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चौखंबा सिद्धांत क्या था , चौखम्बा योजना किसके द्वारा दी गयी थी ? चौखंबा राज्य का संबंध किस विचारक से है

जाने चौखंबा सिद्धांत क्या था , चौखम्बा योजना किसके द्वारा दी गयी थी ? चौखंबा राज्य का संबंध किस विचारक से है ?

प्रश्न: राम मनोहर लोहिया के वैचारिक सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
उत्तर: राममनोहर लोहिया ने निम्न दो सिद्धान्त दिए –
(i) चैखंबा सिद्धान्त (ii) नया समाजवाद का सिद्धान्त
(i) चैखंबा सिद्धान्त : लोहिया के अनुसार भारत में शासन के 4 पटल केन्द्रीय, प्रान्तीय, जिला प्रशासन, गाँव का प्रशासन है। लेकिन निचले दो स्तरों पर नौकरशाही की आवश्यकता नहीं है। अगर गांव पंचायते ग्रामीण प्रशासन चला सकती हैं तो नगर पालिकाएं नगरीय प्रशासन चला सकती हैं। अतः लोहिया जिला स्तर तक सरकारी नौकरशाही को मान्यता नहीं देते थे। लेकिन ऐसा सिद्धान्त प्रशासनिक दृष्टि से अव्यवहारिक है।
(ii) नया समाजवाद : लोहिया एक बड़े समाजवादी नेता थे जो गाँधी के विचारों से सहमत थे इसलिए लोहिया ने कुछ महत्वपूर्ण-सुझाव दिए व अपने समाजवाद को नया समाजवाद कहा है उनके प्रमुख 6 सुझाव हैं।
(i) देश में कम से कम 100 रु. महीना वेतन व अधिक से अधिक 1000 रु. महीना होना चाहिए।
(ii) जिनके पास भूमि है वहां सीमा लगनी चाहिए ताकि किसी के पास 12 एकड़ व ज्यादा से ज्यादा 33 एकड़ ही भूमि हो।
(iii) जहां कृषि लाभकर नहीं है वहां भू-राजस्व नहीं होना चाहिए।
(iv) महत्वपूर्ण उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाये।
(v) एक अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी संगठन होना चाहिए जिसमें सभी समाजवादी नेता शामिल हो जो सारी दुनिया के लिए समाजवादी कार्यक्रम बनाये।
(vi) भारत व पाकिस्तान को मिलकर अपना परिसंघ बना लेना चाहिए ताकि आपसी झगड़े दूर हो व चीन के संकट का सामना किया जा सके।

प्रश्न: दादाभाई नौरोजी का राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान बताइए।
उत्तर: दादाभाई नौरोजी का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है ‘आर्थिक निकासी का सिद्धान्त‘ ये एक बड़े अर्थशास्त्री थे और उन्होंने ये सूत्र दिया कि भारत का धन निकस-निकस कर इंग्लैण्ड जा रहा है जिसकी वजह से भारत में गरीबी व इंग्लैण्ड में अमीरी बढ़ रही है। इस आर्थिक निकासी के उन्होंने तीन प्रमाण दिये-
(प) ब्रिटिश व्यापारी अपना माल बेचते हैं व मुनाफाखोरी करते हैं।
(पप) ब्रिटिश अधिकारी मोटे-मोटे वेतन व भत्ते लेते हैं व अपनी पेंशन भी इंग्लैण्ड ले जाते हैं।
(पप) भारत की गृह सरकार लंदन में स्थित है जिसका सारा खर्चा भारत सरकार को देना पड़ता है। इसी को गृह सरकार के खर्चे (भ्वउम ब्ींतहम) कहते हैं। इन प्रमाणों के आधार पर नौरोजी ने सिद्ध कर दिया की ब्रिटिश राज गैर ब्रिटिश राज है।
संसदीय प्रणाली की प्रशंसा
नौराजी महान उदारवादी नेता थे जो रानाडे के इस सूत्र को मानते थे कि ब्रिटिश राज भगवान का वरदान है। अतः वे चाहते थे कि इंग्लैण्ड जैसी शासन प्रणाली भारत में भी होनी चाहिए। अतः यहां विधान सभायें बने, मताधिकार हो समय-समय पर चुनाव हो। इंग्लैण्ड की तरह भारत में भी उत्तरदायी शासन हो। 1893 में नौरोजी अंग्रेजी संसद के सदस्य हो गये वहां उन्होंने अपने भाषणों में यहीं माँगे उठाई।
प्रश्न: गोपाल कृष्ण गोखले के ब्रिटिश राज के संदर्भ में क्या विचार थे ?
उत्तर: नौरोजी की तरह गोखले भी उदारवादी नेता थे जो रानाड़े के पक्के शिष्य थे इसलिए ब्रिटिश राज को भगवान का वरदान मानते थे लेकिन उन्होंने ब्रिटिश राज पर कई गंभीर आरोप लगाये –
(प) गोखले ने ब्रिटिश शासन को सफेद नौकरशाही कहा व सुझाव दिया कि जिला स्तर पर प्रमुख लोगों की समितियाँ होनी चाहिए व कलेक्टर उसी की राय से काम करें।
(पप) गोखले ने कहा कि ब्रिटिश राज का सबसे बड़ा पाप ये है कि इसने भारत के लोगों के दिलों में हीनता का भाव पैदा कर दिया अर्थात् उन्हें नैतिक दृष्टि से बौना बना दिया।
(पपप) ब्रिटिश शासन बहुत खर्चीला है जबकि भारत की आर्थिक दशा अच्छी नहीं हैं, 1897 में वे इंग्लैण्ड गये व वेलवी आयोग के सामने अपनी रिपोर्ट रखी व सिद्ध कर दिया की भारत के 75ः लोगों को दिन में एक वक्त रोटी नहीं मिलती जबकि ब्रिटिश अधिकारी मोटे वेतन भत्ते लेते थे।
(पअ) जब 1905 में बंगाल का बंटवारा हुआ तो दिसम्बर, 1905 के काशी सम्मेलन में गोखले ने कर्जन को भारत का दूसरा औरंगजेब कह दिया।
(अ) जब स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन चला तो गोखले ने स्वदेशी का समर्थन किया परन्तु बहिष्कार को ठीक नहीं समझा।

प्रश्न: आचार्य विनोबा भावे के भूदान व ग्रामदान आंदोलनों के उद्देश्यों की समालोचनात्मक विवेचना कीजिए और उसकी सफलता का आकलन कीजिए।
उत्तर: भूदान एवं ग्रामदान आन्दोलन स्वतंत्रता के पश्चात् शुरुआती वर्षों में प्रारम्भ वृहद सामाजिक भूमि सुधार आंदोलन थे। ये आंदोलन प्रसिद्ध गाँधीवादी सन्त आचार्य विनोबा भावे ने प्रारम्भ किए थे। उनका विचार था कि भूमि सुधार कार्यक्रम केवल सरकारी कानूनों के द्वारा ही न हों बल्कि सामाजिक जागरुकता के द्वारा भी इसके सफल प्रयास किए जा सकते हैं। इसी उद्देश्य से उन्होंने 18 अप्रैल, 1951 को आन्ध्र प्रदेश के पोचमपल्ली ग्राम से भूदान आन्दोलन प्रारम्भ किया। इस आदोलन के अन्तर्गत बड़े-बड़े भूस्वामियों से उनकी भूमि का छठा भाग भूमिहीनों को दान करने के लिए प्रेरित किया गया। इस आंदोलन को आचार्य विनोबा ने देश में फैलाने के लिए पद यात्राएँ कीं। उत्तर प्रदेश एवं बिहार में यह सर्वाधिक प्रभावपूर्ण रहा।
अपने आरम्भिक समय में यह आंदोलन काफी लोकप्रिय हुआ और इसे काफी सफलता भी मिली। वर्ष 1956 के आस-पास से यह आंदोलन कुछ क्षीण पड़ने लगा, तो इस आंदोलन के अगले चरण के रूप में ग्रामदान आंदोलन प्रारम्भ किया गया। इसके अन्तर्गत सहकारी कृषि पर जोर दिया गया। ग्रामदान ग्रामों में भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी गई। यह ओड़िशा से प्रारम्भ हुआ तथा यहां इसे व्यापक सफलता भी मिली। वर्ष 1960 तक देश भर में 4500 ग्राम दान हो चके थे जिनमें से सर्वाधिक ओडिशा तथा महाराष्ट्र के थे।
इन आंदोलनों का विवेचन करने पर स्पष्ट होता है कि प्रारम्भ में ये आंदोलन लोकप्रिय हुए किन्तु वर्ष 1960 के उत्तरार्द्ध से इनका बल क्षीण होने लगा, जिसका कारण इस आंदोलन की रचनात्मक क्षमताओं का अनुकूलतम उपयोग न हो पाना था। समग्र रूप से देखने पर यह आंदोलन अपने उददेश्यों को पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर पाया। इसके पीछे अनेक कारण थे जसे कि भूदान में मिली 45 लाख एकड में से अधिकांश भूमि, भूमिहीनों में वितरित नहीं की जा सकी तथा वितरित किए जाने की गति भी अत्यधिक धीमी थी। अभी भी इस आंदोलन की भूमि का वितरण हो रहा है। इसके अलावा इस आदोलन में प्राप्त भूमि का बडा भाग मकदमों में फंसा था। इसके अलावा राजस्व विभागों में फैले भ्रष्टाचार व अक्षमता क कारण भी इस आंदोलन के उद्देश्यों की प्रर्ति में बाधा उत्पन्न हुई।
ग्रामदान आंदोलन की बात करें तो यह आदोलन वहीं सफल हुआ जहां सामाजिक वर्ग विभेद नहीं था। उदाहरण के लिए ओडिशा व महाराष्ट्र का आदिवासी बहल क्षेत्र। समग्र रूप से विश्लेषित करने पर देखें तो इस आंदोलन के घोषित लक्ष्य ता पूर न हो सके, किन्तु इस आंदोलन ने स्वतंत्रता उपरान्त देश में एक ऐसे व्यापक सामाजिक वातावरण का निर्माण किया जिससे देश में भूमि सुधार गतिविधियाँ प्रारम्भ हुई। इनके प्रभाव से बड़ी संख्या में लोगों के जीवन-स्तर में सुधार हुआ है।

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