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खाद्य सुरक्षा क्या है , खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाले कारक , भारत में खाद्य संकट किस दशक में आया
भारत में खाद्य संकट किस दशक में आया खाद्य सुरक्षा क्या है , खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाले कारक से आप क्या समझते हैं इस दिशा में भारत सरकार द्वारा किए गए प्रयासों का वर्णन कीजिए ?
खाद्य सुरक्षा
खाद्य सुरक्षा की सर्वप्रथम आवश्यकता है, खाद्यान्नों की देश के अंदर उपलब्धि। कोई भी देश अपने खाद्यान्न एवं दूसरे कृषि उत्पादों की जरूरतों के लिए दूसरे देश पर निर्भर नहीं रहना चाहेगा, जबतक कि उसके पास सिवाय इसके, कोई और विकल्प ही न हो। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आजतक खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के मामले में भारत को एक लंबा सफर तय करना पड़ा है। जहां पहले भारत खाद्यान्नों का आयात करता था, घरेलू कृषि उत्पादन में वृद्धि करके वह आत्मनिर्भर बन चुका है।
खाद्यान्न के सुरक्षित भंडार
भारत विश्व के उन कुछ देशों में से एक है जहां की सरकार खाद्यान्न का सुरक्षित भंडारण करती है, इसके निम्न कारण हैं –
1. प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति से निपटने के लिए।
2. फसल चैपट होने की अवस्था में मूल्यों को स्थिर करने के लिए।
3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत खाद्यान्न मुहैय्या करने के लिए।
सरकार ने सुरक्षित भंडारण के लिए, वर्ष के अलग-अलग महीनों के लिए मानदंड या नियम बना रखे हैं। वर्तमान में गेहूं और चावल की अधिकतम भंडारण सीमा, सरकार द्वारा उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए, 27 मिलियन टन है।
खाद्यान्नों का भंडारण भारतीय खाद्य निगम, (Food Corporation of India) की प्रमुख जिम्मेदारी है। निगम, सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) पर खाद्यान्न खरीद कर देश भर में फैले अपने भंडारों/गोदामों में रखता है, जहां से खाद्यान्नों की राज्यों की आवश्यकतानुसार, आपूर्ति की जाती है। भारतीय खाद्य निगम समय-समय पर भंडारण किया हुआ खाद्यान्न फसल खराब होने की स्थिति में, जब मूल्यों में उतार-चढ़ाव होता है तब, खुले बाजार में भी बेचता है ताकि मूल्य नियंत्रित रहे।
सुरक्षित भंडारण के क्रिया-कलाप से संबंधित कुछ मुद्दे इस प्रकार संक्षेप में वर्णित हैं-
सर्वप्रथम, सरकार निर्धारित 50-60 मिलियन टन खाद्यान्न के भंडार से कहीं ज्यादा स्टॉक रख रही है और ऐसा पूर्व का अत्यधिक भंडार उपलब्ध होने के बावजूद किया जा रहा है। आवश्यकता से अधिक भंडारण सरकार क्यों करती है? इसका उत्तर न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद का मूल्य है। नियमानुसार खाद्य-निगम को, भंडारण के लिए जितनी भी मात्रा में खाद्यान्न की आवश्यकता होती है, उन्हें उपरोक्त मूल्यों पर खरीदना पड़ेगा। जिस वर्ष फसल का भरपूर उत्पादन होता है, खाद्य निगम को पूरा खाद्यान्न खरीदना पड़ता है, भले ही खाद्यान्नों का बाजार-भाव कछ ज्यादा हो। फिर भी किसान अपना अनाज खाद्य-निगम को ही बेचना चाहता है क्योंकि वहां बड़ी मात्रा (Bulk) में खरीद होती है। इस कारण खाद्यान्नों का स्टॉक बढ़ता चला जाता है।
दूसरा खाद्य-निगम के पास खाद्यान्न का पूरा स्टॉक रखने के लिए समुचित भंडारण सुविधा का अभाव है। वर्तमान में खाद्य-निगम की कुल भंडारण क्षमता 60 मिलियन टन की है, परंतु वास्तव में उपयोगी क्षमता 50 मिलियन टन से ज्यादा नहीं हो पाती और यह क्षमता भी भंडारण के उपयुक्त नहीं ही जा सकती। अनुपयुक्त भंडारण एवं क्षमता की कमी के कारण प्रतिवर्ष लगभग 50 हजार करोड मूल्य के खाद्यान्न बर्बाद हो जाते हैं।
खाद्य सुरक्षा का एक अन्य पहलू सार्वजनिक वितरण प्रणाली है। राज्य सरकारों को आवश्यकतानुसार खाद्यान्न, ‘निर्गम मूल्य‘ (प्ेेनम च्तपबम) पर गरीबों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत् बेचने के लिए दिया जाता है। यह मूल्य खाद्यान्न के वास्तविक मूल्य (न्यूनतम समर्थन मूल्य $ परिवहन खर्च $ भंडारण खर्च) से बहुत ही कम होता है। परिणामतः सरकार को निर्गम मूल्य और वास्तविक मूल्य के अंतर. (जिस दर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से बेचा जाता है) को स्वयं वहन करना पड़ता है, जिसे खाद्यान्न-अनुदान (Food Subsidy) कहते हैं, और यह अनुदान प्रतिवर्ष लगभग 75 हज़ार करोड़ की कीमत के रूप में होता है।
शुरुआती दौर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सभी नागरिकों (उपभोक्ताओं) को खाद्यान्न मिलने की पात्रता थी जिसमें अनाज, चीनी, खाद्य-तेल का, सरकारी दुकानों या बिक्री केंद्रों से, बाजार-भाव से कम कीमत पर वितरण किया जाता था। जून 1992 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरूस्त करने, दुरूपयोग और खाद्यान्नों की काला बाजारी रोकने तथा गरीबों एवं आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों पर ध्यान केंद्रित करने के उद्देश्य से एक “सुधरी हुई सार्वजनिक वितरण प्रणाली‘‘ देश के 1775 ब्लॉकों में शुरू की गयी। ये ब्लॉक ज्यादातर पिछडें और दूर-दराज इलाकों वाले थे।
वास्तविक मूल्य (Economic Cost) का 50% ही था। इसके साथ ही गरीबी रेखा से ऊपर वाले परिवारों के लिए भी खाद्यान्न मात्रा में वृद्धि की गयी।
गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों की संख्या में वृद्धि, जनसंख्या गणना के रजिस्ट्रार जनरल के 01 मार्च 2000 के आँकड़ों के आधार पर की गयी। पहले यह 1995 के आँकड़ों पर आधारित थी। इस कारण रियायती दर पर खाद्यान्न के हकदार ठच्स् परिवारों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई। जुलाई 2001 से इन परिवारों को दी जाने वाली खाद्यान्न की मात्रा में और वृद्धि करके 20 से 25 कि. ग्रा. प्रति परिवार कर दिया गया। खाद्यान्न वितरण योजना के प्रारंभिक अवसर पर जुलाई 2000 में अंत्योदय अन्न योजना (।।ल्) के पात्रों के लिए 25 कि. ग्रा. खाद्य सामग्री प्रतिमाह निर्धारित की गयी थी, इसके बाद अप्रैल 2002 से, घरों, परिवारों के स्तर पर खाद्य सुरक्षा को और भी ज्यादा सुनिश्चित करने के लिए सभी प्रकार की पात्रता (AAY, BPL, APL) वाले परिवारों को दिये जा रहे खाद्यान्न की मात्रा को एक बार फिर बढ़ा कर 35 कि.ग्रा. कर दिया गया।
लक्ष्योन्मुख सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सभी राशन कार्ड-धारक, ।च्स् और ठच्स् वर्गों में विभाजित कर दिये गये हैं। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवार अनाज, चीनी और खाद्य-तेल, गरीबी रखा से ऊपर वाले परिवारों को दिये जा रहे मूल्य से आधी कीमत में प्राप्त करते हैं।
इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार ने एक और योजना ।।ल् सन् 2000 में शुरू की है। इसके अंतर्गत सबस निचले स्तर वाले 2.5 करोड़ ठच्स् परिवारों को 35 कि.ग्रा. चावल 3 रुपए प्रति कि.ग्रा. और गेहूं 2 रुपए प्रति कि.ग्रा. सरकारी दुकानों से दिया जाने लगा है।
65 वर्ष से ऊपर की आयु वाले वरिष्ठ नागरिक, यदि राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के सदस्य नहा है तो 10 कि.ग्रा. खाद्यान्न निःशुल्क पाने के हकदार होंगे।
लक्ष्योन्मुखी सार्वजनिक वितरण प्रणाली: मुद्दे और कारण
इस योजना की सबसे बड़ी कमी यह पायी गयी है कि ठच्स् वर्ग का एक बड़ा भाग, रियायती दर पर राशन पाने से वंचित रह गया है। इस कारण योजना की व्यापकता पर प्रश्न उठ खड़े हए हैं।
इस योजना में शामिल होने का आधार केवल आर्थिक है और यह बहुधा कम करके आँका जाता है या रिपोर्ट में शामिल किया जाता है। ऐसा इसलिए संभव है कि देश में राष्ट्रीय-आय-आँकडों जैसे डेटा-बेस का अभाव है। इस प्रकार के आरोप लगते रहते हैं कि राजनीतिक संरक्षण की वजह से अपात्र लोग भी ठच्स् सूची में शामिल हो गये हैं। इस सूची में शामिल सभी परिवार, वास्तव में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले नहीं हैं, बल्कि बनाये गये हैं। बहुत निर्धन परिवारों की एक बड़ी संख्या, गरीबी रेखा के ऊपर रहने वाली सूची (APL) में शामिल कर दी गयी है और इसका कारण गरीबों का एक बड़ा वर्ग रियायती राशन पाने से वंचित रहा है।
इसके अतिरिक्त, गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की जब आय बढ़ जाती है तो उन्हे तकनीकी रूप से इस सूची से बाहर हो जाना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं होता। इस प्रकार ठच्स् परिवारों की श्रेणी में रहने के पीछे रियायती राशन ‘प्रोत्साहन‘ जैसा दिखता है और इस कारण कोई भी परिवार इससे बाहर नहीं जाना चाहता। अतः वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत “सिर्फ प्रवेश और बहिर्गमन नहीं‘‘ का सिद्धांत काम कर रहा है जिससे सरकार के ऊपर वित्तीय छूट देने का बोझ बढ़ता जा रहा है और ‘‘वास्तविक लाभार्थियों‘‘ तक योजना पूरी तरह से नहीं पहुंच पा रही है।
स्पष्टतः योजना में खामी नहीं है, बल्कि इसका क्रियान्वयन है जो असफल सिद्ध हुआ है। लाभार्थियों की सही पहचान, नकली राशन कार्ड आदि ऐसी समस्याएं हैं जिनके सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। एक सरकारी अनुमान के आधार पर नकली राशन कार्ड धारकों की संख्या लगभग 1.75 करोड़ आँकी गयी है।
एक दूसरी समस्या है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के राशन की बड़े पैमाने पर काला-बाजारी, जमाखोरी और उसे खुले बाजार में बेचने की। सरकारी सूत्रों के अनुसार लक्ष्योन्मुखी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) का लगभग 20% राशन खुले बाजारों में बिक जाता है। इस खाद्यान्न की गुणवत्ता भी सवालों के घेरे में इसलिए है कि खाद्य निगम की भंडारण व्यवस्था असंतोषप्रद है।
TPDS अपने वर्तमान स्वरूप में न केवल अक्षम है, बल्कि उससे भी अहम बात है कि जिन गरीब परिवारों के लिए यह योजना बनी है उन तक राशन पहुंच ही नहीं पाता। बड़े पैमाने पर राशन की बर्बादी और राशन को भ्रष्टाचार द्वारा गलत दिशा में पहुंचा देना जैसी समस्याएं अपनी जगह है। विडंबना यह है कि भारत में जहां आवश्यकता से अधिक खाद्यान्न सुरक्षा भंडारों में खाद्यान्न जमा हो, सरकार द्वारा अत्यधिक रियायतें दी जा रही हों फिर भी देश में भुखमरी हो और 270 मिलियन गरीब निवास करते हों। क्या इसे भारत की “खाद्य सुरक्षाष् कहा जा सकता है?
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (National Food Security Act)
लक्ष्यांकित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) में सर्वाधिक पात्रों को शामिल करना एक बड़ी चुनौती रही है। सरकार ने वितरण प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन के प्रयास किये हैं और इस प्रणाली की मूल भावना – ‘शामिल-करो‘ की जगह ‘‘कितने लोग वंचित हैं‘‘ पर ध्यान देना शुरू किया हैं। दूसरे शब्दों में, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की पात्रता वाली जनसंख्या का अधिकाधिक भाग, राष्ट्रीय-खाद्य-सुरक्षा के अंतर्गत, शामिल हो, यह प्रयास प्रारंभ किया है।
लोकसभा द्वारा राष्ट्रीय – खाद्य – सुरक्षा अधिनियम, 2013,03 जुलाई,2013 को पारित किया गया। यह अधिनियम भारत की कुछ आबादी (1.2 बिलियन) का 67ः जनसंख्या को रियायती दर पर खाद्यान्न सुलभ होने का अधिकार देता है और इसमें ढिलाई बरतने वाले प्रशासनिक अधिकारियों के विरुद्ध दंड का भी प्रावधान हैं। यू पी ए -2 सरकार द्वारा लिये गये इस ऐतिहासिक फैसले से 1.3 ट्रिलियन रुपयों ( 22 विलियन डॉलर) की महत्त्वाकांक्षी कल्याणकारी योजना, एक अध्यादेश द्वारा प्रारंभ की गयी जिसके से देश की सैकड़ों मिलियन निर्धन जनता को रियायती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध हो सकेगा।
यह अध्यादेश 10 सितंबर, 2013 को लोकसभा द्वारा मंजूर किया गया जिसका उद्देश्य मानव जीवनचक्र में खाद्यान्न और पोषण की सुरक्षा की जा सकेगी। इसमें यह सुनिश्चित किया जायेगा कि निर्धन जनता को उचित और रियायती मूल्य पर सम्मानपूर्वक जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया जाय। यह कानून ग्रामीण क्षेत्र में लगभग 75ः और शहरी क्षेत्र की लगभग 50ः आबादी को, लक्ष्यांकित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) के तहत, रियायती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराया जा सके। इस कार लगभग दो तिहाई जनसंख्या को इस योजना के तहत कवर किया गया है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के विशेष प्रावधान इस प्रकार हैं-
1. ग्रामीण क्षेत्र में तीन चैथाई आबादी और शहरी क्षेत्र में लगभग आधी आबादी को पाँच किग्रा. अनाज रियायती दर पर (चावल 3रु. प्रति किलो, गेहूं 2रु. प्रति किलो और मोटा अनाज 1रु. प्रति किलो) उपलब्ध होगा।
2. अत्यंत निर्धन परिवार ‘अंत्योदय अन्न योजना‘ के अंतर्गत 35 कि.ग्रा. अनाज प्रति माह, रियायती दरों पर प्राप्त करते रहेंगे।
3. गर्भवती महिलाएँ और शिशु को स्तनपान कराने वाली महिलाओं को जननी-लाभ के रूप में छः हजार रुपये मिलेंगे।
4. छः से चैदह वर्ष आयु के बच्चों को या तो घर ले जाने के लिए राशन या पका खाना प्राप्त होगा।
5. केंद्र सरकार खाद्यान्न को परिवहन से ढुलाई और उसके प्रबंधन के लिए सहायता प्रदान करेगी।
6. महिलाओं को घर चलाने के लिए अधिक अधिकार देने के उद्देश्य से, वरिष्ठ गृहणी को घर के मुखिया के हैसियत से, राशन-कार्ड उसके नाम से जारी होगा।
खाद्य सुरक्षा विधेयक से जुड़े मुद्दे
खाद्य सुरक्षा की परिकल्पना ‘मूलभूत पोषण की वस्तुओं की एक टोकरी‘ पर आधारित होनी चाहिए जिसका उद्देश्य कुपोषण समाप्त करना हो और जनसंख्या के लिए ‘पोषण सुरक्षा‘ निश्चित की जा सके। मात्र मोटे अनाज को इस पैकेज में रखने से आम जन के लिए पोषण-सुरक्षा नहीं मिल जायेगी। कई अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत के लिए भुखमरी और कुपोषण की समस्या से निजात पाना सर्वाेच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
कुपोषण और भूख, दोनों ही समस्याओं के लिए भारत की गणना बहुत नीचे है। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था की रेटिंग के अनुसार भारत वैश्विक भूख-अनुसूची (Global Hunger Index 2016) में 118 देशों में 97वें स्थान पर है।
भारत जैसे विशाल देश में इतने बड़े पैमाने पर खाद्य सुरक्षा नीति का क्रियान्वयन, वितरण-पद्धति का खामियों को दूर किये बिना और राज्यों की सापेक्षिक योग्यता, दोनों ही कारणों से गरीबों तक अन्न पहुँचाने की योजना असफल हो सकती है।
इस योजना के लिए इतनी विशाल मात्रा में खाद्यान्नों की सरकारी खरीद, भंडारण क्षमता को मजबूत करन के साथ ही, अतिरिक्त क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता भी पैदा करती है। इसके लिए भारत को उन खाधान्ना का आयात करना पड़ सकता है जो अंतर्राष्ट्रीय बाजार और भारत में भी कीमतें प्रभावित करते हैं।
इस प्रक्रिया के कारण, प्रश्न भारी-भरकम सरकारी रियायतों के केवल मुहैय्या करने और वार्षिक बजट प्रावधान तक ही सीमित नहीं है। यह प्रत्येक चुनी सरकार के लिए शाश्वत और निरंतर जारी रहने वाली जिम्मेदारी है। प्रश्न यह है कि भविष्य में इसका कब तक निर्वाह किया जा सकता है? इस प्रकार की योजनाएं जनमानस को अत्यधिक संतोषी और निकम्मा बनने की ओर प्रेरित तो नहीं कर रही हैं? क्योंकि यह योजना उन्हें खाद्यान्न की उपलब्धि की गारंटी, इसके लिए काम किये बगैर दे रही है।
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