियों की जनता अपने नव-स्वतंत्र मातृ-देश में शामिल होने के लिए बेताब थी किन्तु यहां विदेशी शासन का अन्त भारत के स्वतंत्र होने के कई साल बाद हुआ।
फ्रांसीसी उपनिवेशों में आजादी के लिए संघर्ष काफी पहले हो गया था किन्तु दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अधिक तीव हो गया। 1948 में फ्रांसीसी बस्ती माहे में विद्रोह हुआ और फ्रांसीसी प्रशासन ने समर्पण कर दिया। 1940 ई में तो भी भारत में मिला लिया गया। 1954 ई. में फ्रांसीसी बस्तियों में जनमत संग्रह कराया गया जिसमें भारी बहमत से वहां की जनता ने भारत में मिलने का फैसला लिया। इसके बाद भारत एवं फ्रांस के बीच एक संधि हुई, जिसके द्वारा ही शासित भारतीय उपनिवेश भारत संघ में शामिल कर लिए गए।
पुर्तगाली उपनिवेशों में भी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष काफी पहले शरू हो गया था। गोवा में त्रिस्ताओं ब्रिगांजा कुन्हा को राष्ट्रीय आंदोलन का जनक माना जाता है। उन्होंने 1928 में गोवा कांग्रेस कमेटी की स्थापना की। 1945 ई. में स्वाधीनता सेनानियों ने दादरा एवं नागर हवेली को पर्तगालियों से मक्त कराया। 1955 ई. में गोवा में बड़े पैमाने पर सत्याग्रह आंदोलन प्रारभ हो गया। जब निहत्थे सत्याग्रहियों ने गोवा में प्रवेश किया तो पुर्तगाली सैनिकों ने उन पर गोलियां चलाई जिससे कई सत्याग्रहियों की मृत्यु हो गई। इस घटना के बाद गोवा के कुछ स्वाधीनता सेनानियों ने सशस्त्र दल का निर्माण किया ताकि पुर्तगाली शासन को गोवा से समाप्त किया जा सके। इधर भारत सरकार शांतिपूर्ण उपायों से अपनी सीमा विवाद को सुलझाने के लिए पुर्तगाल की सरकार को यह समझाती रही कि वह अपने भारतीय उपनिवेश को छोड़ दे किन्तु पर्तगाल ब्रिटेन और अमेरिका से सह पाकर विद्रोही तेवर दिखाता रहा। ऐसी परिस्थितियों में भारत सरकार धैर्यपूर्वक पर्तगाल के खिलाफ अन्तर्राष्ट्रीय जनमत तैयार होने का इंतजार करती रही और अन्ततः दिसम्बर, 1961 की रात भारतीय सेना गोवा में प्रवेश कर गई। गोवा के गवर्नर जनरल ने बिना किसी युद्ध के आत्मसमर्पण कर दिया और इस प्रकार भारत का राजनीतिक एवं क्षेत्रीय एकीकरण का कार्य पूर्ण हुआ।
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