चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ?
चाहमान (चौहान) राजवंश
राजस्थान के क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के पतन के पश्चात् चाहमान राजवंश का दिखाई देता है। यद्यपि चाहमान इससे पूर्व ही सातवीं शताब्दी से अजमेर के उत्तर में सांभर झी आस-पास के क्षेत्र, जिसे शाकम्भरी (समादल) कहा जाता था, में राज्य करते थे, लेकिन प्रतिहारों के के पश्चात् इस राजवंश ने भारतवर्ष में विशाल साम्राज्य की स्थापना की चाहमान वंश की गणना राज के अत्यन्त महत्वपूर्ण राजवंशों में की जाती है।
उत्पत्ति = चौहानों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित है जयानक द्वारा रचित पृथ्वी विजय (12 वीं शताब्दी ई.) में सूर्यवंशी बताया गया है आबू शिलालेख (19205) में चंद्र वशी टॉड ने इनकी उत्पत्ति विदेशों में बतायी है। कुक ने इन्हें अग्नि से उत्पन्न बताया है, पृथ्वीराज रा मी अग्निवंशी उत्पत्ति का उल्लेख है आसोपा ने झील के चारों ओर (बाहुमान) क्षेत्र में रहने के क चाहमान कहा है।
मूल स्थान = हर्षनाथ अभिलेख (ई) में चौहानों की प्राचीन राजधानी अनन्त प्रदेश (सीकर निकटवर्ती क्षेत्र) में थी और यहीं चौहानों के देवता हर्षनाथ का मंदिर है। हम्मीर महाकाव्य एवं सुरजन चाहमानों की जन्म भूमिं पुष्कर मानते हैं। इससे स्पष्ट हैं कि चाहमानों का आरम्भिक राज्य दक्षिण में से लेकर उत्तर में हर्ष (सीकर) तक विस्तृत था।
प्रारम्भिक शासक = शाकम्भरी (संपादलक्ष) के चाहमानों की वंशावली के आधार पर इस राज संस्थापक वासुदेव था। इसके परवर्ती काल में इस वंश में गोपेन्द्रराज, गूवक प्रथम वाक्पतिराज सिंहराज, विग्रहराज द्वितीय गोविन्दराज तृतीय, विग्रहराज तृतीय आदि प्रतापी शासक हुए चौहान साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया विग्रहराज तृतीय के उसका पुत्र पृथ्वीराज प्रथम शासक बना। इसका शिलालेख (1105 ई.) सीकर जिले के रेवासा निकट जीणमाता मंदिर से प्राप्त हुआ है। यह प्रतिभाशाली शासक था इसकी मृत्यु के पश्चात् पुत्र अजयराज (1105 ई. 1133 ई.) शासक बना। इसके द्वारा गर्जन मातंगों पर की गई विज उल्लेख मिलता है। नागौर पर अधिकार करने के लिए गजनी के शासक प्रयासरत थे, किन्तु उन्हें सीमाओं में रहने के लिए अजयराज ने विवश किया।
अजमेर की स्थापना = अजयराज चौहान ने अपने नाम के आधार पर ‘अजयमेरू (अजमेर) बसाया, और इसे अपनी राजधानी बनाया मुस्लिम आक्रमणकारियों के विरूद्ध सामरिक दृष्टि से का राजधानी के रूप में निर्माण अजयराज की दूरदर्शिता का ज्वलंत प्रमाण है 1133 ई. में अ अर्णोराज को गद्दी पर बैठा कर स्वयं सन्यासी बन गये।
तुर्कों पर विजय अर्णोराज (1133 ई. 1153 ई.) के तुर्कों ने नागौर को केन्द्र बनाकर निकटवर्ती क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करने के प्रयास प्रारम्भ किये और अजमेर तक पहुँच गये अन्नासागर झील के स्थान पर अनराज तथा तुर्की के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध में तुर्की सेना का भीषण संहार हुआ। अर्णोराज ने उनके अश्व छीन लिये तथा अपमानित होकर जान बचाकर कुछ शेष बचे तुर्क भाग गये। इस युद्ध में तुर्कों को चौहान शक्ति का वास्तविक परिचय मिला तथा उनका इससे इतना मनोबल गिरा कि आने वाले 20 वर्षों तक सपादलक्ष की ओर देखने का साहस नहीं हुआ। अर्णोराज के पश्चात् विग्रहराज चौहान चतुर्थ (1153-64 ई.) शासक बना विग्रहराज ने चौहान शक्ति को चरम शिखर पर पहुँचा दिया। दिल्ली पर तोमर वंशी राजपूतों का शासन था और इन तोमर शासकों ने हाँसी को गजनी के तुर्कों से छीन लिया था। 1157 ई. में विग्रहराज चतुर्थ ने तोमरों को युद्ध में परास्त करके दिल्ली तथा हाँसी पर अधिकार कर लिया, तत्पश्चात् संधि द्वारा तोमर, चौहानों के सामन्त बन गये।
दिल्ली तथा हाँसी पर विग्रहराज चतुर्थ का आधिपत्य स्थापित हो जाने से चौहान साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा लाहौर के यामिनी मुस्लिम शासकों के राज्य की सीमा से स्पर्श करने लगी। दिल्ली – शिवालिक स्तंभलेख में अंकित है कि चाहमान शासक विग्रहराज चतुर्थ मुसलमानों से देश की रक्षा करने के दायित्व को भली भांति समझता था और उसने उनका आर्यावर्त से मूलोच्छेदन कर दिया विग्रहराज ने गजनी के शासक ‘खुशरूशाह को युद्ध में परास्त कर यहाँ से भगा दिया था।
मुस्लिम आक्रमणकारियों की यह एक सामान्य प्रवृत्ति दिखाई देती है, कि युद्ध में पराजित, अपमानित होने के बाद भी उन्होंने अपनी आक्रामक नीतियों में परिवर्तन नहीं किया ये चौहान साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए कुछ समय पश्चात् ही पुनः आ गये विग्रहराज से पुनः मुस्लिम आक्रमणकारियों को परास्त होना पड़ा। स्पष्ट है कि विग्रहराज चतुर्थ ने मस्लिम आक्रमणकारियों के विरूद्ध निरंतर सफल अभियान किये विग्रहराज चतुर्थ के पश्चात् अपरगा पृथ्वीराज द्वितीय तथा सोमेश्वर, चौहान वंश के शासक बने। सोमेश्वर की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र पृथ्वीराज तृतीय चौहान वंश का शासक बना।
पृथ्वीराज तृतीय (1177 ई. 1192 ई.)
सिंहासन ग्रहण करते समय पृथ्वीराज तृतीय की आयु 15 वर्ष थी उसने एक वर्ष तक माता
कर्पूर देवी के संरक्षण में शासन किया। 1178 ई. में पृथ्वीराज तृतीय ने शासन की वास्तविक बागडोर संभाली उच्च पदों पर उसने अनेक योग्य एवं विश्वस्त अधिकारियों को नियुक्त किया, तत्पश्चात् अपनी विजय नीति को क्रियान्वित करने का बीड़ा उठाया। पृथ्वीराज की विजय नीति के तीन पहलू थे प्रथम, जिसमें उसे अपने स्वजनों के विरोध से मुक्ति- प्राप्त करना था द्वितीय साम्राज्य विस्तार या दिग्विजय की भावना थी जिसमें उसे प्राचीन हिन्दू शासकों की भांति पड़ोसी राज्यों पर अधिकार स्थापित करना था तृतीय- विदेशी शत्रुओं को परास्त करना था।
साम्राज्य विस्तार
पृथ्वीराज विजयें = तृतीय प्रारंभिक पृथ्वीराज तृतीय जब चौहान राज्य का शासक बना, तभी उसके चचेरे भाई नागार्जुन ने विद्रोह कर दिया। पृथ्वीराज की अल्पवयस्कता ने उसे और अधिक महत्वाकांक्षी बना डाला था। विद्रोह स्वरूप नागार्जुन ने गुडगाँव पर अपना अधिकार कर लिया। पृथ्वीराज ने सेना की एक टुकड़ी भेज कर नागार्जुन को परास्त किया तथा विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन किया।
सतलज प्रदेश से आने वाली एक जाति थी, जो गुड़गांव एवं हिसार के निकटवर्ती क्षेत्र में बस. गदी थे। इनका प्रभाव अलवर, भरतपुर एवं मथुरा के आस-पास बढ़ता जा रहा था। ये अपने आपको स्वतंत्र म रहे थे। पृथ्वीराज तृतीय के लिए अपने साम्राज्य का विस्तार करने से पूर्व इनका दमन करना अत्य था। इसलिए उसने भण्डानकों की बस्तियों को जगह-जगह पर घेर लिया तथा शक्ति के बल पर उन आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य किया
दिग्विजय अभियान प्रारम्भिक विजयों से पृथ्वीराज का उत्साह बढ़ गया और उसने अपने साम्रा का विस्तार करना प्रारंभ किया। उसका यह साम्राज्य विस्तार प्राचीन भारतीय सम्राटों की तरह दि अभियान था। पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमाएँ उत्तर में मुस्लिम राज्य, दक्षिण-पश्चिम में गुज तथा पूर्व में चन्देलों के राज्य से जा मिली थी चन्देलों से परे कन्नोज में गहड़वाल राज्य था। अतः पृथ्वीराज अपने साम्राज्य के निकट स्थित राज्यों से बारी बारी एक-एक से निपटना चाहता था।
1. महोबा विजय मण्डानकों के दमन के पश्चात् पृथ्वीराज के राज्य की पूर्वी सीमा चन्देलों के की सीमा से मिल गयी। चन्देलों के राज्य में बुन्देलखण्ड, जेजाकमुक्ति, महोबा आदि क्षेत्रों का ि भू-भाग सम्मिलित था 1182 ई. में पृथ्वीराज ने महोबा पर आक्रमण कर दिया चन्देल शासक परम ने वीर सेना नायक आल्हा एवं ऊदल की सहायता से पृथ्वीराज का सामना किया लेकिन परास्त हु फलस्वरूप महोबा राज्य का विस्तृत भू-भाग पृथ्वीराज के हाथ लगा।
परिणाम इस दिग्विजय ने चन्देलों की प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया तथा चौहानों की सत्ता के को परिवर्धित किया, लेकिन चौहान इस विजय से कोई स्थायी लाभ नहीं उठा सके उल्टे ल शत्रुभाव स्थापित हो गया, जिन्होंने कन्नौज के गहड़वजों से मिलकर पृथ्वीराज के विरुद्ध एक ग बना लिया। इससे अपने राज्य की सुरक्षा के लिए वीराज को अपने साम्राज्य के पूर्व में सेना का ज बनाये रखना पड़ा, जो आर्थिक दृष्टि से महंगा सिद्ध हुआ। अतः राजनीतिक दृष्टि से महोबा दि अभियान की सफलता भी असफल ही रही
2. चालुक्य चौहान संघर्ष गुजरात के चालुक्यवंशी भीमदेव द्वितीय को राज्य पृथ्वीराज के साम्राज्य के दक्षिण-पश्चिम में विशाल भू-भाग में विस्तृत था नाडील के चौहान और आबू के पर चालुक्य शासक भीमदेव के सामन्त थे पृथ्वीराज का साम्राज्य भी दक्षिण में नाडौल तक फैला हुआ अर्थात् चौहान और चालुक्य राज्यों की सीमाएँ मारवाड़ क्षेत्र में मिलती थी चालुक्य शाकम्भरी तक अ साम्राज्य विस्तार करना चाहते थे, ऐसी स्थिति में चालुक्य चौहान संघर्ष होना स्वाभाविक था। दोनों राज की सीमाओं का मिलना और दोनों शासकों का महत्वाकांक्षी होना, दोनों में वैमनस्य का कारण बना। स्थिति में सीमाओं पर सैनिक स्तर की छोटी-मोटी झड़पें होना साधारण बात थी 1187 ई. में पृथ्वी चौहान ने गुजरात के चालुक्यवंशी भीमदेव द्वितीय के राज्य पर आक्रमण किया, लेकिन कुछ समय पर -दोनों में मैत्री संधि हो गयी इस संधि से परम्परागत वैमनस्य समाप्त नहीं हुआ दोनों एक दूसरे के फ के अपेक्षी बने रहे अर्थात् मैत्री संधि से मित्रता स्थापित नहीं हुई।
3. चौहान – गहड़वाल वैमनस्य धौहान साम्राज्य के उत्तर-पूर्व में कन्नौज का गहड़वाल राज्य था। इन दोनों राज्यों में वैमनस्य का मुख्य कारण दिल्ली पर चौहानों का अधिकार था। गहड़वाल जयचन्द्र भी दिल्ली की ओर अपना साम्राज्य विस्तार करना चाहता था। इनमें संघर्ष का मूल कारण की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं में टकराव था पृथ्वीराज तृतीय ने बुंदेलखण्ड के चन्देलों, भण्डानको के विरुद्ध सफल आक्रामक नीति अपनायी, जिससे भी जयचन्द्र के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी। की सफलताएँ दूसरे के लिए चुनौती स्वरूप थी इस प्रकार की स्थिति में दोनों में वैमनस्य का स्वाभाविक था। अन्त में अत्यधिक कटुता का कारण यह बना कि पृथ्वीराज तृतीय ने जयचन्द्र की 57 संयोगिता का बलपूर्वक अपहरण कर उससे विवाह कर लिया।