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पंजाब केसरी के नाम से कौन प्रसिद्ध है , विख्यात थे पंजाब केसरी के नाम से कौन जाने जाते हैं

जाने पंजाब केसरी के नाम से कौन प्रसिद्ध है , विख्यात थे पंजाब केसरी के नाम से कौन जाने जाते हैं ?

प्रश्न: लाला लाजपत राय
उत्तर: पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी और उग्रवादी नेता लाला लाजपत राय (1865-1928 ई.) ‘पंजाब केसरी‘ नाम से प्रसिद्ध थे। 1907 में इन्होंने पंजाब में विशाल कृषक आन्दोलन का संगठन और नेतृत्व किया इस कारण इन्हें अजीत सिंह के साथ बर्मा निष्कासित कर दिया गया। 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता की और असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। असहयोग आन्दोलन के स्थगन के बाद स्वराज पार्टी में शामिल हो गए। 1928 में साइमन कमीशन के विरोध के दौरान लाहौर में पुलिस (साण्डर्स) पिटाई के बाद उनकी मृत्यु हो गई। पत्रकारिता में इनकी गहन रूचि थी, इन्होंने एक उर्द दैनिक ‘वंदेमातरम‘ और एक अंग्रेजी दैनिक ‘द पीपुल‘ निकाला। लाला लालपत राय ने कुछ समय अमेरिका से ‘यंग इंडिया‘ का प्रकाशन भी किया। इनकी प्रमुख कृतियाँ थीं – भारत को इंग्लैण्ड का ऋण, स्वतंत्रता के लिए भारत की इच्छा, युवा भारत का आह्वान एवं अनहैप्पी इंडिया।
प्रश्न: चन्द्रशेखर आजाद
उत्तर: चन्द्रशेखर आजाद (1906-31 ई.) आधुनिक उ.प्र. के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। अहसयोग आन्दोलन में गिरफ्तार किए गए और मुकदमे में अपना नाम ‘आजाद‘ बताए जाने के बाद इसी नाम से प्रसिद्ध हो गए। ये हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के साथ घनिष्टता से जुड़े थे। ये काकोरी षड़यंत्र कांड, लाहौर षड़यंत्र केस, दिल्ली षड़यंत्र केस और अनेक क्रांतिकारी एवं आतंकवादी मामलों से संबंधित थे। 1931 में इलाहाबाद के अल्फ्रेड पाक्र में अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए ये शहीद हो गए।

भारत की वास्तुकला पर यूरोपीय प्रभाव
यूरोपीय लोग व्यापार करने के लिए भारत में आए थे। उन्होंने अनेक स्ािानों पर अपनी बस्तियां बसाईं। इन बस्तियों में उन्होंने फैक्टरियों के अतिरिक्त यूरोपीय शैली के मकान भी बना,। जब भारत में उनके पैर बखूबी जम गए तो उन्होंने सुदृढ़ किले और भव्य गिरजाघर जैसी अधिक मजबूत इमारतें बनानी शुरू कर दीं। उनके बना, किलों का कोई वास्तुकालिक महत्व नहीं था। गोवा में पुर्तगलियों ने आइबेरियन वास्तुकला शैली में शानदार गिरजाघर बना, और अंग्रेजों ने अपेक्षाकृत कम महत्वाकांक्षी ढंग से इंग्लैंड के गांवों में बने गिरिजाघरों से मिलते जुलते चर्च बना,।
इस प्रकार भारत में एक विशिष्ट शैली के भवन बनने लगे। लेकिन विक्टोरियन शैली अपने आप में मौलिक उद्भावनापरक न होकर नकल थी, इसलिए उसमें इतनी सामथ्र्य नहीं थी कि वह भारतीय-इस्लामिक वास्तुकला की तरह भारत में भारतीय-ब्रिटिश वास्तुकला का भी आरंभ कर सके। विक्टोरियन वास्तुकारों ने भारत में। पूर्वीय या ओरियंटल शैलियों की नकल करने की गलती की। इस्पात के सहारे ईंटों वाले गुम्बदार भवन विक्टोरियाई शिल्पकला का सबसे भद्दा रूप था। कुल मिलाकर उन्नीसवीं सदी की अंग्रेज वास्तुकला किसी भी तरह यहां प्रचलित पुराने स्थापत्य की तुलना में नहीं ठहर सकी।
18वीं शताब्दी में कुछ दूसरे ब्रिटिश अफसरों ने वास्तुकला की पल्लडियन शैली को भारत में शुरू करने के प्रयास किए थे। लखनऊ में जनरल मार्टिन द्वारा बनवाई गई ‘कांसटेंशिया’ इमारत भारत में उस निर्माण शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। क्रमिक रूप से टैरेसदार छतों से ऊपर उठता एक केंद्रीय बुर्ज इस शैली की विशिष्टता है।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कुछ यूरोपीय निर्माताओं ने भारतीय और पश्चिमी वास्तुकलाओं के कुछ तत्वों की मिलीजुली निर्माण शैली के प्रयोग का प्रयास किया। इस अभियान का अग्रदूत एक सिविल सर्वेंट एफ-एस. ग्राउस था। जयपुर का संग्रहालय और मद्रास की मूर मार्किट इसी वास्तुकला के उदाहरण हैं। पंजाब के मशहूर भवन निर्माता सरदार रामसिंह ने लाहौर में सेंट्रल म्यूजियम और सीनेट हाऊस का खाका तैयार किया। सी. विट्टेट ने बम्बई में गेटवे आॅफ इंडिया का खाका बनाया। इसमें उन्होंने मुगल वास्तुकला के अनेक तत्वों का भी समावेशन किया था। विक्टोरिया युग के अनेक भवनों में कोलकाता और चेन्नई के गिरजाघर, शिमला और लाहौर के कैथेड्रल, लाहौर उच्च न्यायालय और कोलकाता उच्च न्यायालय भवन उल्लेखनीय हैं। लेकिन इनमें से किसी भी भवन को वास्तु कला के महान प्रतीक की संज्ञा नहीं दी जा सकती। विक्टोरियाई काल के अंत में भारत ने राष्ट्रीय जागरण और आंदोलन के युग में प्रवेश किया।
इस युग के वास्तुशिल्प में उस काल की साम्राज्यवादी आवश्यकताओं तथा राष्ट्रीय आकांक्षाओं के सम्मिलन का प्रतिबिम्ब झलकता था। ब्रिटिश लोग रानी विक्टोरिया की स्मृति में एक मेमोरियल हाॅल बनवाकर भारत में उसकी स्मृति को चिरस्थायी रूप देना चाहते थे। लेकिन कोलकाता के इस विशाल भवन की शैली ओरियंटल रखी गई ताकि भारतीय जनमानस संतुष्ट हो सके। दुर्भाग्यवश विक्टोरियान मेमोरियल हाल के वास्तुकार इसे भारतीय-ब्रिटिश निर्माण शैली का एक उल्लेखनीय नमूना नहीं बना सके। इस भवन पर भारतीय विशिष्टताएं थोप दी गईं और उस पर गुम्बद लगा दिया गया जिसके बल पर यह ताज महल जैसा दिखना तो दूर उसकी भौंडी नकल भी नहीं बन सका। इसी तरह मुम्बई में प्रिंस आॅफ वेल्स म्यूजियम का निर्माण करते समय ओरिएंटल विशिष्टताओं की नकल करने का प्रयास भी सफल नहीं हो सका।
जब 1911 में भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने का निश्चय हुआ तो ब्रिटिश शासकों के सामने भारत में शानदार भवनों के निर्माण का महान अवसर उपस्थित हुआ। मुख्य वास्तुकार सर एडविन लुटियंस और उसके साथी सर एडवर्ड बेकर ने पहले नव-रोमन शैली में भवनों के खाके तैयार किए। लेकिन भारतीय पृष्ठभूमि में ये रूप अनुपयुक्त मालूम पड़े। दिल्ली के लिए फिर से योजना तैयार करने से पहले ब्रिटिश वास्तुकारों ने बौद्ध, हिंदू और इस्लामिक निर्माण शैलियों की विशिष्टताओं का अध्ययन किया। अंततः जब राजधानी ने अपनी भव्य इमारतों के साथ स्वरूप ग्रहण किया तो वायसरीगल महल के शीर्ष पर बौद्ध स्तूप जैसा एक बड़ा गुम्बद या शिखर गजर आया। अधिकतर भवनों में हिंदू अलंकरण और इस्लामिक शैली के तत्व विद्यमान थे। भारतीय वास्तुकला की विभिन्न शैलियों को यूरोपीय शैली में संश्लेषित करने के इस अपूर्व प्रयोग का सबसे बड़ा दोष यह रहा कि तथाकथित सौंदर्य और संरचनात्मक भव्यता के नाम पर सादगी, आधुनिकता और उपयोगिता को बहुत हद तक छोड़ दिया गया था। इस प्रयोग ने न तो भारत के वास्तुकलात्मक मूल्यों के लुप्त गौरव को फिर से जीवित किया और न ही यह नए युग के अनुरूप एकदम अलग और नए निर्माण के स्वरूप को ही प्रकट कर सका। अधिकतर भवन देखने में भारी भरकम, विशाल और मजबूत तो थे लेकिन साथ ही संकीर्ण, चारों ओर से बंद और स्वरूप में मध्य कालीन प्रतीत हुए। सर जाॅन मार्शल द्वारा एक अच्छा काम यह किया कि उन्होंने मुगल शैली से प्रेरणा लेते हुए संुदर उद्यानों की शृंखला
को विकसित किया।

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