नियोजन की परिभाषा क्या है | Planning in hindi definition | नियोजन किसे कहते हैं आर्थिक

नियोजन किसे कहते हैं आर्थिक नियोजन की परिभाषा क्या है | Planning in hindi definition ?

प्रस्तावना (Introduction)
आर्थिक योजना पर बहस को सिर्फ अकादमिक अभ्यास तक न सिमटे रहने देने के क्रम में, हमें विविध अर्थव्यवस्थाओं में मौजूद वास्तविक जिंदगी के उदाहरणों पर चर्चा करने की जरूरत है। योजना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बगैर, हम भारत में योजना का मतलब और किरदार, दोनों नहीं समझ सकते। यह छोटा-सा अध्याय पाठकों को आर्थिक योजना की अवधारणा से जुड़े क्या, क्यों और कैसे से अवगत कराता है, साथ ही समय-समय पर विभिन्न देशों के, जिसमें भारत भी शामिल है, प्रयोगें की चर्चा भी करता है। इसे अगले अध्याय भारत में नियोजन से पहले का सहायक सैद्धांतिक अध्याय भी समझा जा सकता है।
नियोजन की परिभाषा (Definition)
नियोजन एक ऐसी अवधारणा है, जिसका आज विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र में इसका मूल अर्थ एक जैसा है। अलग-अलग विद्वानों द्वारा आर्थिक नियोजन को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया गया है। उगकी परिभाषाओं में अंतर का कारण उगके नियोजन के प्रति दृष्टिकोण में अंतर के कारण रहा है।
हम इन परिभाषाओं को समाहित करते हुए आर्थिक नियोजन की एक व्यापक और कार्यकारी परिभाषा तैयार कर सकते हैं, ‘‘पूर्ण-परिभाषित (well defined) आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उपलब्ध संसाधनों का इष्टतम् (Optimum) दोहन करने की प्रक्रिया (process) ही आर्थिक नियोजन है।’’ यह वर्तमान समय में सर्वाधिक मान्य परिभाषा है। वर्ष 1987 तक, जब सतत् विकास (Sustainable Development) की अवधारणा का उदय हुआ, नियोजन प्रक्रिया में संसाधनों के ‘महत्तम’ (ईष्टतम् की जगह) दोहन की बात की जाती थी। बाद में नगर नियोजन, औद्योगिक नियोजन, से लेकर परिवार नियोजन तक की अवधारणाओं का विकास हुआ।
साल 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रैस ने पहली बार राष्ट्रीय योजना समिति (नेशनल प्लानिंग कमेटी) की स्थापना की, जिसने देश में योजना-निर्माण को परिभाषित करने की कोशिश की (1940 में यह समिति स्थापित हुई थी, वैसे 1949 में अंतिम रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी)। इसे योजना की सबसे व्यापक और संभव परिभाषा समझा जा सकता है, ‘‘एक लालोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत योजना को ऐसे परिभाषित किया जा सकता है कि वह औद्योगिक समन्वय, जिसमें खपत, उत्पादनए निवेश, कारोबार और आय-वितरण के निष्पक्ष विशेषज्ञ हों और जो राष्ट्र के प्रतिनिधियों द्वारा तैयार सामाजिक उद्देश्य के अनुरूप काम करे। ऐसी योजना को न सिर्फ अर्थव्यवस्था और जीवन-स्तर के उत्थान के दृष्टिकोण से देखा जाता था, बल्कि इसमें सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों व जीवन के मानवीय पक्ष के भी नजरिये जरूर होते थे।’’
1930 के दशक के अंत तक, यह राजनीतिक सहमति बन चुकी थी कि स्वतंत्र भारत एक नियोजित अर्थव्यवस्था होग। जब 1950 के शुरू में भारत ने आर्थिक योजना बनाने की शुरुआत की, तब भारतीय योजना आयोग ने भी योजना को परिभाषित करने का काम किया। योजना आयोग के अनुसार, ‘‘सभी नीतियों को ढांचागत रूप देने के संदर्भ में योजना, उद्देश्यों की सुपरिभाषित प्रणाली को शामिल करती है। साथ ही, इसमें परिभाषित नतीजों की प्राप्ति को बढ़ावा देने की कार्य-नीति होती है। योजना समस्याओं के तार्किक समाधान को पाने का एक अनिवार्य प्रयास है, अर्थ व अंत के बीच समन्वय की कोशिश है, इसलिए यह पारंपरिक गलत तरीकों से पूरी तरह अलग है, जिसके कारण अक्सर इसमें सुधार व फनर्निर्माण की वचनबद्धता रहती है।’’
युद्धोपरांत काल में, कई सारे नए आजाद देश आयोजना की तरफ आकर्षित हुए। बदलाव की कई सारी शक्तियां औद्योगीकरण की बाध्यकारी आवश्यकताओं या विकास-प्रक्रिया की निरंतरता के मुद्दे के कारण योजना-निर्माण के मूल विचारों को संशोधित करते रहे। लेकिन अपनी चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए हमें योजना की समसामयिक और व्यवहार्य परिभाषा चाहिए। हम इसे ऐसे परिभाषित कर सकते हैं कि यह उपलब्ध संसाधनों के सर्वाेत्कृष्ट उपयोग द्वारा सुपरिभाषित लक्ष्यों को पाने की प्रक्रिया है। आर्थिक योजना के निर्माण के दौरान सरकार विकास-लक्ष्यों को निर्धारित करती है और एक लंबे समय में लिए गए आर्थिक फैसें के बीच सोच-विचार कर समन्वय बिठाने की कोशिश करती है, ताकि देश को प्रभावित करने वाले तत्वों (जैसे-आय, खपत, रोजगर, बचत, निवेश, आयात, निर्यात, वगैरह) की वृद्धि और स्तर को प्रभावित, निर्देशित और कुछ मामलों में नियंत्रित किया जा सके।
ऐसे में, एक आर्थिक योजना सामान्यतः एक व्यक्त कार्य-नीति के साथ दिए गए समय में निश्चित आर्थिक लक्ष्यों को पाना है। आर्थिक योजना,ं व्यापक या आंशिक हो सकती हैं। एक विस्तृत योजना अर्थव्यवस्था के सभी बड़े पहलुओं को समाहित करने के लिए लक्ष्य निर्धारित करती है। वहीं एक आंशिक योजना अर्थव्यवस्था के एक हिस्से (जैसे-कृषि, उद्योग, निजी क्षेत्र आदि) के लिए लक्ष्य निर्धारित करती है। अगर व्यापक संदर्भ में लें, तो योजना-निर्माण की प्रक्रिया अपने आपमें एक अभ्यास है, जिसमें सरकार सबसे पहले सामाजिक उद्देश्य चुनती है, उसके बाद कई लक्ष्य निर्धारित करती है (जैसे-आर्थिक लक्ष्य) और अंत में एक विकास-योजना को गू करवाने, उसमें तालमेल बिठाने और उसकी निगरानी करने के लिए ढांचागत काम करती है।
यह बेहद साफ होना चाहिए कि योजना का ख्याल सबसे पहले अपने व्यावहारिक रूप में हो। इस पर अमल करने वाले देशों के अनुभवों के अध्ययनों और सर्वेक्षणों के आधार पर विशेषज्ञ योजना-निर्माण के बारे में अनुमान लग सकते हैं। इसलिए योजना-निर्माण के मामले में दिशा व्यवहार से सिद्धांत की ओर होनी चाहिए। योजना-निर्माण की प्रकृति और तरीके, दोनों इसी कारण एक देश से दूसरे देश में एक समय से दूसरे समय में बदलते रहते हैं। आगामी पृष्ठों में हम पढ़ेंगे कि समय के साथ नियोजन के तरीके स्वयंमेव भी ईजाद हुए, क्योंकि कई देशों ने इससे प्रयोग किए।
व्यवहार्य परिभाषा के अनुसार, हम योजना-निर्माण के बारे में ये चीजें देख सकते हैः
;i) योजना एक प्रक्रिया है। इसका मतलब हुआ कि प्लानिंग कुछकरने की प्रक्रिया है। जब तक हमारी जिंदगी से जुड़े लक्ष्य और उद्देश्य बचे रहेंगे, तब तक यह प्रक्रिया चालू रह सकती है। हमारी जरूरतों के बदलते स्वरूप के साथ, योजना-निर्माण की प्रक्रिया के स्वरूप और अभिप्राय में भी बदलाव देखे जा सकते हैं। प्लानिंग अपने आप में एक अंत नहीं है। जिस प्रकार प्रक्रिया तेज होती है और मंद पड़ती है, दिशा बदलती रहती है, वही सब कुछ योजना-निर्माण में भी होता है।
;ii) योजना-निर्माण को सुपरिभाषित लक्ष्य चाहिए। दूसरे विश्व-युद्ध के बाद, कई देश विकास योजना की तरफ बढ़े। इन देशों के सामने कई सामाजिक-आर्थिक बाधाएं थीं। उन्होंगे पहले कुछ लक्ष्य और उद्देश्य बनाए और इसके बाद प्लानिंग के जरिये उगको साकार करना शुरूकिया। समय के साथ, यह सहमति बनी कि प्लानिंग के पास कुछ लक्ष्य होने चाहिए और ये लक्ष्य सुपरिभाषित हों, न कि अनिश्चित व अस्पष्ट हों, ताकि आर्थिक संगइन में सरकार द्वारा अपने विवेक के अनुरूप किया गया हस्तक्षेप लालोकतांत्रिक रूप से पारदर्शी और न्यायोचित रहे। यहां तक कि गैर-लोकतांत्रिक देशों में (जैसे-पूर्व यू,स,सआर, चीनए पोलैंड, आदि) भी प्लानिंग के लक्ष्य साफ तौर पर परिभाषित होते रहे हैं।
;iii) उपलब्ध संसाधनों का सर्वाेत्कृष्ट उपयोग होना चाहिए। यहां पर हम दो अवधारणाएं पाते हैं। पहली संसाधनों के उपयोग से जुड़ी है। संवहनीयता के विचार के उद्भव से पहले, यानी 1987 से पहले तक विशेषज्ञ ‘अधिकतम’ संसाधन दोहन पर जोर देते थे। लेकिन जैसे ही दुनिया भर के विशेषज्ञों ने आत्म-निरीक्षण से पाया कि संसाधनों के दोहन का यह तरीका भरोसेमंद नहीं है, तब से टिकाऊ या संवहनीय तौर-तरीकों को शामिल किया गया। इसलिए इसमें यह विचार डा गया कि संसाधनों का इस्तेमाल ‘मुमकिन सबसे बढ़िया’ तरीके से किया जाग चाहिए, ताकि पर्यावरणीय क्षय न्यूनतम हो और आगे वाली पीढ़ियां भी इस प्रगति के साथ कदमताल कर सकें। दूसरी अवधारणा उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी है। प्राकृतिक और मानव संसाधनए स्थानीय भी हो सकते हैं और बाहरी भी। अधिकतर देश ऐसी योजना बनाते थे, जो उगके स्थानीय संसाधनों को इस्तेमाल में सके। वहीं, कई अन्य देशों ने बाहरी संसाधनों को पाने की भी कोशिशें कीं। इसके लिए उन्होंगे अपनी कूटनीतिक सूझ-बूझ का इस्तेमाल करते हैं, जैसे-राष्ट्रीय योजना के लिए कदम बढ़ाने वाले पहले देश सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोपीय देशों में मौजूद संसाधनों का भ उठाया। भारत भी अपने विकास के लिए बाहरी संसाधनों का इस्तेमाल करता है, जहां उसे इसकी जरूरत लगती है और जहां से भ उठाना संभव होता है।
1950 के दशक तक, दुनिया भर में योजना-निर्माण संसाधनों के इस्तेमाल का एक तरीका बनाए ताकि नीति-निर्माताओं द्वारा निर्धारित किसी भी लक्ष्य को हासिल किया जा सकेः
;i) कई देशों में एक विशेष आकार के परिवार को पाने के लिए परिवार नियोजन शुरू हुआ।
;ii) पहले से मौजूद और नए बनने वाले शहरी क्षेत्रों को सामाजिक और भौतिक बुनियादी संरचनों देने के लिए नगर या शहरी योजना बगई गई।
;iii) एक देश अपने राजस्व को विभिन्न व्यय श्रेणियों में सबसे अच्छा उपयोग कर सके, वह वित्तीय योजना कहई। वित्तीय योजना बजटिंग के रूप में ज्यादा प्रसिद्ध है। हर बजट, चाहे वह सरकार का हो या किसी निजी क्षेत्र का, कुछ और नहीं है, बल्कि वित्तीय योजना के क्षेत्र में एक काम है।
;iv) इसी तरह, बड़े और छोटे स्तरों पर, कई सारे योजनागत प्रक्रियाएं हो सकती हैं- कृषि योजना, औद्योगीकरण योजना, सिंचाई योजना, सड़क योजना, भवन योजना, वगैरह।
आसान शब्दों में, हमारे पास जो संसाधन हैं, उगके जरिये किसी भी प्रकार के लक्ष्य को पाने की क प्लानिंग की प्रक्रिया है। हम एक बेहद आसान उदाहरण दे सकते हैं। एक वर्ग के छात्र अलग-अलग जगहों से आकर सही समय पर कक्षा में शामिल हो जाते हैं। कैसे वे इसे मुमकिन कर पाते हैं? साफ है, सभी अपने समय की इस तरह से प्लानिंग करते हैं कि एक ही समय में सब कक्षा के अंदर होते हैं, जबकि उगके घर कक्षा से समान दूरी पर नहीं होते हैं। बेशक, हर किसी के पास अलग तरह की समय-योजना होगी। कोई बिस्तर पर चाय पीना पसंद करता होग, कोई नहीं। कोई नाश्ता घर पर करता होग, तो कोई काॅलेज कैंटीन में, आदि।
इसका मतलब यह हुआ कि यदि हम ईमानदारी से अपने समय को नियोजित करके नहीं चलते हों या अपने समय-नियोजन की घोषणा नहीं करते हों, तब भी हम रोज अपने दिन की रूप-रेखा तैयार कर लेते हैं। इसी तरह, कई देश घोषणा करता है कि वे सुनियोजित अर्थव्यवस्था हैं, लेकिन कई देश इस तरह की नीतिगत घोषणा नहीं करते। सोवियत संघ, पोलैंड, चीन फ्रांस, भारत पहली वाली श्रेणी के देश हैं। वहीं अमेरिका, कनाडा, मैक्सिको दूसरी श्रेणी में आते है। लेकिन यहां हम योजना-निर्माण की सचेत प्रक्रिया की बात कर रहे थे। समय के साथ योजना-निर्माण का कोई और प्रकार, जरिया और तरीका आएना, क्योंकि कई देश प्लानिंग की अपनी प्रक्रिया शुरू करेंगे।