JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: इतिहास

ऐहोल अभिलेख किससे संबंधित है , एहोल प्रशस्ति में किस युद्ध का वर्णन है , राजा हर्ष की पराजय का संदर्भ किस अभिलेख में मिलता है

राजा हर्ष की पराजय का संदर्भ किस अभिलेख में मिलता है ऐहोल अभिलेख किससे संबंधित है , एहोल प्रशस्ति में किस युद्ध का वर्णन है ?

छठी शताब्दी के मध्य में दक्षिण भारत में चालुक्य वंश एक शक्तिशाली वंश के रूप में उभरा। इस वंश की दो शाखाएं थीं वातापी या बादामी एवं कल्याणी। वातापी के चालुक्यों ने 550-773 ई. के मध्य शासन किया। इनके पतनोपरांत लगभग 20 वर्षों तक राजनीतिक शून्यता बनी रही किंतु 793 ई. के समीप चालुक्यों की दूसरी शाखा कल्याणी के चालुक्यों का शासन प्रारंभ हो गया।
इस वंश के शासकों ने 793 ई. से 1190 ई. तक शासन किया। एहोल के एक जैन मंदिर की दीवारों में वातापी के चालुक्य शासकों का प्रारंभिक इतिहास एवं इस वंश के महान शासक पुलकेशिन द्वितीय (610-643 ई.) की विभिन्न विजयों की सूची उत्कीर्ण की गई है। यह एक प्रशस्ति रूप है, जिसे ‘एहोल प्रशस्ति‘ या ‘एहोल अभिलेख‘ कहा जाता है। इसकी रचना एक जैन कवि रविकीर्ति ने की थी। इस प्रशस्ति के अनुसार, पुलकेशिन द्वितीय ने दक्षिण में बनवासी के कदंबों एवं मैसूर के गंगों को हराया। उत्तर में उसने कोंकण के मौर्यों को हराया। उसने लाट, मालवा एवं गुर्जर प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की तथा 625 ई. तक दक्कन के अधिपति की तरह उभर कर आया। किंतु उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विजय हर्ष पर थी। नर्मदा नदी के तट पर एक भीषण युद्ध में उसने हर्ष को पराजित कर दिया। यह युद्ध 631 से 634 ई. के मध्य किसी समय हुआ था।

गुप्तोत्तर काल

छठी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य के पतनोपरांत विखंडन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई तथा कई छोटे एवं नवीन साम्राज्यों का उदय हुआ। ये छोटे साम्राज्य अधिकांशतः उन क्षेत्रों में खड़े हुए, जो या तो गुप्तों के अधीन थे, या ऐसे सामंत जो गुप्तों की अधीनता स्वीकार करते थे, उन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर नए साम्राज्य बना लिए। इन विभिन्न नवीन उदित साम्राज्यों, यथा-मौखरियों, हूणों, उत्तरवर्ती मगधीय गुप्तों एवं गौड़ों के भविष्य में समय-समय पर उतार-चढ़ाव आता रहा। इस समय हर्ष जैसे कुछ शक्तिशाली शासकों ने लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया किंतु उनका शासन ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल सका। दक्कन में, बादामी के चालुक्य तथा कांची के पल्लव सबसे शक्तिशाली राजवंश थे, जो लंबे समय तक आपसी संघर्ष में उलझे रहे। मौखरी वंश की दो शाखाएं थीं। ये प्रारंभ में उत्तर प्रदेश एवं बिहार में गुप्तों के अधीन सामंत थे। इस वंश के चतुर्थ शासक ईशान वर्मा ने कालांतर में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी तथा एक नए साम्राज्य की स्थापना कर ली। उसने ‘महाराजाधिराज‘ की उपाधि धारण की तथा अपने नाम के सिक्के जारी किए। इसकी राजधानी कन्नौज थी। छठी शताब्दी ईस्वी के मध्य में शासन स्थापित करने वाली एक अन्य राजकीय शाखा परवर्ती गुप्तों की थी। ये भी गुप्त शासकों के सामंत थे तथा गुप्तों के पतनोपरांत इन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर नया साम्राज्य स्थापित कर लिया था। इनका शासन 8वीं सदी के मध्य तक जारी रहा। प्रारंभ में इन्होंने मालवा फिर बाद में मगध में शासन किया।
पुष्यभूति वंश उस समय उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली वंश था। यह वंश पुष्यभूति परिवार से संबंधित था। पुष्यभूति वंश ने पहले हरियाणा में थानेश्वर फिर उत्तर प्रदेश में कन्नौज से शासन किया। इस वंश के प्रारंभिक शासक सूर्य के उपासक थे, जिन्होंने 525 से 575 ईस्वी के मध्य शासन किया। थानेश्वर के वर्धन शासकों के समान ही मौखरियों ने भी समय का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। पुष्यभूमि वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन था। इसके शासन काल के संबंध में बहुत सारे साहित्यिक स्रोत उपलब्ध हैं। इनमें से ह्वेनसांग तथा सी-यू-की हर्ष के समय के राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालते हैं। सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों में हर्षकालीन राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर ज्यादा प्रकाश डाला गया है। वेनसांग के अनुसार, अपने राज्याभिषेक के छहः वर्षों के भीतर ही हर्ष ने समस्त भारत पर अधिकार कर लिया। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र के मध्य का समस्त भू-क्षेत्र उसके अधिकार में था। वे क्षेत्र जो, उसके प्रत्यक्ष नियंत्रण में थे-थानेश्वर (पूर्वी पंजाब), कन्नौज, अहिच्छत्र (रोहिलखंड), श्रावस्ती (अवध), एवं प्रयाग, तथा 641 ई. के पश्चात् इसमें शामिल होने वाले क्षेत्र थे-मगध, उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा) एवं काजंगल (राजमहल)। इन राज्यों के अतिरिक्त कई दूरदराज के क्षेत्र एवं सामंत भी उसके अधीन थे। हर्ष ने चीनी शासक के दरबार में अपना एक दूतमंडल भेजा था। ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत की समृद्धि की विस्तार से चर्चा करता है। उसके अनुसार कन्नौज एक विकसित होता शहर था, जबकि पाटलिपुत्र का पतन हो रहा था। विद्या अध्ययन की भाषा संस्कृत थी तथा ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया जाता था। इस समय बौद्ध धर्म की शिक्षा के लिए नालंदा विश्वविद्यालय विश्व प्रसिद्ध था। हर्ष वर्धन प्रारंभ में सूर्य एवं शिव का उपासक था किंतु ऐसा अनुमान है कि वेनसांग के प्रभाव से बाद में उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। उसने 643 ई. में कन्नौज में एक महासभा का आयोजन किया तथा अपने दरबार में कई प्रमुख साहित्यिक विभूतियों को प्रश्रय प्रदान किया।

पल्लवों की उत्पत्ति के संबंध में सर्वाधिक स्वीकार्य मत यह है कि वे प्रारंभ में सातवाहनों के अधीन थे, किंतु जैसे ही सातवाहनों का पतन हुआ, वे स्वतंत्र हो गए तथा अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। प्राकृत भाषा में प्राप्त एक अभिलेख में कहा गया है कि पल्लव गैर-तमिल थे। प्रारंभिक पल्लव शासक सिंहविष्णु (575-600 ई.) कृष्णा एवं कावेरी नदियों के मध्य स्थित भूमि पर शासन करता था। नरसिंह वर्मन प्रथम (630-638 ई.) पल्लवों का महान शासक था, जिसने तीन लगातार युद्धों में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय को पराजित किया था। ह्वेनसांग ने 640 ईस्वी में पल्लवों की राजधानी कांची की यात्रा की थी तथा यहां उसने बुद्ध, जैन एवं ब्राह्मण तीनों धर्मों का प्रभाव देखा था। उसने पल्लवों का प्रसिद्ध बंदरगाह मामल्लपुरम (महाबलिपुरम) भी देखा था, जिसका नामकरण महान पल्लव शासक ‘महामल्ल‘ के नाम पर किया गया था। महामल्ल ने कई प्रसिद्ध मंदिरों एवं सप्त पैगोडा का भी निर्माण कराया था।

दक्षिण-पूर्व एशिया का भारतीयकरण

दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र में नए व्यापारिक सम्पर्कों की स्थापना से भारत के वाणिज्यिक हितों में वृद्धि हुई। मसाले, भारत एवं रोम के व्यापार की सबसे प्रमुख वस्तु थी। यद्यपि सभी किस्म के मसाले भारत में उपलब्ध नहीं थे, फलतः भारतीय व्यापारी दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर आकर्षित हुए, जहां सभी किस्म के मसालों की प्रचुरता थी। यहां पहुंचने का सबसे आसान मार्ग समुद्र था। यद्यपि इस समय समुद्री मार्ग से यात्रा करना एक जोखिम भरा कार्य था किंतु भारतीय व्यापारी साहसिक यात्राएं करके सुवर्णद्वीप पहुंचे तथा जावा, सुमात्रा एवं बाली द्वीपों की यात्रा की। जब रोम से भारतीय व्यापार कम होने लगा तो भारत का दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार बढ़ने लगा। इस क्षेत्र में व्यापार कर भारतीय व्यापारियों ने अच्छा मुनाफा कमाया। इससे भारत का दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार स्वतंत्र हो गया तथा पश्चिमी प्रभाव से मुक्ति मिल गई।
दक्षिण-पूर्व एशिया से भारत का प्रारंभिक संपर्क ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में ही स्थापित हो गया था। कई वस्तुओं, जैसे, हांथी दांत की बनी कंघी, कार्नेलियन पत्थर की अगूठियों एवं ब्राह्मी लिपियुक्त मुहरों की प्राप्ति से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। इस क्षेत्र के वे स्थान, जो भारत के ज्यादा संपर्क में थे- वहां इस प्रकार की वस्तुएं अधिक पाई गई हैं। जैसे-म्यांमार में श्रीक्षेत्र तथा कुछ तटीय बंदरगाह, सियाम की खाड़ी के समीप भारत एवं चीन के मध्य स्थित ओसियो (OC-EO) बंदरगाह। पुरातात्विक प्रमाणों से भी भारत एवं इस क्षेत्र के व्यापारिक संपर्कों की पुष्टि होती है। भारत में बंगाल की खाड़ी से जो व्यापारिक जहाज यहां पहुंचते थे, वहां भी विभिन्न प्रकार की भारतीय वस्तुएं प्राप्त हुई हैं यथा-इरावदी डेल्टा, माले प्रायद्वीप, मीकोंग डेल्टा में ओसियो, एवं बाली द्वीप समूह। महास्थान, गंगा डेल्टा के समीप स्थित चंद्रकेतु गढ़ एवं पूर्वी तट पर स्थित विभिन्न नगरों की समृद्धि इस व्यापारिक संपर्क का प्रमाण थे।
दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय राजकुमारों एवं राजाओं द्वारा स्थापित साम्राज्यों के संबंध में भी अनेक गाथाएं एवं कथाएं प्रचलित हैं। एक भारतीय ब्राह्मण कौंडिन्य, जिसके संबंध में कहा जाता है कि उसने कंबोडिया की राजकमारी से विवाह किया था उसे कंबोडिया में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने का श्रेय दिया जाता है। कलिंग के कई व्यापारी भी म्यांमार के इरावडी डेल्टा में स्थायी रूप से बस गए थे। इसी प्रकार विभिन्न भारतीय साहित्यों यथा-जातक कथाओं में भारतीय व्यापारियों द्वारा इस क्षेत्र में किए गए साहसिक अभियानों का उल्लेख है। दक्षिण-पूर्व एशिया के स्थानीय स्रोतों से भी भारतीयों के व्यापारियों के रूप में इस क्षेत्र में जाने एवं निवास करने के प्रमाण प्राप्त होते हैं। कई भारतीय यहां धर्म पंडितों के रूप में भी गए थे। भारतीयों ने इस क्षेत्र के नगरों के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी तथा उनकी समृद्धि से यहां भारतीय संस्कृति फली-फूली। दक्षिण-पूर्व एशिया के भारतीयकरण का एक अन्य महत्वपूर्ण कारक व्यापारियों एवं मिशनरियों द्वारा भारत से इस क्षेत्र में धर्म का प्रचार-प्रसार भी रहा है। भारतीय धर्मों में यहां सबसे अधिक प्रचार हीनयान बौद्ध धर्म का हुआ।

Sbistudy

Recent Posts

मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi

malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…

4 weeks ago

कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए

राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…

4 weeks ago

हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained

hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…

4 weeks ago

तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second

Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…

4 weeks ago

चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi

chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…

1 month ago

भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi

first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…

1 month ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now