JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History

chemistry business studies biology accountancy political science

Class 12

Hindi physics physical education maths english economics

chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology

Home science Geography

English medium Notes

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

Class 12

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

आदिवासी आंदोलन के कारण क्या है ? भारत में आदिवासी आंदोलन पर निबंध लिखिए आदिवासी विद्रोह क्या है

आदिवासी विद्रोह क्या है ? आदिवासी आंदोलन के कारण क्या है ? भारत में आदिवासी आंदोलन पर निबंध लिखिए ?

भारत में उपनिवेश विरोधी आदिवासी आंदोलन

इकाई की रूपरेखा

उद्देश्य

 प्रस्तावना

उपनिवेश काल के दौरान आदिवासियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति

आदिवासियों पर अंग्रेजी नीतियों का प्रभाव

प्रस्तावना

वन-नीति

आदिवासी आंदोलनों की मुख्य विशेषताएं

 भारत के कुछ प्रमुख आदिवासी आंदोलन

 तामर विद्रोह (1789-1832)

संथालों का खेखार आंदोलन (1833)

 संथाल विद्रोह (1855)

बोकटा विद्रोह, सरदारी लड़ाई या मुक्ति लड़ाई आंदोलन (1858-95)

 बिरसा मुंडा विद्रोह (1895-1901),

गुजरात का देवी आंदोलन (1922-23)

मिदनापुर का आदिवासी आंदोलन (1918-24)

मालदा में जीत संथाल का आंदोलन (1924-32)

उड़ीसा के आदिवासी और राष्ट्रीय आंदोलन (1921-36)

असम (तत्कालीन असम, नागालैंड, मेघालय और मिजोरम) का आदिवासी आंदोलन

सारांश

 कुछ उपयोगी पुस्तकें

बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य

इस खंड की पहले की इकाइयों में आपने निम्न जातियों के कल्याण के लिये काम करने वाले नेताओं के विचारों और उनकी गतिविधियों और जाति-व्यवस्था पर उपनिवेशवाद के प्रभाव का अध्ययन किया है, इस इकाई को पढ़कर आप निम्न बिंदुओं को समझ सकेंगेः

ऽ उपनिवेश काल के दौरान आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ,

ऽ आदिवासियों पर अंग्रेजी नीतियों का प्रभाव, और

ऽ औपनिवेशिक शोषण और दमन के खिलाफ होने वाले आदिवार आंदोलन ।

प्रस्तावना

भारत में दूसरे सामाजिक समहों की तरह. आदिवासियों ने भी उपनिवेश विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया। उपनिवेश विरोधी आदिवासी आंदोलन दो प्रकार के थे: पहले, आदिवासियों पर दमन करने वालों, अर्थात जमींदारों, महाजनों, व्यापारियों, ठेकेदारों, सरकारी अधिकारियों और ईसाई मिशनरियों, के खिलाफ होने वाले आंदोलन, और दूसरे वे आंदोलन जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जड़े और उसी में विलय हो गये। पहले प्रकार के आंदोलनों को इसलिये उपनिवेश विरोधी कहा जा सकता है क्योंकि ये आंदोलन उन वर्गों को लक्ष्य कर किये गये थे जो अंग्रेजी उपनिवेशवाद की देन थे और जिनकी सांठगांठ आदिवासियों से थी। इन वर्गों को आदिवासी बाहरी मानते थे। एक आकलन के अनुसार 1778 से 1848 तक के 70 वर्षों में 70 से अधिक आदिवासी विद्रोह हए। ये विद्रोह विभिन्न स्तरों के उपनिवेश विरोधी विद्रोह थे। मख्य उपनिवेश विरोधी आदिवासी आंदोलन और विद्रोह थे: छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासी विद्रोह-तामर विद्रोह (1789-1832), संथालों का खेखार (185895), संथाल विद्रोह (1855), बिरसा मुंडा का आंदोलन (1895-1901), गुजरात का देवी आंदोलन (1922-23), मिदनापुर का आदिवासी आंदोलन (1918-24), मालदा में जीतू संथाल का आंदोलन (1924-32), उड़ीसा का आदिवासी और राष्ट्रीय आंदोलन (1921-36) और असम के आदिवासी आंदोलन (19वीं शताब्दी के अंतिम वर्ष)।

उपनिवेश काल के दौरान आदिवासियों की

सामाजिक-आर्थिक स्थिति

ग्रामीण भारत में प्रारंभ से ही आदिवासियों की आबादी रही। आदिवासी समुदाय शताब्दियों नक अपेक्षाकृत कटे हए और दर-दर रहे, और उनकी आर्थिक स्थिति अलग-अलग रही। गैर-आदिवासियों से संपर्क होते हुए भी, इन आदिवासियों ने अपनी अलग पहचान बनाये रखी। हरेक आदिवासी समुदाय ने अपनी निजी सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक जिंदगी और राजनीतिक और आर्थिक संगठनों को बनाये रखा।

आदिवासी क्षेत्रों में अंग्रेजों के पहंुचने तक, आदिवासियों के लिये उत्पादन और जीविका के मुख्य साधन जमीन और जंगल होते थे, जंगल पूरे भारत के आदिवासियों के लिये बहुत महत्व की चीज थे। आदिवासियों को जंगल के छोटे उत्पादनों के इस्तेमाल का पारंपरिक अधिकार हासिल था। ईंधन की लकड़ी, फूल, फल, पत्ते, शहद, इमारती सामान, खाये जाने वाले गिरीदार फल, जड़ी-बूटियां आदि आदिवासियों की दैनिक उपयोग की जरूरी चीजें थीं। वे जंगल में पैदा होने वाली चीजों का इस्तेमाल अपने खाने, मकान बनाने और फसल को इधर से उधर करने के लिये करते थे। वे अपने मवेशियों को जंगलों में चराते थे। जंगल उन्हें सुरक्षा प्रदान करते थे। आदिवासियों के लिये जंगलों का क्या महत्व था, इस बारे में सुरेश सिंह का कहना है: ‘इसलिये वे (आदिवासी समुदाय) उन स्थितियों में भी निर्वाह कर सकते हैं जिनमें इन अधिक सभ्य नस्ल के सदस्य जीवित नहीं रह सकते। जब फसल नहीं होती तो, तमाम किस्म के जंगली फल और सब्जियां कीमती भंडार का काम करते हैं। इनकी मदद से उस कष्टकारी दौर को काट लेते हैं जो उन्हें तबाह करने की क्षमता रखता था।

इसके अलावा, आदिवासी जन बुनाई, टोकरी बनाने, मछली मारने, शिकार करने और भोजन-सामग्री इकट्ठी करने का भी काम करते थे। श्रम और जीविका के उनके उपकरण बहुत विकसित नहीं थे। तीर-कमान, आत्म-रक्षा और शिकार के मुख्य उपकरण थे।

सभी आदिवासी समदायों के अपने-अपने सरदार और अपनी-अपनी पंचायतें थीं जो उनकी देखभाल करती थीं, और उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक मामलों को देखती थीं। हरेक आदिवासी फसल का एक हिस्सा अपने सरदार को देता था। लेकिन यह कोई कानूनी अधिकार नहीं था, एक नैतिक आवश्यकता थी। आदिवासी जन अपनी इच्छा से अपने सरदार को किसी किस्म का अंशदान और हरेक साल कुछ दिन मुफ्त सेवा देते थे।

बोध प्रश्न 1 

टिप्पणी: 1) अपना उत्तर नीचे दिये गये स्थान पर लिखें।

2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तर से करें।

1) आदिवासियों की अर्थव्यवस्था के लिये जंगलों का क्या महत्व था?

आदिवासियों पर अंग्रेजी नीतियों का प्रभाव

प्रस्तावना 

अंग्रेजों की नीतियों ने परंपरा से चली आ रही आदिवासी व्यवस्थाओं को गड़बड़ा दिया। आदिवासियों की भूमि व्यवस्था में भूमि का स्वामित्व सामूहिक था और उसमें जमींदारों के लिये कोई स्थान नहीं था। लेकिन अंग्रेजों ने आदिवासियों की भूमि व्यवस्था को बदल दिया। उन्होंने आदिवासी क्षेत्र एक बिल्कुल नया जमींदार के बिना दिया। ब्राह्मणों और राजपूतों को छोटा नागपुर के आदिवासी क्षेत्रों में सैनिक और धार्मिक सेवाएं देने के लिए उनके इन कामों के एवज में उन्हें भूमि में जमींदारी अधिकार दिये। आदिवासियों की स्थिति केवल काश्तकारों की होकर रह गयी। आदिवासियों की पंचायतों के स्थान पर राजाओं की पंचायतें बन गयीं जिनमें उनके ही अनुयायी होते थे। परंपरा मे चली आ रही भूमि व्यवस्था को अंग्रेजों ने काश्तकारी व्यवस्था में बदल डाला। उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में ठेकेदारों को भी खड़ा कर दिया। जमींदारों और ठेकेदारों ने आदिवासी क्षेत्रों में भूमि किराया या लगान को लागू कर दिया।

बाजारी अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद, आदिवासी क्षेत्रों में व्यापारियों का एक वर्ग भी बन गया। आदिवासी काश्तकारों को लगान का भुगतान नगदी में करना होता था। उनके पास नगद राशि तो होती नहीं थी, इसलिये उन्हें महाजनों में उधार लेना होता था। इसलिये, आदिवासी क्षेत्रों में महाजनों का एक वर्ग भी बन गया।

संचार और यातायात के साधन आने के बाद कटे हए या अलग-अलग पड़ें आदिवासी समदायों का संपर्क बाहरी दुनिया से हुआ। आत्म-सक्षम आदिवासी अर्थव्यवस्था बाजारी अर्थव्यवस्था में बदल गयी। न्याय की पारंपरिक व्यवस्था की जगह नयी कानुन व्यवस्था ने ले ली। नयी कानून व्यवस्था आदिवासियों को माफिक था अनकूल नहीं बैठती थी। आदिवामी नयी कानून व्यवस्था का लाभ नहीं उठा पाते थे, क्योंकि वे शिक्षित नहीं थे, और उनके पास वकीलों का मेहनताना देने को पैसा भी नहीं था। अंग्रेज आदिवासी क्षेत्रों में छोटे स्तर के सरकारी अधिकारी और क्लर्क भी ले आये।

ये सभी वर्ग-जमींदार, ठेकेदार, व्यापारी, महाजन, सरकारी अधिकारी-आदिवासी क्षेत्रों के बाशिंदे नहीं थे। न ही वे आदिवासी समुदायों के सदस्य थे। उन्हें आदिवासी क्षेत्रों में लेकर आने वाले अंग्रेज थे। वे हिंद, मुसलमान, ईसाई, सिख या युरोपीय हो सकते थे। इसलिये आदिवासी उन्हें ‘दिकु‘ या बाहरी तत्व मानते थे। आदिवासियों के शोषण और दमन की प्रक्रिया में इन वर्गों की अंग्रेजी प्रशासन से सांठगांठ थी। जमींदार आदिवासियों से अंधाधुंध लगान वसूलते थे, उन्हें उनकी जमीन से बेदखल कर देते थे और उनसे बेगार कराते थे। अगर आदिवासी प्रतिरोध करते तो, जमींदार उन्हें शारीरिक प्रताड़ना देते थे। उनसे उनका सामान छीन लिया जाता था। महाजन आदिवासियों से अंधाधुंध ब्याज वसूल कर उनका शोषण करते थे। कई बार तो आदिवासियों को जमींदारों और महाजनों की मांगें पूरी करने के लिये अपना सामान और अपने बीवी-बच्चों को बेच देना पड़ता था। सरकारी अधिकारी उनकी अज्ञानता का लाभ उठाते थे। आदिवासियों के शोषण के मामले में ये सरकारी अधिकारी जमींदारों, महाजनों, ठेकेदारों और व्यापारियों के संगी-साथी थे।

वन-नीति 

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक, आदिवासियों का जंगल में पारंपरिक अधिकार था। जंगल में पैदा होने वाली चीजों का इस्तेमाल करने के उनके अधिकार को मान्यता प्राप्त थी। लेकिन अंग्रेजों की 1884 की वन-नीति ने जंगल में पैदा होने वाली चीजों का इस्तेमाल करने के आदिवासियों के अधिकार में कटौती कर दी। इसके अलावा, संचार व्यवस्था-तार, सड़क और रेलपथ सेवा-के विकास और एक सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था लागू होने से जंगलों की प्राकृतिक अर्थव्यवस्था नष्ट हो गयी। इन विकास प्रक्रियाओं को देश भर के आदिवासियों पर प्रभाव पड़ा। दिकुओं या बाहरी तत्वों को अंग्रेजी वन-नीतियों से लाभ हुआ। अंग्रेजी नीतियां आदिवासियों के हितों के प्रतिकूल थीं।

जंगलों के अतिक्रमण से जो नुकसान होता था, सरकार उसके लिये आदिवासियों को कभी-कभी मुआवजा देती थी। लेकिन मुआवजे की रकम उन तक नहीं पहुंच पाती थी।

क्लर्क, वकील और मुंशी बीच में ही उसे हड़प जाते थे।

इसके अलावा, 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पड़ने वाले अकालों ने आदिवासियों के हालात को बदतर कर दिया। आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लगातार वद्धि से उनकी हालत असहनीय हो गयी। आदिवासियों के लिये भूमि केवल जीविका का साधन ही नहीं थी, बल्कि उनके पुरखों का दिया हुआ एक आत्मिक स्रोत भी थी। संकट के कारण वे अपनी भूमि से अलग-थलग हो रहे थे। उनकी भूमि पर बाहरी तत्वों-महाजनों और जमींदारों के अधिकारों को मान्यता मिल गयी थी। आदिवासी व्यवस्था पर प्रहार उनके अस्तित्व के लिये खतरा था।

बोध प्रश्न 2 

टिप्पणी: 1) अपना उत्तर नीचे दिये गये स्थान पर लिखें।

2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तर से करें।

1) आदिवासियों की अर्थव्यवस्था में अग्रेजी नीतियों से क्या बदलाव आये?

आदिवासी आंदोलनों की मुख्य विशेषताएँ

आदिवासियों ने अपने शोषण और दमन का जवाब विद्रोहों और आंदोलनों की शक्ल में दिया। उन्होंने ‘‘दिकुओं’’ या बाहरी तत्वों-जमींदारों, महाजनों, ठेकेदारों, मिशनरियों और यूरोपीय सरकारी अधिकारियों को अपना दुश्मन माना। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में अपने दमनकारियों के खिलाफ आंदोलन चलाये। बाहरी तत्वों के खिलाफ उनके आंदोलनों की उपनिवेश-विरोधी कहा जा सकता है। उन्होंने उनके द्वारा होने वाले अपने शोषण के कारण उनके खिलाफ विद्रोह किया। यह शोषण आदिवासियों की भूमि पर उनके अतिक्रमण, उनकी भूमि से बेदखली, उनके पारंपरिक सामाजिक अधिकारों और रीतियों की समाप्ति, लगान में वृद्धि की शक्ल में था। आदिवासियों ने इस बात के लिये विद्रोह किया कि भूमि को जोतने वाले को हस्तांतरित किया जाये, और सामंती और अर्धसामंती किस्म के भूमि-स्वामित्व को समाप्त किया जाये। कुल मिलाकर, इन आंदोलनों का रंग सामाजिक और धार्मिक था। लेकिन ये विद्रोह उनके अस्तित्व से संबंधित मुद्दों को लक्ष्य कर किये गये थे। ये आंदोलन इन आदिवासी समुदायों के अपने-अपने सरदारों के नेतृत्व में शुरू किये गये थे। वैसे तो प्रारंभिक दौर में इन आंदोलनों की शुरुआत सामाजिक और धार्मिक मददों पर और बाहरी तत्वों के दमन करने के खिलाफ हुई थी, लेकिन उनका विलय गष्ट्रीय आंदोलन और कर बहिष्कार अभियान में हो गया। आदिवासी अपने शत्रुओं से अपने पारंपरिक हथियारों-कमान, तीर, लाठी और कुल्हाड़ी से लड़े। उनके आंदोलन ने कई बार हिंसक रूप धारण कर लिया जिसके परिणामस्वरूप दमनकारियों की हत्याएं हईं और उनके मकानों को आग लगा दी गयी। अधिकांश आंदोलनों को तो सरकार ने निर्ममतापूर्वक दवा दिया। आदिवासियों को उन अंग्रेजी नीतियों का अनुसरण करना पड़ा जो उनके हितों के प्रतिकूल थीं। सरकार ने आदिवासी क्षेत्रों में सुरक्षात्मक प्रशासन लागू किया। सरकार का सोचना था कि सामान्य कानूनों को आदिवासी क्षेत्रों में लागू नहीं किया जा सकता। सरकार ने अनूसचित जनपद अधिनियम (1874) पारित किया और आदिवासी क्षेत्रों को भारत सरकार अधिनियम (1935) में बहिष्कृत क्षेत्रों की कोटि में रखा।

बोध प्रश्न 3 

टिप्पणी: 1) अपना उत्तर नीचे दिये गये स्थान पर लिखें।

2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तर से कर।

1) भारत में आदिवासी आंदोलनों की मुख्य विशेषताएं क्या थीं?

भारत कछ प्रमुख आदिवासी आंदोलन 

आदिवासी विद्रोह की पहली लहर 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देखने में आयी। आदिवासियों ने 1857 के विद्रोह में भाग लिया जो समुचे आदिवासी क्षेत्रों में फैल गया। लोगों ने अपने आपको इस विद्रोह में शामिल पाया। कुछ बुनियादी तौर पर उपनिवेश विरोधी आंदोलनों के विषय में आगे पृष्ठों पर चर्चा की गयी है।

बोध प्रश्न

टिप्पणी: 1) अपना उत्तर नीचे दिये गये स्थान पर लिखें।

2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तर से करें।

1) तामर विद्रोह क्या थे और सरकार की उनके प्रति क्या प्रतिक्रिया रही?

2) संथालों का खेरवार आंदोलन (1833) किसके खिलाफ था और इसके नेताओं ने हिंदू धर्म को इससे कैसे जोड़ा?

3) संथाल विद्रोह (1855) के क्या परिणाम हुए?

बोध प्रश्न 5 

टिप्पणी: 1) अपना उत्तर नीचे दिये गये स्थान पर लिखें।

2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तरों से करें।

1) मुंडा आदिवासियों की भूमि व्यवस्था को किस नाम से जाना जाता है?

2) मुंडा (बिरसा) कौन था और उसके नेतृत्व वाले आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा?

 गुजरात का देवी आंदोलन (1922-23) 

दक्षिण गुजरात में 1922-23 में होने वाला देवी आंदोलन शुरुआत में एक सामाजिक आंदोलन था। इस आंदोलन में यह मानकर चला गया था कि देवी सालाबाई आदिवासियों को यह आदेश दे रही थी कि वे मांस, मदिरा या ताड़ी का सेवन न करें, प्रतिदिन स्नान करें, शौच के बाद सफाई के लिए पत्ते की जगह पानी का इस्तेमाल करें, घरों को साफ रखें, (खाने या भेंट चढ़ाने या बलि देने के लिए रखे) बकरियों और मुर्गे-मर्गियों को या तो छोड़ दें या बेच दें और पारसी शराब विक्रेताओं और जमींदारों का बहिष्कार करें। उनका यह विश्वास था कि जो लोग इन दैवीय आदेशों का पालन नहीं करेंगे वे या तो दुर्भाग्य के शिकार होंगे या पागल हो जायेंगे या फिर मर जायेंगे। दिसम्बर 1922 तक इस आंदोलन ने आदिवासियों की रिहायश वाले समूचे क्षेत्र और सूरत शहर को अपनी चपेट में ले लिया। इस आंदोलन का निशाना वे लोग बने जो आदिवासियों का शोषण करते थे और शराब का धंधा कर रहे थे। इन वर्गों में पारसी महाजन और जमींदार भी शामिल थे जो शराब भी बेचते थे। आदिवासियों ने यह फैसला किया, कि वे पारसियों और मुसलमानों का बहिष्कार करेंगे, शराब के धंधे से जुड़े किसी भी व्यक्ति के साथ काम नहीं करेंगे और किमी पारसी की छाया पड़ जाने पर स्नान करेंगे।

यह आंदोलन शुरुआत में एक धार्मिक आंदोलन था, लेकिन दिसम्बर 1922 के समाप्त होते यह एक असहयोग आंदोलन का अंग बन गया। आदिवासियों ने विदेशी कपड़ों की होली जलाने और सरकारी स्कूलों का बहिष्कार करने की वकालत शुरू कर दी। जलालपुर तालक में आदिवासियों ने देवी के माध्यम के बल पर ताड़ी बेचने वाले एक पारसी दुकानदार से जाने के तौर पर रु. 120 एक राष्ट्रवादी स्कूल को जबरन दिलवाये। गांधीवादी बारदोली तालक और महल के आदिवासियों के बीच 1921 से काम कर रहे थे। गांधी जी ने आदिवासियों के क्षेत्र में कोई सविनय अवजा शुरू होने से पहले ही आदिवासियों के राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने पर जोर दिया था। तब तक आदिवासियों ने राष्ट्रीय आंदोलन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी थी। कांग्रेसी नेता कनराव जी मेहता ने आदिवासियों के बीच काम किया और आदिवासी गांधी जी के नाम से परिचित हो गये। आदिवासी राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति और भी सहानुभूति रखने लगे। बाद के वर्षों में गांधी जी का नाम देवी के माध्यम से देवी के नाम के साथ जड़ गया, उसके बाद कांग्रेसी नेता बारदोली गये और उन्होंने देवी की कुछ सभाओं में भाग लिया। उन्होंने आदिवासियों को यह सुझाव दिया कि खादी पहनने से देवी के आदेश को और बल दिया जा सकता था। कांग्रेस ने कलिप राज अधिवेश का आयोजन किया जिसकी अध्यक्षता वल्लभभाई पटेल ने 21 जनवरी, 1923 को की इस अधिवेश में कोई 20,000 आदिवासियों ने भाग लिया। अधिवेशन में ताड़ी के पेड़ काटने, शराब की दुकानें बंद करने और खादी के प्रचार की वकालत करने का प्रस्ताव पारित किया गया। आने वाले दो दशकों में 1920 के दशक में 1930-31 और 1942 में आदिवासियों के कई चैरियों ने अंग्रेजी राज के खिलाफ गांधीवादी आंदोलन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को समर्थन देने की प्रतिबद्धता को पूरा किया।

मिदनापुर का आदिवासी आंदोलन (1918-24) 

मिदनापुर में जंगल बहल के संथाल, भूमजी और कुर्मी (महतो) आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ 1760 में ही विद्रोह कर दिया था। उन्होंने 1760 में आदिवासी सरदारों की भूमि छीनने के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने पाचेट के राजा, राजपुर के जमींदार और गंगा नारायण जैसे मरदारों को बेदखल कर दिया था। अंग्रेजों ने स्थायी भूमि बंदोबस्त लागू किया और जमींदार वर्ग खड़ा किया। 19वीं शताब्दी के अंत तक बाहर से आकर बसने वालों ने आदिवासियों की भूमि पर अतिक्रमण कर लिया था। दूसरे क्षेत्रों के आदिवासियों की तरह, यहां के आदिवासियों का भी बाहरी तत्वों, जमींदारो, महाजनों, व्यापारियों और अधिकारियों के हाथों शोषण होता था। आदिवासियों में दिकुओं के प्रति गहरी घृणा का भाव पनप गया था।

सन् 1921 और 1923 के बीच, जंगल महल और बांकरा और सिंहभूम के पड़ोसी क्षेत्रों के किसानों ने जमींदारों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इस किसान आंदोलन का नेतृत्व मख्य तौर पर आदिवासियों ने किया। इसे दो दौरों में बांटा जा सकता है। पहला दौर संयोग कांग्रेस की भागीदारी रही, दूसरा दौर गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद का दौर था। 1921 तक जंगल महल में कांग्रेस का कोई संगठन नहीं था। आदिवासियों को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल करने के कोई प्रयास उस समय तक नहीं हुए थे। 1921 के शुरूआती महीनों में सी.आर. दास और और सतकौड़ीपति रॉय ने असहयोग आंदोलन में आदिवासियों को शामिल करने का काम शुरू किया।

कांग्रेस ने एम.जेड.सी. (मिदनापुर जमींदारी कंपनी) को अपना निशाना बनाया। युरोपीय जमींदारों के नियंत्रण वाली एम.जेड.मी. का रवैया आदिवासियों के प्रति दमनकारी था। इन कंपनियों में काम करने वाले आदिवासियों को बहुत कम मेहनताना मिलता था। उन्हें 19 मील तक लकड़ी ढोने के 4…. और 35 मील के 8… मिलते थे। सतकौड़ीपति रॉय ने मजदूरों की सफल हड़ताल करवायी। एम.जेड.सी. ने आदिवासियों को काम पर वापस लाने के लिए बल प्रयोग करके इसका जवाब दिया। इसमें मारपीट हुई और एक ‘निष्ठावान’ आदिवासी मारा गया। आदिवासियों ने अब जंगलों को लूट लेने की धमकी दी। एम.जेड.सी. ने अदालती कार्यवाही का निश्चय किया। इस बीच आंदोलन एक हड़ताल से बढ़कर एम.जेड.सी. के  खिलाफ एक सामान्य विद्रोह का रूप धारण कर चुका था। इस टकराव में आदिवासियों के बीच कांग्रेस की विश्वसनीयता बन गयी। एम.जेड.सी. को बाहरी तत्व माना गया।

जलाई 1921 में, शैलआनंद सेन ने 200 संथाल स्त्रियों के एक प्रदर्शन का नेतृत्व किया और स्थानीय जमींदारों की धान की गाड़ियों का रास्ता रोका। मई 1921 में कांग्रेस ने 700 संथालों की एक सभा की जिन्होंने शराब न पीने का निश्चय किया। कांग्रेसी नेता शैलआनंद सेन और मुरारी मोहन बारंबार विदेशी सामान विशेष तौर पर विदेशी कपडों के बहिष्कार की वकालत अपने भाषणों में करते थे। जनवरी 1922 में कांग्रेस ने विदेशी कपड़ों के खिलाफ एक अभियान छेड़ा। मिदनापुर माइनिंग सिंडीकेट ने एक याचिका दायर की जिसमें उसने कांग्रेस पर संथालों जंगल लूटने के लिए उकसाने का आरोप लगाया। जनवरी 1922 में विदेशी कपड़ों के खिलाफ कांग्रेस के अभियान का नतीजा यह हुआ कि बार हाटों पर छापा पड़ा। विदेशी कपड़े नष्ट कर दिये गये। इन छापों की उल्लेखनीय बात थी ‘गमनाम लिखे संदेश’ जिनका वितरण संथालों को हाटों को लूटने के लिए उकसाने को किया गया। रणजीत गुहा ने इस तरह के ‘गुमनाम संदेशों‘ को ‘विद्रोही किसानों का संवाद‘ बताया। आदिवासियों ने कांग्रेस के साथ अपनी एकजुटता दिखायी। 1000 लोगों की भीड़ इस अदालत के बाहर जमा हुई जहाँ काग्रेस कार्यकत्ताओं पर मुकदमा चलाया धनराशि पर तय की। भीड़ ने जमानत की राशि कम करने को नहीं कहा। इसका मतलब सरकार के अधिकार को स्वीकार करना होता। इसकी जगह आदिवासियों ने कैदियों की तुरंत रिहाई की मांग की… अधिकारी ने भीड़ के बारे में लिखा, ‘‘ये लोग बिल्कुल बेकाबू हैं और इन्हें यह दिखाना होगा कि अभी भी सरकार है‘‘ लेकिन आंदोलन अभी सामान्य रूप धारण कर ही रहा था कि गांधी जी ने चैरी चैरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। असहयोग आंदोलन वापस लिये जाने का प्रभाव यह हुआ कि आदिवासियों का संघर्ष अलग-थलग पड़ गया और व्यापक बाहरी संपर्कों से वंचित हो गया।

मई 15 और 21, 1918 के बीच मयूरभंज के संथालों ने फ्रांस जाने वाली श्रमिक कौर में जबरन भर्ती किये जाने की कथित धमकी के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के कारण सरकार को अपनी इस भर्ती की योजना को छोड़ना पड़ा। जून 14, 1918 को संथालों ने चैकीदारी कर वन नियमन कानून आदि जैसी प्रमख संथाली शिकायतों को बंद रखने के खिलाफ विद्रोह कर दिया। सरकारी उपायों को छाता बताने की अपनी सामूहिक सामर्थ्य दिखा देने के बाद संथाल अब इस स्थिति में थे कि वे अपने विद्रोह को सरकार की अन्य दमनकारी कार्यवाहियों के खिलाफ भी बढ़ा सके। अगस्त 1922 में आदिवासियों ने जंगलों और तालाबों की मछलियों का उपयोग करने के अपने पारंपरिक अधिकारों को व्यक्त किया आंदोलन अब केवल एम.जेड.सी. तक सीमित नहीं रह गया था वह भारतीय जमींदारों के तहत आने वाले क्षेत्रों में भी फैल गया था।

मालदा में जीतू संथाल का आंदोलन (1924-32) 

मालदा जनपद के संथालों ने 1929-32 में एक जमींदार विरोधी आंदोलन छेड़ा, यह आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन के साथ गंथ गया। स्वराज पार्टी के नेताओं ने जमींदारों के खिलाफ काश्तकारों के संघर्ष में काश्तकारों का साथ दिया। इस आंदोलन का नेता जीतू संथाल या जीतू छोटका स्वराजवादियों के निकट आ गया उसे स्वराजवादियों से यह निर्देश मिला कि वह इस आंदोलन को आगे बढ़ाये। यह आंदोलन दिकु विरोधी उपनिवेश-विरोधी होते हुए भी हिंदू संप्रदायवाद के रंग से ग्रस्त था। स्वराजियों ने आदिवासियों के बीच इसलिये काम किया जिससे कि वे उन्हें शुद्धि और सामाजिक सुधार के माध्यम से हिंदू समाज की धारा में ले आयें। संयासी बाबा के नाम से मशहूर स्वराजवादी कशीश्वर चक्रवर्ती ने जीतू संथाल के साथ 1925 में मालदा का दौरा किया। जीत संथाल को लोग संयासी बाबा के दलाल (या प्रतिनिधि) और प्रचारक के रूप में जानते थे। उन्होंने एक ‘ंयासी दल‘ का गठन किया. और पुलिस आज्ञा को तोड़कर काली की पूजा की। इसका उद्देश्य आदिवासियों को नयी हिंदू स्थिति दमा था। उन्होंने आदिवासियों से आग्रह किया कि वे अपनी आदिवासी पहचान को छोड़ दें और उनसे वायदा किया कि वे उन्हें नयी हिंदू स्थिति देंगे। आदिवासियों को यह उपदेश भी दिया गया कि वे सुअर और पक्षियों का उपभोग छोड़ दें। अगर वे ऐसा करेंगे तो ऊंची जाति के लोग बिना किसी भय के उनके हाथ का पानी ग्रहण कर लेंगे उनसे कहा गया कि वे जीत को अपना नेता माने। ऐसी अफवाहें भी रहीं कि जीतू राज को स्वीकार कर लिया गया।

सन् 1928 में जीत ने संथालों को निर्देश दिया कि वे पतझड़ की फसल को लूट लें। उसने आदिवासियों से यह वायदा किया कि भूमि बंदोबस्त में उन्हें काश्तकारों का दर्जा मिलेगा अधियगें का नहीं। संथालों द्वारा लूट की कई घटनाएं हुई दिसम्बर 3, 1932 को जीत ने संथालों को हिंद2 बना लिया। उसने ऐतिहासिक पादुआ शहर में अदीना मस्जिद के खंडहर पर इस गरज से कब्जा कर लिया कि उसे मंदिर बना देगा। वह अपने आपको गांधी कहता था उसने इस अधिकृत मस्जिद के अंदन अपनी निजी सरकार की स्थापना और अंग्रेजी राज के खात्मे का ऐलान किया। जीतू एक लोककथा नायक बन गया। स्वराजवादियों और हिंदुस्तानी आंदोलन के साथ जुड़ाव के कारण उसे मालदा कस्बे के राष्ट्रवादी हिंदुओं की सहानुभूति मिल गयी। आंदोलन में स्वराजवादियों और हिंदू संप्रदायवादियों के बीच आपसी निर्भरता देखने में आयी।

यह आंदोलन संथालों की गिरती हालत की पृष्ठभूमि में छेड़ा गया। आंदोलन भड़कने के पीछे आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धिं जमींदारों द्वारा काश्तकारों की भूमि से जबरन बेदखल करना जमींदारों द्वारा भर्ती और लगान की और भी अधिक मांग होना और अन्य किस्म के शोषण और तंग किये जाने जैसे कारण थे ये समस्याएं 1930 के दशक में कई गना बढ़ गयी। एक संथाल ने कहा, ‘हमें तमाम मुर्गियों, सुअरों और मुसलमानों को मार देना होगा।’

उड़ीसा का आदिवासी और राष्ट्रीय आंदोलन (1921-36) 

इस आंदोलन ने उड़ीसा और बिहार के उड़ीसा मंडल को अपनी चपेट में लिया जिसमें कटक, पुरी, बालासुर, आंगुल और कोंउमाल आते थे। आदिवासियों और दूसरे किसानों ने 1920 और 1930 के दशकों में राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया। 1909 में गोपबंधु ने जिस सत्यवादी स्कूल की स्थापना की थी, उसके प्रयासों से उड़ीसा के आदिवासी और किसान राष्ट्रीय आंदोलन में आये। किसानों और आदिवासियों ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने असहयोग आंदोलन के ‘लगान नहीं दो‘ पक्ष को लागू किया। फरवरी 1922 तक, किसानों और आदिवासियों ने जंगल में पैठ कर ली और वन कानूनों की अवहेलना कर ली थी। किसानों ने करों का भुगतान रोक देने का निश्चय किया। जिन लोगों ने करों का भुगतान रोक देने का निश्चय किया। जिन लोगों ने करों का भुगतान किया उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। मई 1921 में, अधिकारियों ने उस क्षेत्र में धारा 144 लगा दी और आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया। इससे मुइयां आदिवासी आंदोलित हो उठे और कोई 500 मुइयां आदिवासियों ने अधीक्षक के बंगले पड़ गया।

वन कानूनों को लक्ष्य कर ही चलाया गया आलुटी सीताराम का संपा विद्रोह उड़ीसा के आदिवासियों के लिये प्रेरणा का स्रोत बना। 1921-30 में, गनपुर के आदिवासियों ने ‘लगान नहीं दो‘ संघर्ष छेड़ा। उन्होंने वन कानूनों की अवहेलना की। अधिकारियों को उन्हें नियंत्रित कर पाना कठिन लगा। खोंड़ों ने भी लगान देना बंद कर दिया। उन्होंने उन्हें गिरफ्तार करने आयी पुलिस पर हमला बोल दिया। उन्होंने जयपुर के महाराजा को किश्त देने से इंकार कर दिया। कोरापुट और गंजम पाट्टियों में, सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति आदिवासियों की लोकप्रिय प्रतिक्रियाएं जमींदारों, महाजनों और दोषपूर्ण वन कानूनों के हाथों आदिवासियों के दमन और शोषण के कारण बनी।

असम (तत्कालीन असम, नागालैंड, मेघालय और मिजोरम) का आदिवासी आंदोलन 

उपनिवेश काल के असम (जिसमें असम, नागालैंड, मेघालय और मिजोरम आते थे) के आदिवासियों ने अपनी भूमि पर अंग्रेजों के अतिक्रमण करने के प्रयास का विरोध किया। बाद में असम के नाम से जाने जाने वाले अंग्रेजी प्रांत ने 1873 तक आकार लिया। अंग्रेजों ने जैतिया, काधार और असम, और खासी पहाड़ियों के स्वाधीन आदिवासी राज्यों को 1826 में (इस प्रांत में) मिला लिया। नागा पहाड़ियों का कुछ हिस्सा 1860 के दशक में मिला लिया गया, और मिजो पहाड़ियों को 1870 के दशक में मिला लिया गया। अंग्रेज असम की कृषि को चाय बागानों में बदलना चाहते थे जो विशेष तौर पर उनके लिये ही हों, वे आदिवासियों की संस्कृति और परंपराओं को भी अपने औपनिवेशिक हितों के अनुकूल बदलना चाहते थे। आदिवासियों ने अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ 1828 और 1829 में गंधार कुंवर और रूपचंद कुंवर के नेतृत्व में विद्रोह किया। अंग्रेजों ने उन्हें निर्ममतापूर्वक दबा दिया। पियाली बारफकन को 1828 के विद्रोह में उसकी भूमिका के लिये प्राणदंड दे दिया गया। खासियों ने स्वाधीनता की जंग छेड़ी (1829-33)। उनका नेतृत्व यू, तिरोत सिंह ने किया। वह खासियों के छोटे-छोटे गणराज्यों के एक संघ का अध्यक्ष था। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ छापामार युद्ध छेड़ा था। खासी सरदार, लोगों के साथ, अंग्रेजों से लड़े लेकिन अंत में उन्हें समर्पण करना पड़ा।

असम के आदिवासियों को 1857 के विद्रोह से प्रेरणा मिली। 1860 में, अंग्रेजों के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए–एक जैतिया पहाड़ियों में और दूसरा नौगांव के मैदानों में, ये विद्रोह करों में वद्धि की देन थे। खासियों ने करों में वृद्धि के खिलाफ अपने सरदारों के नेतृत्व में विद्रोह किया। वे अपनी स्वाधीनता के लिये धनष्ुा-बाणों से लड़े। उन्होंने 1863 में जाकर तब आत्म-समर्पण किया जब उन्हें कचलने के लिये सेना भेजी गयी। नौगांव जनपद में, आदिवासियों को 1860 में धतूरे की खेती में नुकसान हुआ। इसके बाद मालगुजारी की राशि बढ़ा दी गयी। उनसे सुपाड़ी और पान पर भी बड़े हुए कर देने को कहा गया। सरकारी अधिकारियों ने बढ़े हुए करों की वसूली के लिये बल प्रयोग किया। नौगांव के आदिवासियों ने, मुख्य तौर पर पलनमड़ी क्षेत्र में, अंग्रेजों के खिल विद्रोह कर दिया। उन्हें अपने विद्रोह के लिये जैतिया पहाड़ियों के आदिवासियों से प्रेरणा मिली जिन्होंने कछ समय पहले ही विद्रोह किया था

बोध प्रश्न 6 

टिप्पणी: 1) अपना उत्तर नीचे दिये गये स्थान पर लिखें।

2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तरे से करें।

1) गुजरात के आंदोलन (1922-23) को ‘देवी आंदोलन‘ क्यों कहा गया और इसकी

विशेषताएं क्या थीं?

2) भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में आदिवासियों की भूमिका के बारे में बताइये।

3) कौन-सा आदिवासी आंदोलन सांप्रदायिकता के रंग से ग्रस्त था?

सारांश

आदिवासी उपनिवेश काल के दौरान शोषित सामाजिक समहों का हिस्सा थे। अंग्रेजी क्षेत्रों में आदिवासी क्षेत्रों को मिला लिये जाने के पहले, उनकी अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाएं थीं। ये व्यवस्थाएं परंपरागत थीं और आदिवासियों की आवश्यकताओं के अनुसार थीं। प्रत्येक समुदाय की सामाजिक व्यवस्था का अध्यक्ष का सरदार होता था। आदिवासी समुदाय के मामलों को ये ही सरदार देखते थे। उन्हें इस सिलसिले में रीतिगत कानूनों और परंपराओं का पालन करना होता था। वे अपने मामलों के बंदोबस्त के लिये स्वाधीन भी थे। भूमि और जंगल उनकी जीविका के मुख्य साधन थे। जंगलों से आदिवासियों को उनकी आवश्यकता की बुनियादी वस्तुएं मिलती थीं। आदिवासी समुदाय गैर-आदिवासियों से कटे हुए थे। फिर भी, यह पृथकता संपूर्ण नहीं थी (वे पूरी तौर पर कटे हुए नहीं थे)।

आदिवासी क्षेत्रों पर कब्जा कर लेने के बाद, अंग्रेजों ने ऐसी नीतियां बनायीं जिनका लक्ष्य औपनिवेशिक हितों को जीवित रखना था। उन्होंने आदिवासियों की पृथकता को समाप्त किया और उन्हें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जोड़ा। उन्होंने उनके अपेक्षाकृत आत्म-सक्ष्म समुदायों को अव्यवस्थित कर दिया। अंग्रेजों ने नयी कानून व्यवस्था लागू की, जो आदिवासियों की क्षमता से बाहर की बात साबित हुई। उन्होंने कई शोषक वर्गों को खड़ा किया-जमींदार, ठेकेदार, व्यापारी, महाजन और आदिवासी क्षेत्रों के सरकारी अधिकारी, ये ‘दमनकारी आदिवासी समुदायों के नहीं थे। आदिवासियों ने उन्हें दिक (बाहरी) माना। इन लोगों ने अंग्रेज प्रशासन के साथ मिलकर आदिवासियों का शोषण किया।

विभिन्न क्षेत्रों के आदिवासियों ने अपने दमनकारियों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। उनके आंदोलन इसलिये उपनिवेश-विरोधी थे क्योंकि वे औपनिवेशिक प्रशासन और शोषक वर्गों (दिकुओं) को लक्ष्य कर चलाये गये थे। दिकुओं के खिलाफ होने वाले आंदोलन इसलिये उपनिवेश विरोधी थे क्योंकि-

अपने सरदारों के नेतृत्व में विद्रोह किया। जंगलों के अतिक्रमण और शास्त्रीय शोषकों के दमन के खिलाफ उनके आंदोलन अक्सर राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े या उसमें विलय हो गये। आदिवासियों ने अपने पारंपरिक हथियारों, मुख्य तौर पर धनुष-बाणों का इस्तेमाल किया और अक्सर उन्होंने हिंसा का सहारा लिया। उन्होंने अपने दमनकारियों को मार डाला और उनके मकानों को आग लगा दी।

प्रशासन ने उनसे निपटने के लिये सख्ती बरती। उन्हें अपराधी और समाज-विरोधी घोषित किया गया। उनकी जायदाद कुर्क कर ली गयी। उन्हें जेल में डाल दिया गया और उनमें से कई को फांसी लगा दी गयी। अंग्रेजों को कुछ भूमि संबंधी कानून भी बनाने पड़े। लेकिन ये आदिवासियों के हालात को बदल नहीं सके। भारत के आदिवासी आंदोलन केवल क्षेत्रों तक सीमित रहे। वे एक अखिल भारतीय आंदोलन का रूप धारण नहीं कर पाये। जहां तक उपपनिवेश-विरोधी आंदोलनों में भागीदारी का सवाल है, आदिवासी दूसरे सामाजिक गटों से पीछे नहीं रहे।

कुछ उपयोगी पुस्तकें

गुहा, अमलेन्दु, प्लाटर राज टु स्वराज: फ्रीडम स्टरगल एंड इलेक्टोरल पॉलिटिक्स इन असम: 1926-1947, नई दिल्ली, आई.सी.आर., 1977.

गुहा, रंजीत, एलीमेंट्री आस्पेक्ट्रम ऑफ पीजेंट इनसर्जेसी इन कॉलोनियल इंडिया, दिल्ली, ओ.यू.पी., 1983.

हार्डमैन, डेविड, ‘आदिवासी एजेशन इन माउथ गुजरात: द देवी मूवमेंट ऑफ 1922-23 इन रंजीत गुहा‘‘, संपा. सब आल्र्टन स्टडीज, दिल्ली, ओ.यू.पी., 1930.

‘पाटी, विश्वमय, ‘‘पीजेंट्स, ट्राइबलम एंड नेशनल मूवमेंट इन उड़ीसा ( 1921-1928), सोशल साइंटिस्ट, 11, अंक 7, जुलाई 1978.

पति, जगन्नाथ, ट्राइबल पीजेंट्री: डायननिक्म ऑफ डेवलपमेंट, नई दिल्ली, इंटर इंडिया, 1984.

सरकार, सुमित, मॉडर्न इंडिया: 1885-1947, मद्रास मैकमिलन, 1985.

सरकार, तनिका, ‘जीतू संथाल्स मूवमेंट इन मालदा, 1924-1932: ए स्टडी इन ट्राइबल प्रोटेस्ट’’, इन रंजीत गुहा, संपा., सब आल्टर्न स्टडीज, खंड 4, दिल्ली, ओ.यू.पी. 1985.

सिंह, सरेश, बिरसा मुंडा हिज मूवमेंट, 1874-1901: ए स्टडी ऑफ मिलनेरियन मूवमेंट इन छोटा नागपुर, कलकत्ता, ओ.यू.पी., 1983.

दासगुप्ता, स्वप्न, ‘‘आदिवासी पॉलिटिक्स इन मिदनापुर, 1924-1932‘‘, इन रंजीत गहा, संपा., सब आल्टर्न स्टडीज, खंड 4, दिल्ली, ओ.यू.पी., 1985.

देसाई, ए.आर. (संपा.), पीजेंट स्ट्रगल्स इन इंडिया, मुम्बई, ओ.यू.पी., 1979.

Sbistudy

Recent Posts

four potential in hindi 4-potential electrodynamics चतुर्विम विभव किसे कहते हैं

चतुर्विम विभव (Four-Potential) हम जानते हैं कि एक निर्देश तंत्र में विद्युत क्षेत्र इसके सापेक्ष…

2 days ago

Relativistic Electrodynamics in hindi आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा

आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा Relativistic Electrodynamics in hindi ? अध्याय : आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी…

4 days ago

pair production in hindi formula definition युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए

युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए pair production in hindi formula…

6 days ago

THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा

देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi…

6 days ago

elastic collision of two particles in hindi definition formula दो कणों की अप्रत्यास्थ टक्कर क्या है

दो कणों की अप्रत्यास्थ टक्कर क्या है elastic collision of two particles in hindi definition…

6 days ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now