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किताब उल-रेहला में किसका यात्रा वृतांत मिलता है , रेहला किसकी पुस्तक है किसने रचना की थी ?
रेहला किसकी पुस्तक है किसने रचना की थी ? किताब उल-रेहला में किसका यात्रा वृतांत मिलता है ?
प्रश्न: भारतीय इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्त्रोत के रूप में इब्नबतता के ‘रेहला‘ के विषय में आपका क्या मूल्यांकन है ?
उत्तर: ‘किताब-उल-रेहला‘ या ‘रेहला‘ की रचना मोरक्को (अफीकी) यात्री इब्नबतता ने की। वह 1333 ई. में मोहम्मद-बिन-तुगलक के शासन काल में भारत आया था। वह 14 साल तक भारत में रहा तथा दिल्ली में उस मुहम्मद तुगलक ने काजी नियुक्त किया था, किन्तु बाद में उसे राजदूत बनाकर चीन भेजा गया जहाँ वह पहुँच न सका। मुहम्मद तगलक से अप्रसन्न होकर अपने देश लौटने पर इब्नबतता मोरक्को के सल्तान के संरक्षण में ‘रेहला‘ नामक भारत विवरण प्रस्तुत किया।
‘रेहला‘ में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कतिक स्थिति का विस्तृत वर्णन किया गया है। उसने सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक की गुप्तचर व्यवस्था, डाक व्यवस्था और उसकी मृत्यु की परिस्थितियों का वर्णन किया।
दिल्ली सल्तनत के तुगलक शासकों विशेषकर महम्मद-बिन-तगलक कालीन विवरण इस पुस्तक में प्राप्त होता है। इब्नबतूता ने इस पुस्तक में मुहम्मद तुगलक के दरबार, उस समय की प्रशासनिक व्यवस्था, सामाजिक एवं राजनीतिक संस्थाओं, आर्थिक स्थिति, डाक की व्यवस्था, सडकों की व्यवस्था, गुप्तचर व्यवस्था, कृषि उत्पादन, त्यौहार और उत्सव, संगीत इत्यादि का बड़ा सुन्दर विवरण प्रस्तुत किया है।
मुहम्मद-बिन-तुगलक के विवादास्पद चरित्र और उसकी अनोखी योजनाओं जैसे राजधानी परिवर्तन, सांकेतिक मुद्रा का चलन, दोआब में कर वृद्धि, कराचिल अभियान, खरासान विजय पर अपने विचारों का बड़ा रोचक वर्णन किया है। सल्तनतकालान डाक चैकियों तथा गुप्तचर व्यवस्था का जो विवरण रेहला में प्राप्त है वह अन्य स्त्रोतों में मिलना कठिन है। यद्यपि इसमें वर्णित सभी विषयों को सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि यह स्मृति आधारित रचना है, साथ ही लेखक को भारतीय संस्कृति की समझ भी कम थी।
इब्नबतूता धर्म और कानून का विद्वान था। उसने श्रेहलाश् को भारत में नहीं लिखा इस कारण उस पर न कोई दबाव था और न कोई लालच। उसके कुछ वर्णन तत्कालीन इतिहासकार बरनी के विवरणों से मेल खाते थे। फिर भी इब्नबतूता के विवरण पूरी तरह विश्वसनीय नहीं माने जाते। इसके दो कारण हैं – एक, इब्नबतूता ने बहुत सी सुनी-सुनाई बाते भी लिख दी हैं जिनकों उसने स्वयं नहीं देखा था। दूसरे, उसने अपनी पुस्तक भारत से जाने के दस वर्ष बाद लिखी थी। इस कारण स्थानों के नामों तथा मार्गों के बारे में अनेक त्रुटियाँ रह गई।
इन त्रुटियों के बाद भी उसकी पुस्तक का महत्व कम नहीं हुआ। फिर भी दिल्ली सल्लनत के इतिहास के पुनर्निर्माण में ‘रेहला‘ ग्रन्थ का विशेष महत्त्व है। इसके अभाव में हम बहुत सारे तथ्यों से वंचित रह जाते और हमारा ज्ञान अधूरा होता। आधुनिक इतिहासकार उसके विवरण को पर्याप्त सत्य मानते हैं।
प्रश्न: अलबरूनी के भारत-विवरण का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर: अलबरूनी का तहकी-ए-हिन्द, अध्ययन तथा अवलोकनों पर आधारित भारतीय समाज का 1018 ई. से 1030 ई. के बीच का सर्वेक्षण है। भारतीय समाज एवं हिन्दू धर्म की वास्तविक विचारधारा से परिचित होने के उददेश्य से अलबरूनी ने संस्कृत का अध्ययन किया एवं भारतीय धार्मिक ग्रन्थों का अवलोकन किया। अलबरूनी की प्रस्तुति तार्किक एवं वैज्ञानिक थी। उसके धार्मिक पूर्वाग्रहों ने अवलोकनों की मानकता नहीं गिरने दी।
अलबरूनी ने अपने विवरण में भारतीय समाज, ज्ञान-विज्ञान, धार्मिक मान्यताओं को प्रस्तुत किया है। भारतीय समाज के संदर्भ में, अलबरूनी यहां के समाज की बन्द प्रवृत्ति को उद्घाटित करते हुए कहते हैं कि ब्राह्मणों को दूर की जगहों में जाना अच्छा नहीं माना जाता था, जिसे सामन्तवादी विचारों के अन्तर्गत देखा जा सकता है। जो एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्र के सम्बन्धों से वंचित करता है। उसके अनुसार श्रेष्ठता की झूठी चेतना से भी भारतीयों की अलगाववादी प्रवत्ति का ज्ञान होता है। भारतीयों को ऐसा विश्वास था कि, ‘‘कोई भी देश उनके देश जैसा नहीं, कोई भी राजा उनके राजा जैसा नहीं, कोई विद्वान उनके विद्वान जैसा नहीं, कोई भी धर्म उनके धर्म जैसा नहीं तथा कोई विज्ञान उनके विज्ञान जैसा नहीं।‘‘
अलबरूनी के अनुसार ग्यारहवीं शताब्दी तक वैश्यों तथा शूद्रों को वैधानिक रूप में समान माना जाने लगा था तथा ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच आराम का समझौता परोक्ष रूप से उल्लेखित किया गया है। उसने अछूतों का भी उल्लेख किया है. जिसे ‘अन्त्यज‘ कहा जाता. था। इसमें बोधतु, भेदा, चाण्डाल, डोम तथा हादी आदि सम्मिलित थे।
भारतीयों के मध्य व्याप्त विभिन्न सामाजिक कुप्रथाओं ( जैसे – बाल-विवाह, सती प्रथा, औरतों की पतित दशा, विधवाओं की दशा का उल्लेख भी अलबरूनी के द्वारा किया गया।
अलबरूनी ने भारतीयों के स्थिर ज्ञान की आलोचना करते हुए लिखा है कि, ‘‘भारतीय संशय की बुरी हालत में है, उनके पास कोई तार्किक क्रम नहीं है, और वे हमेशा. भीड़ की मूर्ख धारणा में मिलने लगे हैं। मैं केवल उनके गणितीय तथा खगोलीय ज्ञान की तुलना मोतियों तथा खट्टे खजूर के मिश्रण से कर सकता हूँ।‘‘
यद्यपि अलबरूनी भारतीयों के वैज्ञानिक ज्ञान का आलोचक है, लेकिन कभी-कभी वह ज्ञान की प्रशंसा भी करता है। वह यहां के खगोलशास्त्र के संदर्भ में कहता है कि भारतीय निःसन्देह श्रेष्ठ हैं। अरबों ने उनसे खगोल ज्ञान प्राप्त किया। गणित की पूर्व धारणाओं को वह भारतीयों की शुद्ध देन मानता है। चिकित्साशास्त्र का उल्लेख करते हुए कहता है कि इनका शल्य चिकित्सा तथा वैदिकीय चिकित्सा दोनों ही सर्वप्रमाणित हैं। यहां के चिकित्सक वात तत्व को आधार बनाकर सम्पूण चिकित्सा करते हैं। वह भारतीयों के नाप एवं तौल व्यवस्था तथा दूरी मापने की व्यवस्था की प्रशंसा करता है।
उसने भारतीय न्याय-व्यवस्था को समझने का प्रयास किया। उसने न्याय-व्यवस्था के सभी प्रायोगिक मामलों को दशा तथा विधि पुस्तकों जैसे मनुस्मृति से इनके अन्तरों को चिन्हित किया।
अलबरूनी ने हिन्दू धर्म दर्शन तथा संस्थाओं का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया था। वह कहता है कि बह देवों में विश्वास करना अभद्र था और यह अशिक्षित वर्ग की निशानी थी। शिक्षित हिन्दुओं का विश्वास था कि ईश्वर एक है और शाश्वत है। हिन्दुओं का ऐसा विश्वास था कि ईश्वर वास्तविक है क्योंकि जो कुछ भी अस्तित्व में है, ईश्वर के कारण है।
अलबरूनी ने हिन्दुओं से आत्माओं के पुनर्जन्म की धारणा भी सीखी। वह वर्णन करता है कि भारतीय ऐसा मानते थे कि इस जीवन के सभी कर्मों के लिए उपहार या सजा अगले जन्म में मिलती है और आदमी की अन्तिम मुक्ति केवल सच्चे ज्ञान से ही हो सकती है। उसने इन सभी मान्यताओं को संकुचित मानसिकता कहा। वह कहता है कि संकीर्णता ग्यारहवाँ शताब्दी के भारत में सभी स्तरों में विद्यमान थी और इस संकीर्णता का मूल्य तुर्कों द्वारा देश की बर्बादी से चुकाना पड़ा।
अपने महत्त्वपूर्ण अवलोकनों के क्रम में अलबरूनी कभी भी पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं हुआ तथा महमूद गजनवी के विनाशकारी कार्यों की निन्दा की। उसने भारतीय परम्पराओं तथा जीने के तरीकों, अनुष्ठानों तथा समारोहों का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया है उसके अनुसार भारतीयों की परम्पराओं पर अधिक से अधिक निर्भरता उनका वास्तविक बौद्धिक अवरोध था।
उत्सव एवं त्योहारों का उल्लेख करते हुए वह हिण्डोला चैत्य, वहन्द (बसन्त), चैत्र षष्ठी, गौरी तृतीया, महानवमी पितृपक्ष, दीपावली का उल्लेख करता है। इन्हीं के साथ हिन्दू प्रथाओं में कुछ विभिन्न तौर-तरीकों का उल्लेख करता है। हिन्दू एक साथ भोजन नहीं करते थे। अपने शरीर के बाल नहीं काटते थे। गौमूत्र पीते थे परन्तु गौमांस नहीं खाते थे तथा किसी के घर में प्रवेश करने से पूर्व वे अनुमति नहीं लेते थे। इसके अतिरिक्त वह लेखन पद्धति और वर्णमाला का उल्लेख करते नागर अर्द्धमागधी, मारवाड़ी, सैन्धव, लारी आदि लिपियों का उल्लेख करता है तथा बौद्ध लिपि को ‘मोक्ष की लिपि‘ कहता है।
इस प्रकार अलबरूनी का भारत विवरण भारतीयों के वास्तविक ज्ञान एवं परम्पराओं से शेष विश्व को परिचित कराता है।
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