हिंदी माध्यम नोट्स
धन निष्कासन से आप क्या समझते हैं ? अंग्रेजों के धन निष्कासन नीति के परिणाम लिखिए , सिद्धांत कब और किसने प्रतिपादित किया
जानकारी – निष्कासन से आप क्या समझते हैं ? अंग्रेजों के धन निष्कासन नीति के परिणाम लिखिए , सिद्धांत कब और किसने प्रतिपादित किया ?
प्रश्न: धन-निष्कासन से आप क्या समझते हैं ? धन निर्गमन के लिए अंग्रेजों ने कौन-कौनसे तरीके अपनाएं ? क्या धन-निर्गमन का प्रवाह समय के साथ-साथ आरोही रूप से बढ़ता चला गया?
अथवा
ब्रिटेन को निधियों के एकपक्षीय अंतरण करने की आवश्यकता एक अपरिवर्ती कारक था, और तथ्य तो यह है कि यह कारक समय गुजरने के साथ-साथ आरोही रूप से बढ़ता चला गया।
उत्तर: वस्तुतः वह धन जो भारत से इंग्लैण्ड को भेजा जाता था और जिसके बदले भारत को कुछ प्राप्त नहीं होता था, वही सम्पदा का निष्कासन (अप्रतिदत-निर्यात) कहलाया। इसका एक माध्यम ‘अतिरिक्त निर्यात व्यापार‘ था। भारत से प्राप्त होने वाले धन से ही माल खरीदकर अंग्रेज व्यापारी इन्हें इंग्लैण्ड और दूसरी जगहों में भेजते थे। इस प्रकार अंग्रेज दोनों तरह से सम्पत्ति प्राप्त कर रहे थे। व्यापार से भारत को किसी प्रकार का धन प्राप्त नहीं होता था। भारत से स्वदेश जाने वाले अंग्रेज अपने साथ पर्याप्त धन ले जाते थे।
कम्पनी के कर्मचारी वेतन, भत्ते, पेंशन आदि के रूप में पर्याप्त धन इकट्ठा कर इंग्लैण्ड ले जाते थे। यह धन न सिर्फ सामान के रूप में था बल्कि धातु (सोना, चांदी) के रूप में भी पर्याप्त धन इंग्लैण्ड भेजा गया। इस धन निर्गम को इंग्लैण्ड एक ‘अप्रत्यक्ष उपहार‘ समझकर प्रतिवर्ष भारत से साधिकार ग्रहण करता था।
भारत में अंग्रेजी सत्ता बंगाल पर अधिकार करने से प्रारम्भ हुई और 1757 ई. से वहीं से धन निष्कासन भी प्रारम्भ हुआ और उसके बाद सम्पदा के निष्कासन में उत्तरोत्तर (आरोही) वृद्धि होती चली गयी।
एक अनुमान के अनुसार 1757-65 के बीच 60 लाख पाउण्ड की रकम इंग्लैण्ड ले जाई गई। 1765 ई. में जब कम्पनी को बंगाल की दीवानी प्राप्त हुई तो धन प्राप्ति के अतिरिक्त स्त्रोत खुल गए। बंगाल से प्राप्त धन को निवेश कर लाभ प्राप्त करना शुरू हुआ। इससे व्यापार तथा ‘निवेश‘ दोनों ओर से लाभ हुआ, और बदले में भारत को कुछ नहीं मिला। जैसे-जैसे अंग्रेजी सत्ता का विकास होता गया, वैसे-वैसे कम्पनी के धन निवेश और धन निष्कासन में वृद्धि होती गई। गह प्रभार का खर्च, सार्वजनिक भारतीय ऋण व्यय, सुरक्षा के लिए सैनिकों पर किया गया व्यय, इत्यादि मदों के रूप में भारत को पर्याप्त धन इंग्लैण्ड को चुकाना पड़ता था।
1858 ई. के पश्चात कम्पनी के ऋण को भारत का ही ऋण मान लिया गया। रेलों, बैंकों, उद्योगों के द्वारा भी भारत का अधिकांश धन इंग्लैण्ड ले जाया गया। जार्जर विनगेर के अनुसार 1834-51 के बीच भारत से प्रतिवर्ष 42,21,611 पाउण्ड प्रतिवर्ष की दर से धन इंग्लैण्ड भेजा गया। आर.सी.दत्त ने 1883-92 के बीच यह राशि 359 करोड़ आंकी है तथा एक अनुमान के मुताबिक 1860-1900 के बीच 40 करोड़ प्रतिवर्ष की दर से धन इंग्लैण्ड को भेजा गया। वस वास्तविक रूप से इस धन निर्गमन का अनुमान नहीं लगाया जा सकता परन्तु इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि इस निष्कासित धन की मात्रा दिनो-दिन बढ़ती गई जिसका भारतीय विपन्नता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान था।
प्रश्न: अंग्रेजों की शिक्षा नीति क्या थी ? आंग्ल-प्राच्य विवाद के संदर्भ में उन्होंने आंग्ल विचारधारा को ही पोषित क्यों किया ? यह उनेक उद्देश्यों में कहां तक सफल रही ? विवेचना कीजिए।
अथवा
‘‘प्राच्यता (ओरिएंटेलिज्म) ने औपनिवेशिक राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए भूतकाल के ज्ञान का सृजन किया।‘‘ विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: प्राच्यता ने निश्चित रूप से औपनिवेशिक हितों के संरक्षण में सहयोग दिया क्योंकि अंग्रेज यहां की सभ्यता, रीति-रिवाज, भाषा आदि को समझने से असमर्थ थे इसलिए वे एक ऐसा वर्ग बनाना चाहते थे जो शिक्षित होकर उनके हितों की पूर्ति कर सके।
प्राच्यविद् भारतीय सभ्यता की महत्ता में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि भारतीय सभ्यता पाश्चात्य सभ्यता से किसी मायने से कम नहीं हैं परन्तु उन्होंने पाश्चात्य विचारों एवं अनुभवों से परिचय की आवश्यकता को भी स्वीकार किया। लेकिन सावधानीपूर्वक एवं धीरे-धीरे संशोधित रूप को ही अपनाने पर बल दिया।
इसी सोच के कारण जब आंग्ल-प्राच्य विवाद बढ़ा तो लार्ड मैकाले ने 1935 में अपने शिक्षा सम्बन्धी स्मरण पत्र में यह निर्णय दिया कि पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान से भारतीयों को परिचित कराने के लिए अंग्रेजी भाषा का ही इस्तेमाज किया जायेगा। उस समय शिक्षित भारतीयों से यह अपेक्षा की गई थी कि वे अपने ज्ञान का प्रसार जनता के बीच करेंगे। भारत में अंग्रेजों की सरकारी शिक्षा नीति का उद्देश्य आम नागरिकों को शिक्षित व जागरूक बनाना नहीं रहा। दरअसल उनका उद्देश्य कुछ भारतीयों को शिक्षित कर, उनसे अपने काम में सहयोग लेना था ताकि भारत की शासन व्यवस्था वे अबाध रूप से संचालित कर सकें। मैकाले का मुख्य उद्देश्य ऐसे भारतीयों का निर्माण करना था जो रंग में तो काले या भूरे हों लेकिन रुचि, स्वभाव व सभ्यता के मामले में अंग्रेज हों, अर्थात् ऐसा व्यक्ति जो भारतीय होते हुए भी भारतीयता के प्रति आस्था न रखकर अग्रेजी संस्कृति और रहन-सहन में आस्था रखता हो।
इस नीति पर चलकर अंग्रेज प्रशासक ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में भारतीयों को निम्न पद और न्यूनतम वेतन पर रखने में सफल हो सके। इसके बावजूद भी ये भारतीय, ब्रिटिश वस्तुओं के आदर्श उपभोक्ता और ब्रिटिश प्रशासन के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान बने रहे। ब्रिटिश प्रशासन पाश्चात्य शिक्षा के मार्ग पर चलकर ही भारतीयों का सहयोग लेने में सफल हो सका परन्तु बाद में चलकर यही शिक्षित भारतीय अंग्रेजों का प्रबल विरोधी बन गया, जब उसे अंग्रेजी शासन की शोषणकारी एवं विभेदकारी नीतियों का ज्ञान हुआ।
निश्चित रूप से अंग्रेजों का यह प्रयास सफल रहा। अंग्रेजी शिक्षित वर्गों का सहयोग लेकर वह अपने साम्राज्य को कुछ और अधिक समय तक विस्तार दे सका। अपने औपनिवेशिक हितों की पूर्ति करता रहा।
प्रश्न: “उन्नीसवीं शताब्दी के भारत में श्देशी भाषा प्रेसश् ने न केवल समाचार पत्रों के रूप में सेवा की थी, बल्कि इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण रूप से विचार-पत्रों के रूप में सेवा की थी।‘‘ टिप्पणी कीजिए।
उत्तर: देशी भाषा प्रेस ने भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों के प्रकाशन को आसान बना दिया था। इसी कारण अनेक देशी भाषा के समाचार पत्रों का सम्पादन किया जाने लगा। राष्ट्रवादी समाचार पत्र-पत्रिकाओं की भरमार हो गई। प्रेस जनता तथा सरकार का प्रतिबिम्ब तथा आइना था। इसके माध्यम से सम्पूर्ण शिक्षित वर्ग जागरूक होता गया।
इस समय प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में प्रमुख थे बंगाल गजट, दिग्दर्शन, संवाद कौमुदी, मिरातुल-अखबार, समाचार चंद्रिका, रश्त गोफ्तार, टाइम्स ऑफ इण्डिया, हिन्दू पैट्रियॉट, अमृत बाजार पत्रिका, सोमप्रकाश, बंगवासी, काल, मराठा, केसरी, नवजीवन, यंग इण्डिया आदि। ये समाचार पत्र विभिन्न देशी भाषा में सम्पादित होते थे जिनसे हर भाषा-भाषी व्यक्ति राष्ट्रवादी नीतियों की जानकारी प्राप्त कर सकता था।
प्रारम्भ में अनेक समाचार पत्रों का विषय और धर्म समान रहे परन्तु बाद में इनमें राजनीतिक समस्याएँ और सरकारी कर्मचारियों से संबंधित चर्चाएँ भी छपनी आरम्भ हो गई। यद्यपि अनेक समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध आरोपित किया गया था परन्तु वे अपने उत्तरदायित्वों की पूर्ति करने में काफी हद तक सफल रहे।
उनका प्रमुख कर्तव्य विदेशी सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों और कार्यों से भारतीय नागरिकों को अवगत कराना था। इस कार्य की पूर्ति उन्होंने अनेक बाधाओं के होते हुए भी की। भारतीय जनमत को विदेशी सरकार के विरुद्ध दृढ करने में भारतीय प्रेस ने बहुत मदद की।
राष्ट्रवादी समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं ने देशभक्ति के संदेश और आधुनिक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों को प्रसारित किया, राष्ट्रीय दृष्टिकोण को सामने रखा और अखिल भारतीय चेतना का सृजन किया। इससे देश के विभिन्न भागों में रहने वाले राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं को परस्पर विचार-विनिमय में सहायता दी।
क्रान्तिकारी देशभक्तों को उभारने में भारतीय प्रेस तथा समाचार पत्रों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसी का परिणाम रहा कि देश के आम नागरिकों को ब्रिटिश शोषणकारी नीतियों का ज्ञान हुआ, महिलाओं ने अपनी चहारदीवारी लाँघकर स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। युवा वर्ग तथा शिक्षित वर्ग तो पहले से ही तैयार बैठा था। इससे ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिल गई और उसके अन्याय की पोल खुल गई। फलस्वरूप उन्हें भारत छोड़कर जाना पड़ा।
प्रश्न: ब्रिटिशकालीन भू-राजस्व व्यवस्था का उल्लेख करते हुए इसके भारतीय जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करें।
उत्तरः भारत में नवीन उपनिवेश स्थापित करने के पश्चात् कम्पनी को अपने स्थायित्व हेतु एवं राजनैतिक सुदृढ़ता हेतु नियमित भू-राजस्व की आवश्यकता थी। परन्तु अत्यधिक भू-राजस्व प्राप्ति के लिए भारत की परम्परागत व्यवस्थाएँ अनुकूल नहीं थी अतः नवीन भू-राजस्व व्यवस्था का प्रबन्धन किया गया जिनमें स्थायी बन्दोबस्त, महालवाड़ी और रैयतवाड़ी प्रमुख थीं। स्थायी बन्दोबस्त का प्रथम विचार फिलिप फ्रांसिस ने 1776 ई. में प्रस्तुत किया जिसे पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा मान्यता दे दी गई। कार्नवालिस ने सर्वप्रथम 1783-1793 ई. के मध्य 10 वर्षीय बन्दोबस्त, लागू किया जिसमें शर्त यह थी कि बन्दोबस्त निश्चित रूप से 10 वर्षों तक जिस व्यक्ति के साथ किया जाए, यदि कोर्ट इसे मान्यता दे तो स्थायी बना दिया जाए। कार्नवालिस ने जमींदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार किया।
स्थायी बन्दोबस्त में स्थायी राजस्व वसूलने पर बल दिया गया एवं परम्परागत जमींदारों को हुआकर नए दूरस्थ जमींदारों को स्थापित करने की नीति बनायी गयी। इससे परम्परागत जमींदारों की भूमि नीलाम हो गई और दूरस्थ जमींदारों के आगमन से राजस्व वसूली के लिए मध्यस्थों की भूमिका को मान्यता दी गई। इससे कृषक व जमींदारों के मध्य बिचैलिए हो गए। दूरस्थ जमींदार को कृषकों से राजस्व वसूलने के लिए 1799 ई. के रेग्यूलेशन द्वारा कृषकों की सम्पत्ति कुर्क करने का अधिकार दिया गया। इस व्यवस्था को बंगाल, बिहार, उडीसा एवं इसके समीपवर्ती क्षेत्रों के 19ः भू-भाग पर लाग किया गया। स्थायी बन्दोबस्त में 89ः राजस्व भाग सरकार का और 11ः राजस्व भाग जमींदारों का निर्धारित किया गया। स्थायी बन्दोबस्त के कारण जहाँ एक ओर ब्रिटिश सरकार निश्चित वार्षिक आय और समर्थित जमींदार वर्ग प्राप्त हुआ वहीं बिचैलियों के उदय से कृषकों का शोषण बढ़ा और महाजनों के प्रभाव से वे लगातार ऋणग्रस्त होते गए।
कम्पनी प्रशासकों ने एक अन्य व्यवस्था रैयतवाड़ी का प्रयोग मद्रास से प्रारम्भ किया जिसे कर्नल रीड और थॉमस मुनरों द्वारा प्रोत्साहित किया गया था। इस लगान व्यवस्था के अन्तर्गत ‘कृषि उपज का अधिशेष राजस्व के रूप में‘ कम्पनी को लेना था। यह कृषकों के साथ किया गया समझौता था। इसमें बिचैलिया वर्ग अनुपस्थित था। यह बन्दोबस्त युवा अधिकारियों में अधिक लोकप्रिय हुआ क्योंकि उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का पर्याप्त अवसर प्राप्त हुआ। परन्तु इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार भी व्यापक था। लगान की दर सीधे कृषकों से 50ः रखी गई तथा इसे मद्रास, बम्बई एवं मध्य क्षेत्र के भागों पर ब्रिटिश भारत के लगभग 51ः भू-भाग पर लागू किया गया था।
इस व्यवस्था द्वारा कृषकों को सीधे ही भूमि का स्वामी मान लिया गया एवं बिचैलिया वर्ग की समाप्ति हो गई। परन्तु इस व्यवस्था से भी कृषकों को पर्याप्त राहत प्राप्त नहीं हुई क्योंकि इसमें भी महाजनों पर आश्रितता बनी रही, जिससे कृषक वर्ग लगातार ऋणग्रस्तता का शिकार होता रहा।
एक अन्य व्यवस्था के रूप में पश्चिमोत्तर भारत एवं पंजाब में महालवाड़ी को लागू किया गया। जिसके प्रवर्तक हॉल्ट मैकेन्जी थे। यह स्थायी बन्दोबस्त का संशोधित रूप था जिसमें भूमि बन्दोबस्त गाँव के मुखिया से किया जाता था। इसे 1822 ई. के रेग्यूलेशन टप्प् द्वारा कानूनी मान्यता दी गई। 1833 ई. में रेग्यूलेशन टप्ट के द्वारा भूमि उपज एवं राजस्व अनुमान की पद्धति को सरल बनाया जिसके अन्तर्गत भूमि एवं फसल की कोटियों का विभाजन किया गया और पहली बार राजस्व निर्धारण के लिए मानचित्रों एवं दस्तावेजों का प्रयोग किया गया। वह ब्रिटिश भारत के 30ः भू-भाग पर लाग की गई।
इस व्यवस्था से सरकार को यह लाभ हुआ कि वह वसूली अधिकारियों के ऊपर होने वाले खर्च से बच गई. साथ ही कृषकों को भी भ्रष्ट अधिकारियों से मुक्ति मिल गई।
ब्रिटिश कम्पनी की ये आर्थिक नीतियाँ अत्यधिक धनार्जन के उद्देश्य से निर्मित की गई थी। इन नीतियों के प्रभावी होने से भारत की शहरी एवं ग्रामीण आर्थिक संरचना प्रभावित हुई। इससे उत्पादन प्रक्रिया तो अवरुद्ध हो ही गई साथ ही सामाजिक आधार भी अप्रासंगिक हो गया।
शहरी उद्योगों के नष्ट हो जाने से इन वर्गों का भी दबाव भूमि पर पड़ा जिससे भूमि विखण्डन बड़ा, पारिवारिक विवादों में वृद्धि हुई, ग्राम संघर्ष की पृष्ठभूमि निर्मित हुई तथा ग्रामीण गणतंत्र की अवधारणा नष्ट हो गई। अन्ततः गरीबी, ऋणग्रस्तता. बेरोजगारी जैसी अवस्थाएँ उत्पन्न हुई।
इस तरह यह भी माना जा सकता है कि ब्रिटिश औपनिवेशक प्रणाली ने भारतीय भू-राजस्व व्यवस्था का स्वरूप परिवर्तित कर न सिर्फ इस अपने अनुकूल बनाया बल्कि भारतीयों के विकास एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता को भी समाप्त कर दिया।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…