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गोद निषेध सिद्धांत कब लागू हुआ , गोद निषेध नीति किसने लागू की थी
जानिये गोद निषेध सिद्धांत कब लागू हुआ , गोद निषेध नीति किसने लागू की थी ?
प्रश्न: लार्ड डलहौजी ने कम्पनी के साम्राज्य विस्तार के लिए अनेक तकनीकियां (नीतियां) विकसित कर ली थी। जो भारत में अंग्रेजी साम्राज्य विस्तार की पराकाष्ठा थी।
उत्तर:
ऽ लॉर्ड डलहौजी भारत में नियुक्त गवर्नर जनरलों में सर्वाधिक साम्राज्यवादी था।
ऽ साम्राज्य विस्तार नीति को क्रियान्वित करने के लिए उसने सभी उपायों का सहारा लिया – देशी राज्यों से यह कुप्रशासन के आधार पर
देशी राज्यों का अपहरण, देशी राज्यों के पदों एवं पेंशनों की समाप्ति तथा गोद निषेद नीति या हड़प नीति का सिद्धांत लागू किया।
ऽ गोद प्रथा निषेद सर्वाधिक प्रभावकारी सिद्ध हुआ जिसके अन्तर्गत छोटे-छोटे अनेक भारतीय राज्य कंपनी के साम्राज्य के अंग बना दिए
गए।
ऽ हिन्दूओं में गोद लेने की प्रथा चिरकाल से प्रचलित व धर्म द्वारा अनुमोदित थी। लार्ड डलहौजी ने इस प्रथा में परिवर्तन कर दिया।
सामान्यतः इस सिद्धांत का तात्पर्य यह था कि पुत्र विहीन कोई भी आश्रित भारतीय राजा ब्रिटिश श्सरकार की अनुमति के बगैर गोद लिया
गया पुत्र संबंधित भारतीय नरेश के राज्य का उत्तराधिकारी नहीं हो सकता।
ऽ तकनीकी रूप से डलहौजी ने दो बातें स्पष्ट कर दी – ।
A. दत्तक पुत्र को अपने मृतक पिता की निजी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनने का अधिकार प्राप्त था।
B दत्तक पुत्र को संबंधित राज्य के क्षेत्र विशेष की उत्तराधिकारिता सिर्फ एक धर्म का कोई नियम नहीं। इसलिए उसने निजी सम्पत्ति और
क्षेत्र विशेष के उत्तराधिकारियों में पर्याप्त अन्तर को स्पष्ट करते हुए महत्वपूर्ण राजनैतिक व्यवस्था बना दी।
ऽ डलहौजी ने शाही राज्यों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया
(i) वे राज्य जो कम्पनी के सहायक राज्य नहीं थे और वे कभी भी सर्वोच्च ब्रिटिश सत्ता के अधीन नहीं रहे। ऐसे राज्यों के मामलों में उन्हें
यह अधिकार प्राप्त था कि ब्रिटिश सरकार दत्तक पुत्र के उत्तराधिकार के दावे को मना नहीं कर सकती थी।
(ii) वे राज्य जो कम्पनी के सहायक राज्य थे और सर्वोच्च सत्ता के अधीन रहे थे (मुगल शासक वर्ग और मराठा पेशवा) ऐसे राज्यों के
मामले में कम्पनी को उत्तराधिकार के दावे को मना करने का अधिकार प्राप्त था। किंतु सामान्यतः ऐसे मामले में उत्तराधिकार को मान
लिया जाता था।
(iii) वे राज्य जो ब्रिटिश सरकार के द्वारा बनाए गए अथवा निर्मित किए गए थे। ऐसे राज्यों में गोद लेने की प्रथा को सर्वथा रद्द कर
दिया।
उल्लेखनीय है कि लॉर्ड डलहौजी गोद निषेद सिद्धांत का जन्मदाता नहीं था। उससे पहले कई बार इस नियम का प्रयोग किया गया था, लेकिन इस नियम को एक निश्चित नीति में बांधने का काम डलहौजी ने ही किया।
ऽ गोद निषेद नीति के तहत मिलाए गए राज्य थे सतारा, जैन्तिया, सम्बलपुर, उदयपुर, झांसी, नागपुर, बघाट (1848-52) आदि थे।
गोद निषेद सिद्धांत की समीक्षा
ऽ कम्पनी के आर्थिक संसाधनों में वृद्धि।
ऽ ब्रिटिश साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार।
ऽ प्रशासनिक एवं राजनीतिक एकता की स्थापना।
ऽ भारतीयों की धार्मिक भावनाओं को ठेस (1857 के विदोह के शुरु होने का एक कारण)।
अन्य नीतियां
ऽ कुप्रशासन को आधार बनाकर राज्यों का विलय (अवध, बराड़)।
ऽ पेंशन एवं उपाधियों की समाप्ति। . पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र धोधू पंत या नाना साहब के पेंशन की अस्वीकृति।
ऽ कर्नाटक के नवाब आजीमन शाह की उसकी उपाधि एवं पेशन की अस्वीकृति।
ऽ कर्नाटक के नवाब आजीमन शाह की विधवा पत्नी एवं पुत्रियों की पेंशन बंद कर दी गयी।
ऽ युद्ध की नीति के तहत पंजाब व बर्मा की विलय।
प्रश्न: 1857 का विद्रोह एक स्वतंत्रता संग्राम था? कथन की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
उत्तर: इसे एक विचार के रूप में लिया गया है। इस विचार का प्रतिपादन वी.डी.सावरकर ने किया है।
वी.डी.सावरकर के तर्क
1. अंग्रेजी शासन की समाप्ति के लिए यह विद्रोह किया गया।
2. अंग्रेजी शासन की समाप्ति एक अर्थ में मुक्ति का द्योतक और इस अर्थ में यह एक स्वतंत्रता संग्राम था। बहादुशाह का पत्र जो राजाओं को लिखा गया । इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
3. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम इसलिए था क्योंकि इतने व्यापक स्तर पर भारत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध यह पहला विद्रोह था।
4. देश के प्रति विद्रोहियों की कार्यवाही देशभक्ति पूर्ण क्योंकि विदेशी शक्ति के चिह्नों को मिटा देने का प्रयास किया गया था।
सावरकर के तर्को का खण्डन
1. स्वतंत्रता संग्राम के मानदण्डों पर यह विद्रोह पूर्णतः खरा नहीं उतरता। इतिहासकारों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के निर्धारित मानदण्ड निम्न हैं- 1. विदेशी शक्तियों का विरोध, 2. साझा नेतृत्व, 3. साझा उद्देश्य, 4. स्वतंत्रता पूर्व ही स्वतंत्रता के बाद की योजनाओं का खाका तैयार करना, 5. स्वदेश के संबंध में विचार, 6. आधुनिक विचारों का प्रभाव, 7. आंदोलन का अखिल देशीय चरित्र।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम की स्थिति पर विचार
1. विदेशी शक्ति का विरोध तो है परन्तु किसी भी वैकल्पिक व्यवस्था का अभाव था।
2. साझा नेतृत्व व साझा उद्देश्य कहीं-कहीं पर उपस्थित तो कहीं-कहीं अनुपस्थित अर्थात् मिला-जुला स्वरूप।
3. आधुनिक विचारधारा (प्रगतिशील विचारों) का पूर्णतः अभाव।
4. अखिल भारतीय की बजाय स्थानीय या क्षेत्रीय स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है।
प्रश्न: 1857 के विद्रोह की एक राष्ट्रीय विद्रोह के रूप में विवेचना कीजिए।
उत्तर: विद्रोह की समाप्ति के तुरन्त बाद यह रिपोर्ट जारी की गई कि बंगाल नेटिव आर्मी ने ही विद्रोह किया तथा अव्यवस्था का लाभ उठाकर जनता ने भी लूटपाट की। लेकिन बेंजामिन डिजरैली व मार्क्स ने इस सैनिक विद्रोह स्वरूप की बजाय इसे राष्ट्रीय विद्रोह की संज्ञा दी। एस.एन.सेन, सावरकर, अशोक मेहता, सीता रमैया जैसे भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकार भी इसका राष्ट्रीय स्वरूप मानते हैं।
तर्क हैं –
1. विद्रोही राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत थे।
2. उनमें देश-भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी।
3. इसमें सभी वर्गों के लोग शामिल थे।
4. भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखा गया। क्योंकि विद्रोह में केन्द्रीय नेतृत्व (मुगल सम्राट) व क्षेत्रीय नेतत्व (स्थानीय शासकध्राजा) दोनों का अस्तित्व था।
5. सभी का साझा उद्देश्य (ब्रितानी राज की समाप्ति) था।
राष्ट्रीय विद्रोह होने के मापदण्ड
1. विद्रोह का स्वरूप अखिल भारतीय हो।
2. समाज के सभी वर्गों व तत्वों की सहभागिता हो।
3. राष्ट्रीयता के अन्य तत्वों जैसे – भाषा, धर्म, प्रजाति एकीकरण आदि का समावेश हो।
4. आधुनिक विचारों का अस्तित्व हो।
5. भौगोलिक विस्तार लिए हुए हो।
6. सफलता के बाद एक दीर्घ राष्ट्र निर्माण का विकल्प होना।
उपर्युक्त पहलुओं का विश्लेषण करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि –
1. विद्रोह में हिन्द-मस्लिम एकता एक महत्त्वपूर्ण पक्ष थी। विद्रोह के संगठन का स्वरूप राष्ट्रीयता की प्रेरणा को नहीं दर्शाता बल्कि अंग्रेज
विरोधी भावना को दर्शाता है। अंग्रेजों ने सभी वर्गों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला था। फलतः ब्रिटिश शासन के विरोध में एकता की स्थापना हो गई।
2. विद्रोह के कार्यक्रम व उद्देश्य अंग्रेजी शासन की समाप्ति के द्योतक थे जो कि स्वतंत्र होने के दृष्टिकोण को दर्शाता है।
3. लेकिन अंग्रेजी शासन की समाप्ति भारतीय राष्ट्र के निर्माण के उद्देश्यों को समाहित नहीं किये हुए थी। इसमें स्वतंत्र होने का दृष्टिकोण तो दृष्टिगोचर होता है लेकिन इसके अन्तर्गत राष्ट्र निर्माण का दृष्टिकोण अनुपस्थित था।
4. भौगोलिक विस्तार की दृष्टि से भी यह विद्रोह सम्पूर्ण भारत को समेटे हुए नहीं था।
5. इसके राष्ट्रीय स्वरूप पर प्रश्न चिह्न लगता है।
6. विद्रोह में सभी वर्गों की सहभागिता नहीं थी। बुद्धिजीवी, शासक वर्ग, सैनिक, व्यापारी वर्ग आदि सम्मिलित नहीं थे।
7. विद्रोह की शुरुआत, सैनिक विद्रोह के रूप में हुई लेकिन सैनिकों की सहभागिता का स्वरूप (सीमित) भी इसके राष्ट्रीय स्वरूप की सीमाओं को दर्शाता है। (वे अंग्रेज विरोधी भावना से लड़े)
8. विद्रोह की विभिन्न घटनायें, विद्रोह के दौरान उत्पन्न विभिन्न प्रवृत्तियाँ जो कि साक्ष्यों से स्पष्ट होता है, भी विद्रोह – के राष्ट्रीय स्वरूप की सीमाओं की ओर संकेत करती हैं। जैसे –
i. कई क्षेत्रों में पुराने स्थानीय संघर्षों की पुनः शुरुआत। –
ii. कई क्षेत्रों में स्थानीय जमींदारी और स्थानीय सत्ता के मुद्दों का उभरना।
iii. कुछ क्षेत्रों में विद्रोहियों के द्वारा दोनों पक्षों को लूटे जाने के साक्ष्य मिलते हैं
9. स्पष्ट है कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ उभरी। इनमें उद्देश्यों की एकता का अभाव था। विद्रोह के दौरान अराजकता की
स्थिति का उभरना।
10. ऐसा प्रतीत होता है कि विद्रोही अपने विशेषाधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ रहे थे। उनके पास भविष्य में राष्ट्र निर्माण की कोई योजना
नहीं थी।
11. ब्रिटिश काल में राष्ट्रीयता के विकास की एक धीमी व असमान प्रक्रिया थी। अतः राष्ट्रीयता के स्वरूप की सीमाओं को ब्रिटिश भारत में राष्ट्रीयता के विकास की प्रकृति के प्रकाश में भी इसे समझे जाने की आवश्यकता है।
यह सही है कि विद्रोह के दौरान अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रवृत्तियाँ विद्यमान थी, विद्रोह का तात्कालिक स्वरूप क्षेत्रीय था। विद्रोह में जनसामान्य के कुछ वर्ग तटस्थ भी थे। लेकिन 1857 का विद्रोह इन विभिन्न प्रवृत्तियों के होते हुए भी ब्रिटिश राज के खिलाफ एकजुट होने की अपील करता है। हालांकि इसमें वह सफल नहीं हुआ लेकिन एक राष्ट्र की अवधारणा के विकास में इसने एक प्रेरक तत्व के रूप में महती भूमिका निभाई।
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