उपाध्यक्ष क्या होता है | लोकसभा उपाध्यक्ष का क्या काम होता है सदन कार्य बताइए | deputy speaker of lok sabha in hindi

deputy speaker of lok sabha in hindi लोकसभा उपाध्यक्ष क्या होता है | जिला उपाध्यक्ष का क्या काम होता है सदन कार्य बताइए ?

उपाध्यक्ष
जब कभी अध्यक्ष अनुपस्थित हो तो उसके स्थान पर उपाध्यक्ष सदन की अध्यक्षता करता है और इस प्रकार अध्यक्षता करते हुए वह प्रक्रिया नियमों के अधीन मदन में अध्यक्ष की सब शक्तियों का प्रयोग करता है। उपाध्यक्ष उस बजट समिति का सभापति होता है जो सचिवालय के बजट प्रस्ताव सामान्य बजट में सम्मिलित करने के लिए वित्त मंत्रालय को भेजे जाने से पूर्व उनका अनुमोदन करती है । इसके अतिरिक्त, अध्यक्ष के समान, लोक सभा सचिवालय, उसके अधिकारियों और कर्मचारियों के संबंध में उपाध्यक्ष के न तो कोई कृत्य होते हैं, न कोई उत्तरदायित्व । इस प्रकार, उपाध्यक्ष पीठासीन उप अधिकारी होता है परंतु सचिवालय के या सदन के सर्वाेच्च अधिकारी या प्रशासनिक प्रमुख के रूप में अध्यक्ष का कनिष्ठ अधिकारी नहीं होता।
सदन की बैठकों में अधिकांश समय सदन की अध्यक्षता उपाध्यक्ष करता है जबकि अध्यक्ष अपने कक्ष में अन्य संसदीय मामलों में व्यस्त रहता है। आमतौर पर, अध्यक्ष मध्याह्न पूर्व, विशेष रूप से प्रश्नकाल के दौरान और प्रश्नकाल के तुरंत बाद के अति कठिनाई के समय पीठासीन रहता है। वह दिन में किसी समय जब यह देखे कि किसी विशेष महत्व वाले विषय पर चर्चा हो रही है या सदन में ऐसी विशेष स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उसकी उपस्थिति आवश्यक है तो सदन में आकर उसकी अध्यक्षता कर सकता है। जिन विचाराधीन मामलों के संबंध में उपाध्यक्ष विनिर्णय देता है वह उन मामलों में तो अंतिम होता है परंतु अध्यक्ष प्रक्रिया की निश्चितता एवं प्रथा की समरूपता की दृष्टि से, भविष्य में वैसी ही परिस्थितियों में पालन के लिए सामान्य मार्गदर्शन कर सकता है। कभी कभी उपाध्यक्ष अध्यक्ष के विनिर्णय के लिए कोई मामला रक्षित रख सकता है या निर्णय देने से पूर्व उससे परामर्श कर सकता है।
उपाध्यक्ष को सदन में बोलने का, उसके विचार विमर्शों में भाग लेने का और सदन के समक्ष किसी प्रस्ताव पर सदस्य के रूप में मतदान करने का अधिकार होता है परंतु ऐसा वह तभी कर सकता है जब पीठासीन न हो । जब उपाध्यक्ष स्वयं पीठासीन हो तो वह केवल ऐसी स्थिति में अपना मत दे सकता है जब किसी मामले के पक्ष और विपक्ष में बराबर मत दिये गये हों । दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में यदि अध्यक्ष अनुपस्थित हों तो ऐसी बैठक की उपाध्यक्ष अध्यक्षता करता है और उसमें अध्यक्ष की शक्तियों का वैसे ही प्रयोग करता है जैसे कि वह सदन के विचार विमर्श के दौरान करता है।
उपाध्यक्ष अपने दल की राजनीति में भाग तो ले सकता है परंतु व्यवहार में वह सदन में अपनी निष्पक्षता बनाए रखने के लिए जहां तक हो सके विवादास्पद मामलों से अपने को, अलग रखता है।
उपाध्यक्ष के पद के साथ जो प्रथाएं और परंपराएं विकसित हुई हैं उनके अनुसार यदि वह किसी संसदीय समिति का सदस्य मनोनीत या नियुक्त किया जाए तो वह उसका सभापति भी नियुक्त हो जाता है । उपाध्यक्ष के पद के लिए सामान्यतया विपक्ष के किसी सदस्य को चुना जाता है।
उपाध्यक्ष के पद का, जिसे 1947 तक डिप्टी प्रेजीडेंट कहा जाता था, उद्भव केंद्रीय विधानमंडल के साथ ही हुआ ।जो व्यक्ति उपाध्यक्ष के पद पर रहे हैं उनके नाम और निर्वाचन की तिथियां इस प्रकार हैं:
स्वतंत्रता-पूर्व
1. सचिदानन्द सिन्हा (3 फरवरी, 1921)
2. सर जमेस्तजी जाजीभाय (21 सितंबर, 1921)
3. दीवान बहादुर टी. रंगाचारियर (4 फरवरी, 1924)
4. सर मोहम्मद याकूब (30 जनवरी, 1927)
5. एच.एस. गौड़ (11 जुलाई, 1930)
6. शनमुखम चेट्टी (19 जनवरी, 1931)
7. अब्दुल मातिन चैधरी (21 मार्च, 1934)
8. अखिल चन्द्र दत्त (5 फरवरी, 1936)
9. सर मोहम्मद यामीन खां (5 फरवरी, 1946)

स्वतंत्रता-पश्चात
1. अनन्तशयनम अय्यंगर (30 मई, 1952-8 मई, 1956)
2. सरदार हुकम सिंह (20 मई, 1956-31 मार्च, 1962)
3. कृष्णमूर्ति राव (23 अप्रैल, 1962-3 मार्च, 1967)
4. आर. के. खाडिलकर (28 मार्च, 1967-1 नवंबर, 1969)
5. जी.जी.स्वैल (9 दिसंबर, 1969-6 जनवरी, 1977)
6. गौड़े मुराहरि (1 अप्रैल, 1977-22 अगस्त, 1979)
7. जी. लक्षमणन (2 फरवरी, 1980-31 दिसंबर, 1984)
8. थाम्बी दुरै (22 जनवरी, 1985-27 नवंबर, 1989)
9. शिवराज पाटिल (19 मार्च, 1990-13 मार्च, 1991)
10. एस. मल्लिकार्जुनईया (13 अगस्त, 1991-)

सभापति तालिका
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष यदि दोनों ही किसी बैठक में उपस्थित न हों तो सभापति-तालिका के छह सदस्यों में से, जिन्हें अध्यक्ष समय समय पर मनोनीत करता है, कोई एक सदस्य सदन की अध्यक्षता करता है। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सभापति-तालिका का कोई भी सदस्य सदन में उपस्थित न हो तो सभापति के रूप में कार्य करने के लिए सदन द्वारा सदन का कोई अन्य सदस्य चुन लिया जाता है और तब तक अध्यक्षता करता है जब तक कि सभापति-तालिका का कोई सदस्य या उपाध्यक्ष या अध्यक्ष पीठासीन होने के लिए सदन में नहीं आ जाता।
जैसाकि उपाध्यक्ष के मामले में होता है, सदन की अध्यक्षता करते समय किसी सभापति को भी वे सब शक्तियां प्राप्त होती हैं जो अध्यक्ष को प्राप्त हैं 25 सभापति द्वारा जिस मामले में और जिस बात पर विनिर्णय दिया जाए वह उस मामले में या उस बात पर वैसा ही अंतिम और बंधनकारी होता है जैसे अध्यक्ष द्वारा दिया गया विनिर्णय होता है। परंतु सभापति कोई महत्वपूर्ण मामला अध्यक्ष के निर्णय के लिए रक्षित रख सकता है। जब तक सभापति पीठासीन हो तब उसके आचरण की निंदा करना सदन की अवमानना है; उसे पूरा सम्मान दिया जाना अनिवार्य है जो सदन के पीठासीन अधिकारी को दिया जाना होता है।
सभापति सदन की सब चर्चाओं में पूरी तरह भाग लेने और विवादास्पद मामलों सहित सदन के समक्ष आने वाले सब मामलों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए मुक्त होता है। वह अपने दल की बैठकों में उपस्थित होता है और सामान्यतया अपने दल का सक्रिय सदस्य होता है । अध्यक्ष सभापति-तालिका के लिए सदस्य सदा दोनों पक्षों में से चुनता है, सत्तारूढ़ दल में से और विपक्षी दलों में से भी। सभापति-तालिका के सदस्य की पदावधि सामान्यतया एक वर्ष की होती है परंतु एक ही व्यक्ति को बार बार मनोनीत किया जा सकता है। यह चयन केवल अध्यक्ष करता है परंतु चयन करने से पूर्व वह सदन के राजनीतिक दलों के नेताओं से परामर्श कर सकता है।