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Categories: इतिहास

ऋग्वेद में कितने मंडल है , how many mandals are there in rigveda in hindi ऋग्वेद में कुल कितने सूक्त है

ऋग्वेद में कुल कितने सूक्त है ऋग्वेद में कितने मंडल है , how many mandals are there in rigveda in hindi ?

उत्तर : हिन्दू पौराणिक साहित्य में सर्वप्रथम वेदों को सम्मिलित किया जाता हैं। वेद का अर्थ ‘ज्ञान‘ होता हैं। वेद चार हैं, जो निम्न हैं
ऋग्वेद: वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम है। ऋक का अर्थ होता है छन्दों या चरणों से युक्त मंत्र। इसमें 10 मण्डल है तथा 1028 सूक्त हैं। इस वेद का रचना काल 1500-1000 B.C. का माना जाता है। इसमें ऋग्वेदिक कालीन आर्यों के पहली बार चार वर्णों ब्राह्मण धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। इसके 10वें मण्डल के पुरुष सूक्त में पहली बार चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व व शुद्र का उल्लेख किया गया है।
सामवेद: साम का अर्थ है ‘गान‘। वह वेद जिसके मंत्र यज्ञों में देवताओं की स्तुति करते हुए गाये जाते थे। सामवेद मंत्रों को गाने वाले विशेषज्ञों को ‘उद्गाता‘ कहा जाता था।
यर्जुवेद: ‘यजु‘ का अर्थ होता हैं ‘यज्ञ‘ इसमें अनेक प्रकार की यज्ञीय विधियों का प्रतिपादन किया गया है। यर्जुवेट के मंत्रों से यज्ञ करते हुए देवताओं का आह्वान करने वाले व्यक्ति को ‘होता‘ कहा जाता था। यह वेद कर्मकाण्ड: इसकी दो शाखाएं हैं – शुक्ल यर्जुवेद व कृष्ण यर्जुवेद। इसका अंतिम अध्याय ईशोपनिषद् है जिसका विषय याज्ञिक होकर दार्शनिक अथवा आध्यात्मिक है।
अर्थवेद: इसमें राजभक्ति, विवाह, प्रणयगीत, रोग निवारण, औषधि, ब्रह्मज्ञान, शत्रुदमन, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना आदि की वर्णन किया गया है। इसकी रचना अथर्वा ऋषि ने की। इसमें आर्य एवं अनार्य विचारधारा का समन्वय मिलता है। इसी दो शाखाएं हैं – पिपलाद व शौनक। ब्राह्मण ग्रंथ: ब्रह्म का अर्थ है ‘यज्ञ‘। वेदों की सरल व्याख्या करने वाले ग्रंथों को ब्राह्मण कहा गया है। वैदिक मंत्रों की व्याख्या करते हुए ही ये अपने यज्ञों का प्रतिपादन करते हैं। वेद जिन्हें ‘संहिता‘ भी कहा गया है इनके अलग-अलग ब्राह्मण हैं- ऋग्वेद के ऐतरेय व कौषितकीय, यर्जुवेद के शतपथ (वाजस्नेही) व तैतरीय, सामवेद के पंचविश (तांडव) तथा अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण है।
अरण्यक: ‘अरण्य‘ का अर्थ होता है ‘वन‘ अर्थात् वे ग्रंथ जिनकी रचना एकांत वन में की गई और वहीं पढ़े गये। इनमें कोरे यज्ञवाद के स्थान पर चिंतनशील ज्ञान पक्ष को अधिक महत्व दिया गया है। इनमें आत्मा, मृत्यु तथा जीवन संबंधित विषयों का वर्णन किया गया है। इनकी संख्या 7 है। ऐतरेय, शांखायन, मैत्रायणि, तन्वलकार, माध्यदिन, तैतिरैय, बृहदारण्यक।
उपनिषद: इसका शाब्दिक अर्थ है श्समीप बैठनाश् अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु के निकट बैठना। इनका मुख्य विषय है यांत्रिक यज्ञों के स्थान पर ज्ञान यज्ञ का प्रतिपादन, संसार के नानात्व के ऊपर एकत्व का और बहुदेववाद के स्थान पर ब्रह्म की स्थापना है। इनमें ब्रह्मा तथा सृष्टि सम्बन्धी मंत्रों का सुन्दर वर्णन है। ये पूर्णतः दार्शनिक और आध्यात्मिक ग्रंथ हैं जो वैदिक यज्ञों की जटिलता, बलि प्रथा आदि की निरर्थकता साबित करते हैं। इनकी संख्या 108 बतायी जाती है। वेदों के अंत में लिखे जाने के कारण इन्हें वेदांत भी कहते हैं। प्रमुख उल्लेखनीय उपनिषद् निम्नलिखित हैं – ईश, केन, कठ, मुण्डक, माडुक्य, ऐतरेय, तैतिरीय, श्वेताश्वर, छान्दोग्य, बृहदारण्यक एवं कौषितकीय।
वेदांग: इनकी संख्या 6 है, ये हैं –
(a) शिक्षा: इनमें वैदिक स्वर का विशुद्ध रूप में उच्चारण करना बताया गया है।
(b) कल्प: इनमें वैदिक कार्यों का अनुष्ठान और यज्ञों के विधि विधान बताये गये हैं। इन्हें सूत्र भी कहा जाता है। इनकी संख्या 4 है। (i) श्रौत सूत्र: इसमें यज्ञिय विधि विधान का प्रतिपादन किया गया है। (ii) गृह सूत्र: इस कर्मकाण्ड एवं यज्ञिय मंत्र बताये गये हैं। (iii) धर्म सूत्र: इनमें राजनीतिक, विधि एवं व्यवहार आदि विषय दिये गय हैं। (iv) शल्व सूत्र: इसमें यज्ञिय वेदियों को नापने, उनके स्थान चयन, निर्माण आदि की ज्यामितिय संरचना संबंधित विषय दिये गये हैं।
(ब) व्याकरण: इसमें नामों व धातुओं की रचना, उपसर्ग व प्रत्यय के प्रयोग, समास व सन्धियों आदि के नियम बता गये हैं। सबसे प्राचीन व्याकरण पाणिनि की अष्टाध्यायी (8 अध्याय) है। कात्यायन का वार्तिक (व्याकरण), पतंजाल महाभाष्य तथा अमरसिंह का अमरकोश है अन्य व्याकरण ग्रंथ है।
(क) निरूक्त: इसमें यह बताया गया है कि अमुक शब्द का अमुक अर्थ क्यों होता हैं अर्थात् शब्दों की व्युत्पत्ति का जिक्र इसमें किया गया है। इस संदर्भ में यास्क ने अपना निरूक्त लिखा था।
(म) छन्द: इसमें वैदिक ध्वनियों का प्रवाह बताया गया है अर्थात् शब्दों एवं पाठों का ठीक ढंग से उच्चारण कैसे हो।
()ि ज्योतिष: ज्योतिष का सबसे प्राचीन आचार्य लगध मुनि को माना जाता है। जिसमें शुभ मर्हत, शकुन, अपशकुन, भविष्यवाणियाँ आदि विषय दिए गए हैं जो ग्रह एवं नक्षत्र सम्बन्धी ज्ञान है। बाद में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मा भास्कराचार्य आदि प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य हुए है।
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न: पवित्र जैन साहित्य को किस नाम से जाना जाता है तथा यह किस भाषा में लिखा गया है ?
उत्तर: पवित्र जैन साहित्य को ‘आगम‘ के नाम से जाना जाता है। यह प्राकृत भाषा में लिखा गया है।
प्रश्न: जातक कथाएं क्या है ?
उत्तर: खुद्दक निकाय में जातक कथाओं का वर्णन किया गया है। ये बद्ध के पर्व जीवन से संबंधित कथाएं हैं। जातकों से गणतंत्रों, नागरिक जीवन, प्रशासनिक व्यवस्था, अस्पृश्यता. दासों की स्थिति एवं व्यापार वाणिज्य की जानकारी प्राप्त होती है।
प्रश्न: जैन साहित्य
उत्तर: जैन साहित्य को आगम कहते हैं। यह प्राकृत भाषा में लिखा गया। जिसे अंतिम लिखित रूप वल्लभी की जैन सभा में दिया गया। आगम में 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रीण, 6 छन्द सूत्र, व मूल सत्र सम्मिलित हैं। ऐतिहासिक रूप से भगवती सूत्र, आचरांग सूत्र, परिशिष्ठिपरवन, भद्रबाहुचरित, कालिका पुराण, पद्म पुराण, हरिवंश पुराण, कल्पसुत्र प्रमुख हैं।
जैन प्राकृत ग्रंथ
लेखक – ग्रंथ
हरिभद्र – समराइचिकथा व घूर्ताख्यान, वीरांगदकथा
गुणभद्र – महावीरचरित हेमचंद्र कुमारपाल चरित
देवभद्र – प्राकृत व्याकरण
लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न: प्राचीन भारतीय साहित्य में उल्लेखित बुद्धकालीन महाजनपदों की सूची बनाइए।
उत्तर: पाणिनि कालीन जनपद: जो महाजनपद की सूची में मिलते है-मगध, काशी, कोसल, वज्जि, कुरू, अश्मक, अंवति, गांधार तथा कम्बोज।
महाभारत कालीन जनपद: महाभारत के कर्णपर्व में उल्लेखित मुख्य जनपद-कुरू, पांचाल, शाल्व, मत्स्य, नैमिष, कौसल, काशी, अंग, कलिग, मगध, सूरसेन, गांधार और मद्र।
पुराणों के भुवनकोश में उल्लेखित जनपद: पुराणों के भुवनकोश में उल्लेखित जनपदों को स्वीकार नहीं किया जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का वर्तमान रूप गुप्तकाल में स्थापित हुआ था। जैन ग्रंथो की सूचियाँ रू भगवती सूत्र 16 महाजनपद है। जिनमें से अंग-मगध, काशी-कौसल, वज्जि व वत्स अंगुत्तर निकाय की सूची में भी मिलते हैं।
बौद्ध-ग्रंथों में: अंगुत्तर निकाय, महावत्थु, ललितविस्तर, इन्द्रिय जातक, महागोविंद सुत्त एवं दीर्घनिकाय के जनभुवन सुत्त में जनपदों का उल्लेख मिलता है, लेकिन अंगुत्तर निकाय के ही मान्य है। अंगुत्तर निकाय में उन 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है जो भगवान बुद्ध के काल में विद्यमान थे। जो हैं –
अंग-मगध, काशी-कोशल, कुरू-पांचाल, वज्जि-मल्ल, चेदि-वत्स, शूरसेन-मत्स्य, अश्मक-अति तथा गांधार- कम्बोज।

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