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आरम्भिक मध्यकालीन भारत के राज्य (750-1200 ई.) क्या है , प्रारंभिक मध्यकाल में चोल साम्राज्य
प्रारंभिक मध्यकाल में चोल साम्राज्य ?
आरम्भिक मध्यकालीन भारत के राज्य (750-1200 ई.)
भारत में प्रारंभिक या पूर्व-मध्यकाल में समाज के लगभग सभी क्षेत्रों, चाहे यह राजनीतिक क्षेत्र हो या सामाजिक, आर्थिक अथवा धार्मिक सभी में इस काल में परिवर्तन दर्ज किए गए। हर्ष के साम्राज्य के पतन के उपरांत उत्तर भारत में दो शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआः बंगाल में पाल एवं उत्तरी एवं पश्चिमी भारत में प्रतिहार। 750 से 1000 ईस्वी तक कन्नौज में नियंत्रण के लिए तीन प्रमुख शक्तियों-पाल, गुर्जर-प्रतिहार एवं राष्ट्रकूटों में लंबा संघर्ष हुआ, जिसमें अंततः गुर्जर-प्रतिहारों को सफलता मिली।
प्रारंभ में राष्ट्रकूट केंद्रीय सरकार के अधीन क्षेत्रीय शासक के रूप में कार्य करते थे। बाद में इस वंश के दन्तिदुर्ग ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी तथा लगभग आधी चालुक्य रियासतों पर अधिकार कर लिया। प्रारंभ में दन्तिदुर्ग भी चालुक्यों का ही सामंत था। गुर्जर-प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय ने पालों एवं प्रतिहारों को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया तथा उत्तर भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। गुर्जर-प्रतिहारों ने सर्वप्रथम अपना शासन जोधपुर के समीप मंडौर में स्थापित किया। इस वंश की वह शाखा, जिसने उज्जैन के साम्राज्य की स्थापना की थी, के शासक नागभट्ट द्वितीय ने जब कन्नौज पर अधिकार करने का प्रयास किया तो पाल शासक धर्मपाल से उसका मुकाबला हुआ। नागभट्ट द्वितीय ने धर्मपाल को पराजित कर दिया। गुर्जर प्रतिहारों के महान शासक भोज के साम्राज्य में उत्तर भारत का एक बड़ा भू-भाग सम्मिलित था। बंगाल में गुप्तों के पतन के बाद शंशांक ने गौड़ में एक स्वतंत्र साम्राज्य की स्थापना कर ली थी किंतु उसकी मृत्यु के उपरांत हर्ष ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। पालवंश के शासक महिपाल ने उत्तर, पश्चिम एवं पूर्वी बंगाल में विजयें प्राप्त की तथा अपने साम्राज्य की सीमाओं को पश्चिम में बनारस तक पहुंचा दिया। पालों को सेनों ने सत्ताच्युत कर दिया तथा इस वंश शासक विजयसेन ने सम्पूर्ण बंगाल पर एकछत्र राज्य स्थापित किया।
कल्याणी के चालुक्य, जिन्होंने 793 से 1190 ई. तक शासन किया ने वातापी के चालुक्यों के वंशज होने का दावा किया। 973 ई. में इस साम्राज्य को तैलप द्वितीय ने पुनःस्थापित किया। इसने राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष द्वितीय को पराजित किया तथा उसके साम्राज्य के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया। इसमें मालवा का दक्षिण-पूर्वी हिस्सा भी सम्मिलित था। गंग वंश ने राजधानी तलकाड से शासन किया। इनका वेंगी के चालुक्यों, राष्ट्रकूट एवं चोलों से लंबा संघर्ष हुआ। इसमें ये अपनी राजधानी भी खो बैठे। कल्याणी के चालुक्यों के पतन के उपरांत यादवों का अभ्युदय हुआ। इसकी राजधानी देवगिरि पर 1294 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने अधिकार कर लिया। उत्तरवर्ती चालुक्यों के सामंत काकतीय तेलंगाना में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे किंतु बहमनी शासकों ने इन्हें पराजित कर दिया। 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में होयसल एक प्रमुख शक्ति बन गए। इसके शासक बिट्टिग विष्णुवर्धन ने अपनी राजधानी बेलापुर से द्वारसमुद्र स्थानांतरित कर दी। होयसलों ने कई मंदिरों का निर्माण कराया
राजपूतों का उदय 8वीं शताब्दी के मध्य में हुआ। इनकी उत्पत्ति का मत विवादग्रस्त है किंतु ऐसा अनुमान है कि कालांतर में इन्होंने क्षत्रिय वंश धारण कर लिया था। इस काल के प्रमुख राजपूत राज्यों में सम्मिलित थे-शाकमरी (अजमेर के निकट सांभर) के चैहान या चाहमान। 1191 में मुहम्मद गौरी के विरुद्ध चैहान वंश के पृथ्वीराज चैहान ने राजपूतों का एक संघ बनाया परंतु वह पराजित हो गया तथा उसके साम्राज्य को दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित कर लिया गया। सोलंकी या चालुक्यों ने गुजरात एवं काठियावाड़ में शासन किया। इन्होंने 950 से 1300 ई. तक शासन किया। परमारों ने 9वीं शताब्दी में मालवा में शासन किया, जिनकी राजधानी धार थी। गहड़वालों ने कन्नौज से शासन किया।
इस काल में 712 ई. के लगभग मु. बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने सिंध पर विजय प्राप्त कर ली तथा लगभग 200 वर्षों तक शासन किया। लेकिन भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना तुर्कों ने की। मध्य एशिया के महमूद गजनवी ने 1000 से 1026 ई. के मध्य भारत पर अनेक आक्रमण किए तथा भारत के उत्तर-पश्चिम के कई क्षेत्रों को रौंद डाला, परंतु यह मोहम्मद गुर था जिसने 1173 ईस्वी में गजनी में अपनी सरकार स्थापित की तथा भारत में अनेक सैन्य अभियान चलाए। पृथ्वीराज चैहान के नेतृत्व में राजपूतों के संघ को पराजित कर उसने अपने प्रभुत्व के लिए सबसे बड़े संकट को समाप्त कर दिया तथा स्वयं और अपने सेनापतियों द्वारा जीते गए क्षेत्रों के संघटन का कार्य प्रारंभ कर दिया। तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चैहान को पराजित करने के उपरांत उसने भारत में तुर्क साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
प्रारंभिक मध्यकाल में चोल साम्राज्य
प्रारंभिक चोल, जिन्होंने संगम काल में शक्ति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी, नवीं शताब्दी के मध्य में पुनः शक्तिशाली हो गए तथा उन्होंने द्वितीय चोल साम्राज्य की नींव रखी। इस वंश के आदित्य प्रथम ने कांची के पल्लवों को परास्त कर दिया तथा दक्षिणी तमिल देश को अपने अधीन कर लिया। राजराजा (985-1014) ने भारत से बाहर भी कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। इनमें प्रमुख थे-श्रीलंका के उत्तरी भाग तथा मालदीव द्वीप समूह। उसके पुत्र राजेन्द्र प्रथम ने समुद्रपारीय विजय प्राप्त की, चोलों की समुद्रपारीय विजयों का सबसे प्रमुख कारण यह था कि उनके पास शक्तिशाली नौसेना थी। राजेंद्र के उत्तराधिकारी भी साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाए रखने में सफल रहे।
चोल शासन अपनी स्थानीय स्वायत्तता की व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध था। चोल साम्राज्य में 8 या 9 प्रांत थे, जिन्हें ‘मंडलम‘ कहा जाता था। इनमें से प्रत्येक जिलों या ‘वलनाडू‘ में विभक्त थे। जिले ग्रामों के कई समूहों से मिलकर बने होते थे, जिन्हें विभिन्न नामों, यथा-कुर्रम, नाडू या कोट्टम के नाम से जाना जाता था। कई बार. एक बड़ा गांव जिसे ‘तानियार‘ कहते थे, एकल प्रशासनिक इकाई के रूप में गठित कर दिया जाता था। चोल साम्राज्य में सभी गांवों को स्वायत्तता प्राप्त थी। इन गांवों में सरकारी अधिकारी परामर्श दाता एवं निरीक्षक का कार्य करते थे न कि वे नियंत्रक एवं प्रशासक थे। इसके परिणामस्वरूप गांवों का अत्यधिक विकास हुआ एवं उनमें समृद्धि आयी। ये गांव ऊपरी स्तर पर होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों से अछूते रहते थे। राजस्व का संग्रहण ग्रामसभा के माध्यम से ग्रामवासी स्वयं एकत्रित करते थे। जहां से जागीरदार राजा के राजस्व हिस्से को प्रेषित करते थे।
तंजौर, चोल साम्राज्य का एक प्रमुख नगर था, जो निचले कावेरी बेसिन में स्थित था। यह चोलों की राजधानी भी था तथा यहीं प्रसिद्ध राजराजेश्वरी मंदिर था। तिरुचिरापल्ली के निकट गंगैकोण्ड चोलपुरम को नयी राजधानी बनाने से राजेन्द्र चोल को उत्तरी भारत एवं कांचीपुरम में सफलतापूर्वक अभियान करने में अत्यधिक सहायता मिली। जब आदित्य चोल ने पल्लव क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर ली, उसके उपरांत चोलों ने कांचीपुरम को चोल साम्राज्य की दूसरी राजधानी बनाया। चोल शासक सेना का मुख्य सेनापति एवं नौसेना का प्रमुख भी होता था।
इस क्षेत्र की यात्रा करने वाले विभिन्न यात्रियों एवं पर्यटकों के विवरणों से भी इस क्षेत्र की समृद्धि की जानकारी प्राप्त होती है। यहां के बंदरगाहों से कपड़े, धातु का सामान, हाथी दांत की वस्तुओं एवं रेशम का बड़ी मात्रा में निर्यात किया जाता था। चोल व्यापारी पूर्वी तट में मामल्लपुरम, कावेरीपट्टनम, शलियूर एवं कोरकई तथा पश्चिम में मालाबार तट पर क्विलोन में स्थित विस्तृत एवं व्यापक अवस्थापनाओं से व्यापार करते थे। दसवीं शताब्दी में चीन के साथ व्यापार अत्यधिक बढ़ गया तथा व्यापारिक जहाज दक्षिणी मलय प्रायद्वीप एवं सुमात्रा तक पहुंचने लगे। व्यापारिक महत्व के कारण चोल शासकों ने इन क्षेत्रों के कई सामरिक महत्व के क्षेत्रों को भी अपने नियंत्रण में रखा। व्यापारिक निगम या श्रेणियां इस व्यापार को नियंत्रित एवं निगमित करती थीं।
दिल्ली सल्तनत
मुहम्मद गौरी की मृत्यु के उपरांत, उसके साम्राज्य को उसके तीन सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वाकांक्षी सेनापतियों के मध्य विभाजित कर दिया गया। ताजुद्दीन यल्दौज को अफगानिस्तान से ऊपरी सिंध के मध्य स्थित भू-क्षेत्र का नियंत्रण सौंपा गया; वसीरुद्दीन कुबाचा उच्छ एवं मुल्तान का शासक बना तथा कुतुबुद्दीन ऐबक, मु. गौरी के भारतीय साम्राज्य का शासक बना। भारत में तुर्की साम्राज्य का संस्थापक कहे जाने वाले ऐबक का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। उसके माता-पिता भी तुर्क थे। ऐबक ने मुहम्मद गौरी को उसके भारतीय अभियानों में सहायता दी थी तथा तराइन के द्वितीय युद्ध के उपरांत गौरी ने भारतीय विजित क्षेत्रों का दायित्व सौंप दिया। दिल्ली के समीप स्थित इंद्रप्रस्थ ऐबक का मुख्यालय था। 1206 तक ऐबक अपने शासक गौरी के प्रतिनिधि के रूप में उसके भारतीय प्रदेशों का शासन संभालता रहा। 1208 से 1210 ई. तक वह स्वतंत्र भारतीय साम्राज्य का सार्वभौम शासक रहा। ऐबक ने भारत में तुर्क विजयों को संगठित भी किया। यद्यपि ऐबक को प्रशासन को सुसंगठित करने का ज्यादा समय नहीं मिला इसीलिए उसके शासन में मुख्य दायित्व सेना द्वारा ही निभाया जाता रहा। लगभग सभी स्थानों पर उसने सेना की तैनाती की थी। स्थानीय प्रशासन लोगों के ही हाथों में था। 1210 में ऐबक की आकस्मिक मृत्यु से तुर्क अमीरों एवं सरदारों के मध्य उसके उत्तराधिकारी का प्रश्न उत्पन्न हो गया।
ऐबक का उत्तराधिकारी, उसका एक दास इल्तुतमिश बना। वह दिल्ली का पहला वास्तविक सुल्तान था। दिल्ली पहुंचकर इल्तुतमिश ने आरामशाह का वध कर दिया तथा ऐबक द्वारा शासित विभिन्न प्रदेशों-दिल्ली का क्षेत्र, अवध, बदायूं, बनारस एवं सम्पूर्ण शिवालिक क्षेत्र पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। 1210 से 1220 के मध्य अपनी सत्ता को चुनौती देने वाले यल्दौज को पराजित कर इल्तुतमिश ने गजनी से पूर्णतया संबंध विच्छेद कर लिया। यल्दौज गजनी का ही शासक था। इल्तुतमिश ने कई नए क्षेत्रों पर अधिकार भी किया। यथा बिहार के क्षेत्र-गंगा का दक्षिण भाग, लखनौती, राजस्थान में रणथम्भौर का किला एवं शिवालिक क्षेत्र में मंडौर। उसने भटिंडा पर भी अधिकार कर लिया तथा सरसुती एवं लाहौर को भी अपने कब्जे में ले लिया। 1229 ई. में उसे बगदाद के खलीफा से खिलअत प्राप्त हुई तथा इस प्रकार वह दिल्ली सल्तनत का स्वतंत्र शासक बन गया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत औपचारिक रूप से स्वतंत्र हो गई। 1236 में इल्तुतमिश की मृत्यु के उपरांत, विभिन्न महत्वाकांक्षी सरदारों के मध्य सुल्तान बनने के लिए आपसी संघर्ष प्रारंभ हो गया। यह संघर्ष तब समाप्त हुआ, जब 1266-67 ई. में बलबन सुल्तान बना। इस बीच कई अल्पावधिक शासक सल्तनत की गद्दी पर बैठते एवं उतरते रहे। बलबन ने शासक बनते ही राज्य व्यवस्था एवं प्रशासन को नए सिरे से संगठित किया। उसने सेना एवं पुलिस को भी संगठित किया। उसने ऐसी व्यवस्था भी की जिससे राज्य में समय-समय पर होने वाले हिन्दू विद्रोहों को दबाया जा सके तथा साम्राज्य की मंगोल आक्रमणों से सुरक्षा की जा सके। बलबन ने ‘राजत्व का सिद्धांत‘ भी प्रतिपादित किया, जो फारस के ससानी साम्राज्य पर आधारित था। ससानी साम्राज्य में सुल्तान को ईश्वर का अवतार माना जाता था तथा इसका देवत्व सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य था। यह सुल्तान के निरंकुश शासन के कार्यों को परिष्कृत करने की धार्मिक पद्धति थी।
खिलजी, जो अफगानिस्तान की हेलमंड घाटी से संबंधित थे, उन्होंने तुर्कदास वंश की सत्ता समाप्त कर दी तथा दिल्ली सल्तनत में खिलजी वंश के शासन की स्थापना कर दी। खिलजियों का सबसे प्रसिद्ध शासक अलाउद्दीन खिलजी था, जिसने गुजरात, मालवा, रणथम्भौर, चित्तौड़ तथा दक्कन क्षेत्र के देवगिरी, वारंगल, द्वारसमुद्र एवं मदुरई पर आक्रमण किए तथा विजय प्राप्त की। अलाउद्दीन खिलजी ने विभिन्न विजयों के अतिरिक्त कई जनकल्याणकारी कार्य किए तथा बाजार नियंत्रण व्यवस्था लागू की। आंतरिक विद्रोहों एवं मंगोल आक्रमणों के कारण अलाउद्दीन ने आर्थिक सुधार तथा बाजार नियंत्रण व्यवस्था लागू की। उसकी भू-सुधार व्यवस्था राजस्व के तर्कसंगत एवं प्रभावी संग्रहण पर आधारित थी। भू-राजस्व कुल उपज का 50 प्रतिशत था तथा भू-राजस्व का निर्धारण पैमाइश के आधार पर किया जाता था।
अलाउद्दीन के उपरांत मुहम्मद बिन तुगलक ने सल्तनत की सीमाओं का विस्तार किया तथा एक बड़ा भू-भाग क्षेत्र अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। उसके साम्राज्य में-हिमालय से लेकर द्वारसमुद्र तक, थट्टा से लखनौती तक, सम्पूर्ण दक्कन, जिसमें दक्कन के दूरवर्ती क्षेत्र जैसे-वारंगल एवं मालाबार तट भी सम्मिलित थे। इससे सरकारी खजाना तेजी से राजस्व को भरने लगा। मु. तुगलक ने अपनी संगठनात्मक क्षमता, प्रशासकीय दक्षता एवं संसाधनों के बेहतर उपयोग के माध्यम से इस विशाल साम्राज्य को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा। जब कभी भी किसी नए राज्य का विजय एवं अधिग्रहण किया जाता था, तो वहां प्रशासनिक व्यवस्था एवं राजस्व संग्रहण का कार्य सुल्तान स्वयं व्यवस्थित करता था। उसने दक्षिण पर प्रभावी नियंत्रण के लिए अपने साम्राज्य की द्वितीय राजधानी दौलताबाद (देवगिरी) को बनाया, किंतु दुर्भाग्यवश उसकी यह योजना सफल नहीं हो सकी।
यद्यपि मु. बिन तुगलक से लेकर उसके भतीजे नसीरुद्दीन महमूद तक दिल्ली सल्तनत की सीमाएं धीरे-धीरे सिकुड़ती गईं तथा अंत में यह सिमटकर पालम तक रह गई। मु. बिन तुगलक के उपरांत कोई भी सुल्तान ऐसा नहीं हुआ जो विशाल सैन्य शक्ति को संचालित कर सके तथा इस वंश के पतन पर रोक लगा सके। शरियत पर आधारित प्रशासनिक व्यवस्था ने साम्राज्य को और कमजोर बना दिया तथा तैमूर का आक्रमण इस गिरते हुए वृक्ष के लिए अंतिम प्रहार साबित हुआ तथा शीघ्र ही तुगलक साम्राज्य धराशायी हो गया।
दिल्ली सल्तनत की स्थापना से कई समाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन हुए तथा समय-समय पर होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों के उपरांत भी ये अछूते बने रहे। कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा दिल्ली के सात नगरों में से एक की नींव रखने के साथ ही, उत्तरी भारत में नगरीय क्रांति का प्रारंभ हुआ। इसके अतिरिक्त, एक-दूसरे से प्रकृति में भिन्न धर्मों, इस्लाम तथा हिंदु के बीच साझी समझ तथा पुनर्मेल की धीमी प्रक्रिया आरंभ हुई। वास्तुकला, साहित्य तथा संगीत के क्षेत्र में यह प्रक्रिया काम कर रही थी तथा एक तरफ सूफी आंदोलन से तथा दूसरी ओर उत्तरी भारत के लोकप्रिय भक्ति दोलन द्वारा धर्म के क्षेत्र में भी यह प्रक्रिया कार्य कर रही थी।
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