नरमपंथी और चरमपंथी क्या है , भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में नरमपंथियों और चरमपंथियों की भूमिका का मूल्यांकन

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में नरमपंथियों और चरमपंथियों की भूमिका का मूल्यांकन नरमपंथी और चरमपंथी क्या है ? कौन थे समझाना अन्तर ?

प्रश्न: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में नरमपंथी-चरमपंथी विभाजन के सैद्धांतिक आधार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: कांग्रेस की नरमपंथी के खिलाफ, 1899 से ही असंतोष व्यक्त किया जाने लगा था। प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आगमन के समय उनके स्वागत, ‘बहिष्कार‘, स्वदेशी, शिक्षा जैसे मुद्दे विवाद के प्रमुख कारण थे। यह विवाद बढ़ता गया और 1907 के सूरत अधिवेशन में नेतृत्व के मुद्दे पर कांगेस पार्टी नरमपंथी एवं चरमपंथी गुटों में स्पष्ट रूप से विभाजित हो गयी। नरमपंथी गुट अपने को अंग्रेजी प्रजा मानते हुए भारत के अंग्रेजी शासन में हिस्सेदारी मांगते थे। चरमपंथी गुट इसे जन्मसिद्ध अधिकार मानता था। नरमपंथियों को अंग्रेजी इतिहास तथा राजनीतिक विचारों पर विश्वास था, जबकि चरमपंथी भारतीय परम्पराओं से प्रेरणा ग्रहण करते थे। नरमपंथी अंग्रेजों की देख-रेख में राजनीतिक प्रशिक्षण में विश्वास करते थे। चरमपंथी अंग्रेजों के राजनीतिक विचारों को केवल एक मायाजाल समझते थे। इसकी जगह ये लोग अहिंसात्मक प्रतिरोध और सामूहिक आंदोलन में विश्वास करते थे। नरमपंथियों का जन आंदोलन में विश्वास नहीं था। नरमपंथियों के लिए – स्वराज्य का अर्थ ‘साम्राज्य के अन्दर औपनिवेशिक स्वशासन‘ था, जबकि उग्रवादियों के लिए स्वराज्य का अर्थ ‘विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता थी।‘

प्रश्न: 1905 में बंगाल का विभाजन किस कारण हुआ ?
उत्तर: 1905 ई. में बंगाल विभाजन अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो‘ की नीति का परिणाम था। लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन का कारण दिया – प्रथम, बंगाल प्रांत का क्षेत्रफल और जनसंख्या बहुत अधिक थी। बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर को एक लाख निवासी हजार वर्ग मील शासन व्यवस्था की देखभाल करनी पड़ती थी। बंगाल की जनसंख्या सात करोड़ अस्सी लाख थी जो तत्कालीन इंग्लैण्ड से लगभग दोगुनी थी। दूसरे यातायात की व्यवस्था की कमी थी। बंगाल के क्षेत्र में रेल लाइनों का निर्माण बहुत कम था। तीसरे मार्गों की सुरक्षा व्यवस्था भी अपर्याप्त थी। चैरी-डकैती बड़ी संख्या में होती थी। पुलिस व्यवस्था भी अच्छी न थी। सामान्यतः तत्कालीन सरकार द्वारा बंगाल विभाजन का कारण शासकीय आवश्यकता बताया गया परंतु यथार्थ में विभाजन का मुख्य कारण शासकीय न होकर राजनीतिक था। बंगाल राष्ट्रीय गतिविधियों का कद्र था। कर्जन कलकत्ता और अन्य केंद्रों को नष्ट करना चाहता था।
प्रश्न: 1905 में बंगाल को प्रशासकीय कारणों की अपेक्षा राजनीतिक उद्देश्यों से विभाजित किया गया। व्याख्या करें। [RAS Main’s 2008,
उत्तर: राष्ट्रीय आंदोलन में उग्र धारा उस समय जोर पकड़ गयी, जब 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया। तथाकथित प्रशासनिक सुविधा के विचार से किया गया यह विभाजन राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित था, क्योंकि बंगालियों में एकता बढ़ती जा रही थी और अंग्रेज इसे खत्म करना चाहते थे। बंगाल विभाजन के समय बंगाल की कल जनसंख्या, करोड़ 80 लाख थी। उड़ीसा और बिहार भी इसी राज्य के हिस्से थे। पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक नया प्रांत बनाया गया, जिसकी कुल जनसंख्या 3 करोड़ 10 लाख (एक करोड़ नब्बे लाख मुसलमान तथा एक करोड बीस लान हिन्दू थी। दूसरे भाग में पश्चिमी बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के हिस्से सम्मिलित थे, जिसकी कुल जनसंख्या 4 करोड 70 लाख थी (4 करोड़ 20 लाख हिन्द तथा 50 लाख मुसलमान)। बंगाल को सिर्फ बंगालवासियों के प्रभाव को कम करने के लिए नहीं बांटा गया, बल्कि बंगाल में बंगालियों की आबादी कम कर उन्हें अल्पसंख्यक बनाना ही मुख्य उददेश्य इस विभाजन में एक और विभाजन ‘धार्मिक आधार पर किया गया विभाजन‘ भी अंतर्निहित था।
प्रश्न: उग्रपंथी एवं क्रांतिकारी विचारधारा में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: स्वतंत्रता संघर्ष के द्वितीय चरण में एक ओर उग्रवादी तथा दूसरी ओर क्रांतिकारी आंदोलन चलाया गया। दोनों का उददेश ब्रिटिश राज्य से मुक्ति एवं पूर्ण स्वराज की प्राप्ति था। एक तरफ उग्रवादी विचारधारा के लोग बहिष्कार आंदोलन को आधार बना कर लड़ रहे थे तो दूसरी ओर क्रांतिकारी विचारधारा के लोग बम और बन्दूकों के उपयोग से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे। जहां एक ओर उग्रवादी शांतिपूर्ण सक्रिय राजनीतिक आंदोलनों में विश्वास करते थे वहीं क्रांतिकारी अंग्रेजों को भारत में भगाने में शक्ति एवं हिंसा के उपयोग में विश्वास करते थे।
प्रश्न: स्वदेशी आंदोलन के कमजोर पड़ने के क्या कारण थे? इस आंदोलन के क्या परिणाम निकले? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: 1908 ई. तक बंग-भंग आंदोलन धीमा पड़ गया या मृत प्रायः हो गया। इसके कारण थे – (1) 1907 में सूरत में कांग्रेस का विभाजन। 2. कृषकों एवं मुसलमानों का भाग न लेना, (3) सरकार का दमनकारी रवैया, (4) बाल गंगाधर तिलक, अश्विनी कुमार दत्त एवं कृष्ण कुमार को गिरफ्तार कर निर्वासित करना, (5) कांग्रेस में आंतरिक कलह, (6) एक सक्षम संगठन तथा पार्टी संरचना का अभाव आदि।
स्वदेशी आंदोलन के समय पहली बार घरों से बाहर आकर महिलाओं ने धरनों और प्रदर्शनों में भाग लिया। आंदोलन का सामाजिक आधार भी बढ़ा। इसमें कुछ जमींदारों, शहरों के निम्न मध्यम वर्ग तथा छोटे कस्बों के छात्रों ने व्यापक स्तर पर भाग लिया। किसान स्वदेशी आंदोलन से अलग ही रहे। स्वदेशी आंदोलन की मुख्य कमी यह रही कि इसमें बहुसंख्यक मुस्लिम विशेषतः मुस्लिम किसान शामिल नहीं हुए। स्वदेशी आंदोलन के चरमोत्कर्ष के समय बंगाल में ‘सांप्रदायिक दंगे‘ फैल गये। निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि ‘‘स्वदेशी आंदोलन‘‘ साम्राज्यवाद के विरुद्ध पहला सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन था जो भावी संघर्ष का बीज बोकर समाप्त हुआ। महात्मा गांधी ने लिखा कि ‘‘भारत का वास्तविक जागरण बंगाल विभाजन के उपरान्त शुरु हुआ।‘‘
प्रश्न: ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा क्रांतिकारी आंदोलन के दमन के लिए कौन-कौनसे कानून बनाए गए? बताइए।
उत्तर: सरकार ने क्रांतिकारी आतंकवादियों खिलाफ कानून बनाएं, जिनमें प्रमुख थे –
1. विस्फोटक पदार्थ अधिनियम (Explosive Subsatnces Act), 1908
2. समाचार पत्र (अपराध प्रेरक) अधिनियम News Paper (Incitement of offences) Act), 1908
3. 1908 में केसरी, स्वराज्य, अरुणोदय, राष्ट्रमुख, काल, हिंद स्वराज्य, पंजाबी इत्यादि में से तीन समाचार-पत्रों पर मुकदमा चलाया गया और राजद्रोह के लिए उन्हें सजा दी गई।
4. भारतीय दण्ड विधि एवं फौजदारी (कानून संशोधन) अधिनियम (प्दकपंद ब्तपउपदंस स्ंू ।उमदकउमदज ।बज), 1908
5. भारतीय प्रेस अधिनियम (Indian Press Act), 1910
6. राजद्रोहात्मक सभा निवारण अधिनियम (Prevention of Seditious Meeting Act), 1911
7. भारत सुरक्षा अधिनियम (Defence of India Act), 1915
प्रश्न: स्वदेशी आंदोलन का भारतीय उद्योगों के विकास पर प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर: भारतीय पूंजीवादी उद्योगों को कांग्रेस द्वारा शुरु किए गए स्वदेशी आंदोलन से समर्थन मिला तथा इस आंदोलन के परिणामस्वरूप भारतीय सूती वस्त्रों की मांग बढ़ी तथा औद्योगिक केंद्रों में श्रम की मांग को बढ़ावा मिला। स्वदेशा आंदोलन में भारतीय पूंजी संग्रह में सहायता प्रदान की और पूंजीगत उद्योगों, व्यापारिक केंद्रों, व्यापारिक बैंकों और बीमा कंपनियों को प्रोत्साहन मिला। लाखों हस्तशिल्पियों एवं हजारों मिल मालिकों ने इस आंदोलन में सहायता प्रदान का परन्त स्वदेशी आंदोलन सम्पूर्ण देश को प्रभावित नहीं कर सका। राष्ट्रीय नेताओं का एक प्रमुख वर्ग इस आंदोलन विरूद्ध था। क्योंकि उनकों यह भय था कि ब्रिटिश उत्पादक भारतीयों के प्रति प्रतिशोध की भावना से उन्हें नई मिला के लिए मशीनरी तथा उत्पादन के अन्य साधन देने से इंकार कर देंगे। इसका परिणाम यह हुआ कि यह आदाला शक्तिशाली नहीं बन सका।
प्रश्न: स्वदेशी आंदोलन पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर: बंगाल विभाजन की योजना के साथ ही बंगाल में स्वदेशी एवं स्वराज की भावना बलवती हो उठी। लॉर्ड कर्जन के कार्यों का जवाब देने के लिए बंगाल के लोगों ने बहिष्कार तथा स्वदेशी का उपयोग इस आंदोलन का मुख्य नारा बन गया। बहिष्कार का मुख्य उद्देश्य पहले ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर आर्थिक दबाव डालना था, परंतु बाद में इसने असहयोग का रूख अपना लिया। इस नये आंदोलन में बंगाल के लगभग सभी वर्गों ने भाग लिया, लेकिन इसमें छात्रों की महती भूमिका रही। इस आंदोलन को सशक्त बनाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवकों को तैयार किया गया तथा जनसमितियां बनायी गयीं। जनसमह को सचेतता प्रदान करने में बारीसाल के पत्र ‘हितैषी‘ तथा कलकत्ता के ‘संजीवनी‘ ने जबर्दस्त भूमिका निभायी। इसके अलावा, जगह-जगह सभाओं का आयोजन कर लोगों में बहिष्कार एवं स्वदेशी की भावना को जाग्रत करने की कोशिश की गयी। समाज में विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने वालों को नीची निगाहों से देखा जाने लगा तथा उनके साथ असहयोगात्मक रवैया अपनाया जाने लगा। आंदोलन की व्यापकता को देखते हुए 1905 ई. में कांग्रेस ने भी विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। स्वदेशी आंदोलन को जनसमूह का अपार समर्थन दिलाने में रवींद्रनाथ टैगोर, विपिनचंद्र पाल तथा अरविंद घोष जैसे नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
प्रश्न: बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन ने किस प्रकार राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया।
उत्तर: बंगाल में 1905 में प्रारंभ हुआ स्वदेशी आंदोलन केवल आंदोलन था, जो इस दृष्टि से अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल रहा कि 1911 में बंगाल के विभाजन को रद्द कर दिया गया। इस आंदोलन की सफलता ने जहां भारतीय जनमानस में आंदोलन के महत्व को फैलाया, वहीं इस आंदोलन ने सम्पूर्ण भारत को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में बांधने में, जनआंदोलन के महत्व को समझाने में और उद्योग, शिक्षा, संस्कति. साहित्य तथा फैशन के क्षेत्र में स्वदेशी की भावना का संचार किया। इस आंदोलन से फैली उग्र राष्टीयता की भावना ने कांग्रेस पर नरम दल के प्रभाव को कम करने में और राष्ट्रीय आंदोलन में उग्र विचारधारा का वर्चस्व स्थापित करने में तथा आगे बढ़ने वाली क्रांतिकारी विचारधारा को बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

प्रश्न: सूरत विभाजन का राष्ट्रीय आंदोलन पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर: सूरत विभाजन का राष्ट्रीय आंदोलन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े जो हैं-
ऽ कांग्रेस की एकता पर प्रभाव, कांग्रेस मंच की एकता का कमजोर होना।
ऽ राष्ट्रीय राजनीतिक संघर्ष में शिथिलता की स्थिति का आना। सूरत विभाजन के बाद का काल राजनीतिक निष्क्रियता का काल था। ठोस राष्ट्रीय कार्यक्रमों व गतिविधियों का अभाव था।
ऽ अंग्रेजी सरकार पर राष्ट्रीय दबाव में कमी आ गयी। कांग्रेस मंच से राष्ट्रीय मांगों के प्रस्तुतीकरण व उसके अन्तर्गत दबाव में पतन की स्थिति।
ऽ कांग्रेस की दबाव की राजनीति में पतन।
ऽ 1909 ई. में लाये गये अधिनियम के अन्तर्गत लाये गये परिवर्तनों में कांग्रेस राष्ट्रीय आकांक्षाओं के अनरूप परिवर्तन लाने मे ब्रिटिश सरकार पर अधिक दबाव नहीं डाल सकी। 1909 ई. के अधिनियम के प्रावधानों ने भारतीय नेतृत्व को असन्तुष्ट किया।
ऽ स्वदेशी आन्दोलन का पतन। (कांग्रेस मंच का सहयोग मिलना बन्द हो जाने के कारण)
ऽ उग्रवादी राष्ट्रीय आंदोलन का पतन।
क्रान्तिकारी आंतकवाद के प्रथम चरण का उद्भव व विकास मुख्यतः उदारवादियों व उग्रवादियों की विफलता से उत्पन्न निराशा का परिणाम था। यह एक नवीन राजनीतिक विकल्प की खोज पर परिचायक था। सूरत- विभाजन ने दोनों की विफलताओं को स्पष्ट कर दिया न राष्ट्रीय संघर्ष की सीमाओं को स्पष्ट कर दिया।