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Categories: इतिहास

नटराज की मूर्ति किस काल में बनी , वंश से सम्बन्धित है नटराज की प्रसिद्ध कांस्य मूर्ति किस कला का उदाहरण है

नटराज की प्रसिद्ध कांस्य मूर्ति किस कला का उदाहरण है नटराज की मूर्ति किस काल में बनी , वंश से सम्बन्धित है ?

उत्तर : यह चोल वंश से सम्बंधित है |

चोल मूर्ति कला
चोल मंदिरों की सजावट में मूर्तियों पर विशेष महत्व का दिया जाना, चोल मंदिरों की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। चोल मूर्ति कला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण नृत्य मुद्रा में नटराज की मूर्ति थी। ऐहोल की रावनफाड़ी गुफा की मूर्ति से पता चलता है कि चालुक्य शासन के दौरान भी नटराज की मूर्ति बनायी गयी थी, परन्तु चोल शासन के दौरान ही यह अपने चरम पर पहुंची।
नटराज की मूर्ति की कुछ मुख्य विशेषताएं हैंः
ऽ ऊपरी दाहिने हाथ में डमरू है, जो सृजन की ध्वनि का प्रतीक है। संसार की सभी कृतियाँ डमरू की महान ध्वनि से ही सृजित हुई हैं।
ऽ ऊपरी बाएँ हाथ में शाश्वत अग्नि है, जो विनाश की प्रतीक है। विनाश सृष्टि का अग्रगामी (precursor) है और सृजन का अपरिहार्य प्रतिरूप है।
ऽ निचला दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है, जो आशीर्वाद दर्शाता है और भक्तों के लिए अभयता का भाव आश्वस्त करता है।
ऽ निचला बायाँ हाथ उठे हुए पैर की तरफ इशारा करता है और मोक्ष के मार्ग को दर्शाता है।
ऽ शिव यह तांडव नृत्य एक छोटे बौने की आकृति के ऊपर कर रहे हैं। बौना अज्ञानता और एक अज्ञानी व्यक्ति के अहंकार का प्रतीक है।
ऽ शिव की उलझी और हवा में बहती जटाएं गंगा नदी के प्रवाह की प्रतीक हैं।
ऽ शृंगार में, शिव के एक कान में पुरुष की बाली है जबकि दूसरे में महिला की बाली है। यह पुरुष और महिला के विलय का प्रतीक है और इसे अक्सर अर्द्ध-नारीश्वर के रूप में जाना जाता है।
ऽ शिव की बांह के चारों ओर एक साँप लिपटा हुआ है। सांप कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है, जो मानव रीढ़ की हड्डी में निष्क्रिय अवस्था में रहती है। अगर इस शक्ति को जगाया जाए तो मनुष्य सच्ची चेतना को प्राप्त कर सकता है।
ऽ शिव की यह नटराज मुद्रा प्रकाश के एक प्रभामंडल से घिरी हुई है जो समय के विशाल अंतहीन चक्र का प्रतीक है।

दक्षिण-भारतीय कला

दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला
जिस तरह से उत्तर भारत में विभिन्न उप-शैलियों के साथ नागर शैली विकसित हुई, उसी प्रकार दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला की एक विशिष्ट शैली विकसित हुई।
दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन की देखरेख में शुरू हुई। पल्लव वंश के दौरान बनाये गए मंदिरों में व्यक्तिगत शासकों की अलग-अलग शैलियां परिलक्षित होती हैं। इन्हें कालक्रम के अनुसार चार चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

1. महेंद्र समूह
यह पल्लव मंदिर वास्तुकला का पहला चरण था। महेन्द्रवर्मन के ‘शासन में चट्टानों को काटकर मंदिरों का निर्माण किया गया था। इस दौरान मंदिरों को मंडप कहा जाता था, जबकि नागर शैली में मंडप का मतलब केवल सभा-हॉल होता था।

2. नरसिंह समूह
इसे दक्षिण भारत में मंदिर स्थापत्य के विकास का दूसरा चरण कहा जाता है। चट्टानों को काटकर बनाये गए इन मन्दिरों को आकर्षक उत्कृष्ट मूर्तियों द्वारा सजाया गया है। नरसिंहवर्मन के शासन में मंडप को अलग-अलग रथों में विभाजित किया गया। सबसे बड़े भाग को धर्मराज रथ कहा जाता था और सबसे छोटे भाग को द्रौपदी रथ कहा जाता था। वास्तुकला की द्रविड़ शैली में मंदिर की बनावट धर्मराज रथ की परवर्ती है।

3. राजसिंह शैली
राजसिंहवर्मन ने मंदिर निर्माण विकास के तीसरे चरण का नेतृत्व किया। इस दौरान मंदिरों की वास्तविक संरचना का विकास प्रारम्भ हुआ।
उदाहरणः महाबलीपुरम का समुद्र तटीय मंदिर, कांचीपुरम का कैलाशनाथ मंदिर, आदि।

4. नंदीवर्मन शैली
पल्लव वंश के दौरान मंदिर निर्माण के इस चैथे चरण का विकास हुआ। इस दौरान बनने वाले मंदिर आकार में छोटे थे। अन्य विशेषताएं द्रविड़ शैली जैसी ही थीं।
पल्लव वंश के पतन के बाद चोल शासकों के काल में मंदिर वास्तुकला की एक नई शैली विकसित हुई, जिसे मंदिर स्थापत्य की द्रविड़ शैली के रूप में जाना जाता है। इसे दक्षिण भारत में मंदिरों के निर्माण में एक नया युग माना जाता है। इसके बाद इस क्षेत्र में तीन अन्य शैलियों का विकास हुआ-वेसर शैली, नायक शैली और विजयनगर शैली।

चोल कला

मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली
चोल शासकों के संरक्षण में दक्षिण भारत में सैकड़ों मंदिर बनवाए गए। इनमें पल्लव वास्तुकला की निरंतरता थी पर साथ ही कुछ बदलाव भी थे। इसे मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली के रूप में जाना जाने लगा। द्रविड़ शैली की विशेषताएं हैंः
ऽ नागर मंदिरों के विपरीत, द्रविड़ शैली के मंदिर ऊँची चारदीवारी से घिरे होते थे।
ऽ सामने की दीवार में एक ऊँचा प्रवेश द्वार होता था, जिसे गोपुरम कहा जाता था।
ऽ मंदिर परिसर का निर्माण पंचायतन शैली में किया जाता था। जिसमें एक प्रधान मंदिर तथा चार गौण मंदिर होते थे।
ऽ द्रविड़ शैली के मंदिरों में पिरामिडनुमा शिखर होते थे जो घुमावदार नहीं बल्कि ऊपर की तरफ सीधे होते थे। शिखर को विमान कहा जाता था।
ऽ विमान के शीर्ष पर एक अष्टकोण आकार का शिखर होता था। यह नागर मंदिर के कलश के समान है लेकिन यह गोलाकार नहीं होता था।
ऽ द्रविड़ वास्तुकला में केवल मुख्य मंदिर के शीर्ष पर विमान होता था। इसमें नागर वास्तुकला में विपरीत अन्य सहायक मंदिरों पर विमान नहीं होता था।
ऽ सभा-हॉल गर्भ गृह से एक गलियारे द्वारा जुड़ा होता था, जिसे अंतराल कहा जाता था।
ऽ गर्भ गृह के प्रवेश द्वार पर द्वारपाल, मिथुन और यक्ष की मूर्तियाँ होती थीं।
ऽ मंदिर परिसर के अंदर एक जलाशय की उपस्थिति द्रविड़ शैली की एक अद्वितीय विशेषता थी।
उदाहरणः तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर (1011 ईस्वी में राजराज द्वारा निर्मित), गंगईकोंड चोलपुरम मंदिर (गंगा डेल्टा में अपनी जीत के उपलक्ष्य में राजेंद्र प्रथम द्वारा निर्मित), आदि।

 

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