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कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए

राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. – 1303 )

राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी राजपूतों का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है इस वंश के लिए गुहिलोत, गोहित्य, गोहिल, गोमिल आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। राजस्थान के इतिहा को गौरवपूर्ण बनाने का श्रेय मेवाड़ के इस गुहिल वंश को ही जाता है। प्रारंभ में इनकी राजधानी नागदा थी। परवर्तीकाल में राजधानी नागदा से चित्तौड़ हो गई।

रावल समरसिंह के पश्चात् उसका पुत्र रतनसिंह 1302 ई. में चितौड़ के राजसिंहासन पर बैठ एक वर्ष के पश्चात् ही मेवाड़ राज्य को सर्वाधिक खतरनाक गुस्लिम अभियान का सामना करना प जिसमे सुल्तान अलाउद्दीन ने गुहिलों के राज्य को पदाकान्त करके उसकी स्वतंत्रता का अंत कर दिया

मुस्लिम आक्रमण के कारण

1 सुल्तान की साम्राज्यवादी आकांक्षा अलाउद्दीन खलजी महत्वाकांक्षी सुल्तान था वह भारत पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था। इस अभिप्राय से उसने बंगाल सिंध गुज मालवा पंजाब कश्मीर आदि राज्यों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। दक्षिण भारत पर वह अपनी विजय पताका फहराना चाहता था अतः दिल्ली के निकट ही वह शक्तिशाली राजपूत राज् की स्वतंत्रता को कैसे सहन कर सकता था। इसलिए दक्षिण भारत की विजय तथा उत्तरी भारत पर उ प्रभाव का स्थायित्व तभी सम्भव था जब वह चितौड़ जैसे अमेध दुर्ग को अपने अधिकार में करे।

2. मेवाड़ का बढ़ता हुआ प्रभाव गुहिलवंशी जैत्रसिंह, तेजसिंह तथा समरसिंह ने मेवाड़ राज्य सीमाओं का क्रमिक रूप से विस्तार किया। इल्तुतमिश, नासिरुद्दीन महमूद और बलवन आदि दिल्ली सुल्तानों ने भी मेवाड़ के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने का भरपूर प्रयास किया था। लेकिन यह रा उत्तरोत्तर शक्तिशाली होता गया। मेवाड़ के सैनिक उत्साहित थे, और वे गुजरात की ओर अपना साम्रान पोता था जो सात पुत्र सहित चित्तोड़ के घेरे के समय वीरगति को प्राप्त हुये थे। हमीर ने 1320 ई. के आसपास चित्तौड़ पर अधिकार स्थापित किया और मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश की नीव रखी जो स्वतंत्र मासा में भी कुछ वर्षों तक मेवाड़ पर शासन करता रहा।

कान्हड़ देव जालौर (1305 ई. 1312 ई.)

प्राचीन काल में जालोर को जाबालीपुर एवं यहाँ स्थित दुर्ग को सुगमगिरी (सोनगा जाना जाता था। जालौर, शब्द जाल और तौर से मिलकर बना है। जाल एक पेड़ का नाम है जो इस क्षेत्र में बहुतायत में पाया जाता है, और सर का अर्थ सीमा है। अर्थात् जाल के पेड़ी की सीमा वाला क्षेत्र जालीर है यह छोटा सा राज्य राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। 1182 ई. में डील अल्हण के छोटे पुत्र कीर्तिपाल ने जालौर में चौहान राजवंश की नीव डाली। कीर्तिपाल के उत्तराधिकारी समरसिंह ने जालौर दुर्ग को सुद्ध किया तथा नाडील भीनमाल, बाड़मेर स्तनपुर, साधार आदि जीतकर साम्राज्य का विस्तार किया तत्पश्चात् क्रमशः उदयसिंह, चाचिगदेव एवं सामंतसिंह ने शासन किया। जालौर के राज सिंहासन पर 1306 ई. में सामंतसिंह का पुत्र कान्हड़दे बैठा

जानकारी के चोत जालौर एवं सल्तनत के मध्य सम्बन्धों का विवरण पद्मनाभ द्वारा रचित कान्हड़दे- प्रबन्ध में उपलब्ध होता है नैणसी की ख्यात में भी पर्याप्त जानकारी है फरिश्ता द्वारा रचित तारीख-ए-फरिश्ता तथा अमीर खुसरो द्वारा रचित खजाइन में मुस्लिम दृष्टिकोण से दोनों पक्षों के मध्य सम्बन्धों एवं संघर्ष की जानकारी मिलती है मकरा के शिलालेख से ज्ञात होता है कि 1297 ई. में अलाउदीन की सेना को कान्हडदे ने परास्त किया

सुल्तान एवं कान्हड़दे के मध्य संघर्ष के कारण उन सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त करने की आकांक्षा रखता था। दक्षिण भारत की ओर जाने वाले प्रमुख मार्ग पर जालौर की स्वतंत्र एवं शक्तिशाली सत्ता उसे भारत विजय की योजना में प्रमुख बाधा जान पड़ती थी। जालौर की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति का व्यापारिक एवं सामरिक महत्व था जालौर का चौहान वंशी शासक निरंतर शक्तिशाली होता जा रहा था। कान्हडदे, प्रभुत्व सम्पन्न शासक था जो सुल्तान को असह्य था और जय सुल्तान की सेना गुजरात की ओर प्रस्थान कर रही थी तो उसे कान्हड़दे ने अपने राज्य की सीमा से गुजरने नहीं दिया। डॉ० दशरथ शर्मा ने इसका कारण लिखा है कि कान्हडदे समझता था कि मुस्लिम सेना उसके राज्य में लूटपाट करेगी, अत्याचार, अनाचार करेगी। लेच्छ सेनाओं को हिन्दू राज्य से गुजरने देना भी धार्मिक था अतः उसने इसकी अनुमति नहीं दी।

कान्हड़दे का आक्रमण  1298 में अलाउदीन ने सोमनाथ के मंदिर को ध्वंस करने तथा गुजरात को जीवने के लिए अपने भाई उलुगखी एवं नुसरतखाँ के नेतृत्व में विशाल सेना भेजी गुजरात जाने का मार्ग जालौर होकर था अतः अलाउद्दीन ने कान्हड़दे से अपनी सेना को जालौर राज्य में से गुजरने ने की अनुमति मांगी, जिसे दो टूक शब्दों में कान्हड़दे ने ठुकरा दिया सुल्तान की सेना मेवाड़ के मार्ग से निकल गई। इस सेना ने मार्ग में पड़ने वाले गांवो को लूटा, नष्ट-भ्रष्ट किया। गुजरात में पहुँच कर काठियावाड़ को जीता और सोमनाथ के मंदिर तथा शिवलिंग को तोड़ डाला विपुल धन सम्पदा के साथ सुल्तान का भाई उलुगखी सेना सहित दिल्ली की ओर लौट चला।

गुजरात में तबाही तथा पवित्र धार्मिक तीर्थ का विध्वंस, कान्हड़दे के क्रोध का कारण बना। यह सुल्तान को सबक सिखाने का निर्णय कर चुका था।

लूट का माल लेकर जब सुल्तान की सेना गुजरात से दिल्ली की ओर चली तो माल के बंटवारे को लेकर सेना के अधिकारियों में झगड़ा हो गया जब यह सेना जालौर के निकटवर्ती क्षेत्र से गुजरती हुई जा रही थी. तो कान्हड़दे ने अपने मंत्री जेता देवड़ा को उलुगखों के पास भेजवार कहलवाया कि बिना अनुमति के आप सेना सहित जालौर की सीमा से कैसे जा रहे है ? कुछ विद्वानों के मतानुसार को कान्हड़दे ने मुस्लिम सेना के बलाबल की जानकारी प्राप्त करने हेतु भेजा था।

दूसरे दिन ही लूट के माल के बंटवारे को लेकर मंगोल सेनानायकों ने सुल्तान के भाई के विरूद्ध विद्रोह कर दिया तथा दूसरी ओर से जेता देवड़ा ने सुल्तान की सेना पर धावा राजपूत सरदारों का यह आक्रमण मुस्लिम सेना के लिए अप्रत्याशित था, तथा राजपूतों के लिए का ध्वंस करने वाली सेना को नेस्तनाबूत करने की इच्छा से किया गया यह घातक 6 परिणामस्वरूप सुलतान की सेना पराजित होकर लूट का कुछ भाग ही लेकर अपने प्राण ब की ओर भाग छूटी राजपूत सैनिकों ने उलुगखों से गुजरात से लाया धन छीन लिया तथा के मंदिर के शिवलिंग को तोड़कर उसके टुकड़े भी अपने साथ ले जा रहा था, वे भी राज लिए, जिनको कान्हड़दे ने विभिन्न पांच शिव मंदिरों में प्रतिष्ठित करवाया।

जालौर पर मुस्लिम सेना का आक्रमण-

कारण कान्हड़दे ने गुजरात से लौटती सुलतान की सेना को लूटा तथा युद्ध करके राज्य से दूर भगा दिया। इस कारण से युद्ध होना लगभग अवश्यम्भावी हो गया था।

अब तक अलाउद्दीन रणथम्भौर तथा चित्तौड़ जैसे महत्वपूर्ण दुर्गा पर अधिकार स्थापित था. इसलिए उसके हौंसले बुलंद थे।

फरिश्ता के अनुसार 1306 ई. में सुल्तान ने अपने सेनापति मुल्तानी को जालौर पर आक्रम के लिए भेजा था मुल्तानी चतुर एवं अच्छा कूटनी भी था उसने कान्हड़दे को समझा, दु सुल्तान की अधीनता स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया तथा उसे अपने साथ दिल्ली दरबा आया दिल्ली दरबार में कान्हड़दे का उचित जान नहीं किया गया और सुल्तान ने बठे अहंकार कि हिन्दू राजाओं में से ऐसा कोई शासय नहीं है. जो उसकी सेना का मुकाबला कर सके। कान्हडदे की रंगों का राजपूती खून खौल उठा और उसने सुलतान अलाउद्दीन को अपने विरुक की चुनौती दे डाली, तथा जालौर लौट आया।

मुहणोत नैणसी जालौर पर सुल्तान के आक्रमण का दूसरा कारण बताते हैं उनके दिल्ली दरबार में कान्हड़दे नहीं, बल्कि कान्हड़दे का पुत्र वीरमदेव गया था वीरमदेव व्यक्तित्व वाला युवा राजपूत, राजकुमार था जिससे अलाउद्दीन की राजकुमारी फिरोजा प्रेम क जब इस प्रेम सम्बन्ध का सुल्तान को पता चला, तो उसने अपनी पुत्री को बहुत समझाया मकाया। लेकिन कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अतः सुल्तान ने युवा राजपूत कुमार को अपनी पुत्री कर लेने के लिए राजी कर लिया वीरमदेव, जालौर चला गया, वहाँ से उसने इस विवाह के कर दिया सुलतान ने इसे अपना अपमान समझा तथा जालीौर पर आक्रमण का आदेश दे

इसके पश्चात् का विवरण कान्हड़दे प्रबंध में उपलब्ध होता है उसके अनुसार जा सरदारों ने मुस्लिम सेना को तनिक भी सफल नहीं होने दिया, उल्टे वह संकट में फंस गयी का यह अभियान पूर्णतः असफल रहा और वह खाली हाथ वापस दिल्ली लौट गयी। इसके प की प्रेमिका, राजकुमारी फिरोजा स्वयं एक विशाल सेना लेकर जालौर पर अधिकार करने के वीरमदेव के पिता, चौहान शासक कान्हड़दे ने राजकुमारी फिरोजा का राजपूती परम्परा के आदर-सत्कार किया। लेकिन वीरमदेव से उसके विवाह करने के अनुरोध को उन्होंने अस्वीकार निराश, हताश फिरोजा खाली हाथ वापस दिल्ली लौट आयी।

इसके पश्चात् राजकुमारी फिरोजा का लालन-पालन करने वाली चाय गुलविशि सेना लेकर जालौर की ओर बढ़ी। उसका निश्चय था कि वह वीरमदेव को किसी भी दिशा राजकुमारी के सुपुर्द करेगी। मुस्लिम सेना का जालौर की राजपूत सेना के साथ भीषण संघर्ष में राजपूत सरदारों ने वीरदेव के नेतृत्व में अद्भुत सैनिक कौशल का परिचय दिया, लेकिन इस आकस्मिक पाये से राजकुमार वीरमदेव युद्ध भूमि में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। धाय गुलविहित अत्यन्त दुखी हुई, और पीडित ह्रदय से वीरमदेव का शव लेकर दिल्ली लौट आयी। दिल्ली में वीरमदेव का विधि-विधान से अन्तिम संस्कार किया गया। राजकुमारी फिरोजा ने भी अपने जीवन को व्यर्थ मानकर, यमुना नदी में छलांग लगाली इस प्रकार वीरमदेव के साथ राजकुमारी फिरोजा के जीवन की भी इहलीला समाप्त हो गयी।

सुल्तान का आक्रमण इस प्रकार उपरोक्त कारणों से सुल्तान ने जालौर पर अधिकार करने के लिए 1308 ई. में दिल्ली से विशाल मुस्लिम सेना को रवाना किया। जालौर पर अधिकार स्थापित करने के लिए, 30 मील की दूरी पर स्थित सिवाणा के किले पर अधिकार करना जरूरी था। इस दुर्ग की रक्षा का दायित्व शीतलदेव चौहान सरदार के हाथों में था। सिवाणा के दुर्ग का घेरा जुलाई 1308 ई. में मुस्लिम सेना ने सिवाणा के दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया। राजपूत सरदारों ने मुस्लिम सेना पर घातक हमले किये जिनमें अलाउदीन का नाहरखी नामक सेनानायक मारा गया राजपूतों के द्वारा कड़े प्रतिरोध के कारण मुस्लिम सेना को कोई सफलता नहीं मिली। इससे चिंतित होकर सुल्तान अलाउद्दीन स्वयं एक और सेना लेकर दिल्ली से सिवाना पहुँचा। सुल्तान भारतीय योद्धाओं की गो भक्ति और विद्रोहियों की कमजोरियों को भली भांति जानता था, उसने इनका पूर्व में लाभ भी उठाया था।

दुर्ग का पतन उसी तरह राजद्रोही भावले को सुल्तान ने अपनी ओर मिला लिया और उससे दुर्ग के जल स्रोत में गो रक्त मिलवा दिया, जिससे दुर्गवासियों के लिए जल संकट उपस्थित हो गया। दीर्घकाल से चले आ रहे घेरे के कारण खाद्य सामग्री भी समाप्त होने जा रही थी इस प्रकार संकट की स्थिति को देखकर राजपूती ललनाओं ने जौहर रचाया तथा वीरों ने केसरिया बाना धारण कर दुर्ग के फाटक खोल दिये शत्रु सेना पर टूट पड़े लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए सियाणा के दुर्ग पर खिलजी सेना का अधिकार हो गया। इसके पश्चात् इस सेना ने बाड़मेर, सांचोर तथा भीनमाल नगरों में भीषण तबाही मचायी। सुल्तान वापस लौट गया।

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