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अढ़ाई दिन का झोपड़ा किसने बनवाया था , ढाई दिन का झोपड़ा का निर्माण किसने करवाया था
adhai din ka jhonpra was built by in hindi अढ़ाई दिन का झोपड़ा किसने बनवाया था , ढाई दिन का झोपड़ा का निर्माण किसने करवाया था
उत्तर : अढ़ाई दिन का झोपड़ा का निर्माण कुतुब-उद-दीन ऐबक के द्वारा करवाया गया था , इसका निर्माण 1192 में शुरू होकर 1199 ईसवीं में पूर्ण हुआ था | यह पहले एक संस्कृत विद्यालय था जिसे मोहम्मद गौरी के कहने पर उसके गवर्नर कुतुब-उद-दीन ऐबक द्वारा इसे मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया जिसे हम अढ़ाई दिन का झोपड़ा कहते है |
सम्राज्यिक शैली
1191 से लेकर 1557 ईस्वी तक इस अवधि के दौरान शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों के अधीन वास्तुकला की सम्राज्यिक शैली का विकास हुआ। प्रत्येक शासक ने अपनी स्वयं की कुछ रुचियां आरोपित की लेकिन बनावट या शैली मोटे तौर एक जैसी बनी रही।
ऽ गुलाम वंशः गुलाम वंश या इल्बरी राजवंश 1206 से लेकर 1290 ईस्वी तक सत्ता में बना रहा। उनके शासनकाल के दौरान की वास्तुकला की शैली को वास्तुकला की मामलुक शैली के रूप में जाना गया।
ऽ इस अवधि के दौरान, अधिकांश निर्माण तत्कालीन हिंदू संरचनाओं के पुनर्प्रतिरूपण थे। उन्होंने कई स्मारकों का निर्माण भी करवाया था। कुतुब मीनार इसका एक प्रमुख उदाहरण है। इस 5 मंजिली संरचना का निर्माण कुतुब-उद्-दीन ऐबक ने आरंभ कराया था और वह केवल इसका भू-तल बनवा पाया था। अगली तीन मंजिलें इल्तुतमिश दाग पूरी करवाई गईं और 5वीं मंजिल फिरोज शाह तुगलक द्वारा बनवाई गईं।
उदाहरणः अढ़ाई दिन का झोंपड़ा एवं जैन मंदिर से परिवर्तित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद आदि
ऽ खिलजी वंशः खिलजी वंश ने 1290 ईस्वी से लेकर 1320 ईस्वी तक शासन किया और वास्तुकला की साल्जुक शैली की स्थापना की। इस अवधि के निर्माण की विशेषता लाल बलुआ प्रस्तर का प्रयोग हैं। इसके साथ ही, मेहराबदार शैली ने इसी अवधि से प्रमुखता पायी। सभी निर्माण कार्यों में जोड़ने वाली सामग्री के रूप में गारे का प्रमुखता से उपयोग किया जाने लगा था।
उदाहरणः अला-उद्-दीन खलजी द्वारा निर्मित अलाई दरवाजा, सीरी का किला आदि।
ऽ तुगलक वंशः यह दिल्ली सल्तनत काल के दौरान वास्तुकला के लिए संकट काल था। हालांकि, फिर भी कुछ निर्माण कार्य किए गए थे जिसमें धूसर बलुआ प्रस्तर का उपयोग किया गया था। इस अवधि के दौरान भवन की मजबूती पर अधिक ध्यान दिया गया तथा अलंकरण पर कम बल दिया गया। प्रवेश द्वार के डिजाइन में मेहराब और सरदल दोनों विधियों का संयोजन किया गया था। तुगलकों ने ‘बट्टार‘ के रूप में ज्ञात निर्माण की शैली का प्रचलन किया था, जिसकी विशेषता भवनों को अधिक मजबूत दिखाने के लिए ढलवां दीवारें थीं।
उदाहरणः तुगलकाबाद, जहांपनाह और फिरोजाबाद के नगर।
ऽ लोदी वंशः लोदी वंश के अंर्तगत, वास्तुकला में पश्चगामी प्रवृत्ति जारी रही। इस अवधि के दौरान केवल मकबरों का निर्माण आरंभ किया गया। हालांकि, इस अवधि की वास्तुकला की एक महत्वपूर्ण विशेषता दोहरे गुंबदों का प्रचलन थी। यह शीर्ष गंबद के अंदर एक खोखले गुंबद से मिलकर बना होता था।
दोहरे गुंबदों का उपयोग करने के कारण थेः
संरचना को मजबूती देना, और,
गुंबद की भीतरी ऊंचाई कम करना।
इस चरण के दौरान बनाए गए मकबरे किसी भी भव्य अलंकरण के बिना कठोर और सादे थे। इन्हें लगभग 15 मीटर के व्यास के साथ अष्टकोणीय आकार में बनाया गया था और ढलवां बरामदे से सहारा दिया गया था।
उदाहरणः लोदी गार्डन, सिकंदर लोदी द्वारा स्थापित आगरा नगर आदि।
वास्तुकला की प्रांतीय ‘शैलियां
इस अवधि के दौरान इंडो-इस्लामी शैली ने स्थानीय स्थापत्य शैलियों को भी प्रभावित करना आरंभ कर दिया था। बंगाल, बीजापुर, जौनपुर और मांडू वास्तुकला के विकास के महत्वपूर्ण केंद्र बन चुके थे।
ऽ बंगाल शैलीः वास्तुकला की बंगाल शैली की विशेषता ईंटों और काले संगमरमर का प्रयोग थी। इस अवधि के दौरान बने मस्जिदों में ढलवां ‘बांग्ला छतो‘ का उपयोग जारी रहा। पहले इसका मंदिरों के लिए उपयोग किया जाता था।
उदाहरणः गौड़ की कदम रसूल मस्जिद, पांडुआ की अदीना मस्जिद आदि।
ऽ मालवा शैलीः मालवा के पठार में स्थित धार और मांडू के नगर वास्तुकला के प्रमुख स्थल बन गए थे। यहां के भवनों की सबसे प्रमुख विशेषता विभिन्न रंगों के प्रस्तरों और संगमरमरों का प्रयोग था। भवनों में विशालकाय खिड़कियां लगी थीं जो शायद यूरोपीय प्रभाव का परिणाम थीं और ये मेहराब एवं स्तंभों के शैलीकृत प्रयोग से अलंकृत थे।
यहाँ तक कि सीढ़ियों का उपयोग भी निर्माण का सौंदर्यबोध बढ़ाने के लिए किया गया था। हालांकि, वास्तुकला की इस शैली में मीनारों का उपयोग नहीं किया गया था।
वास्तुकला की पठान शैली के रूप में भी ज्ञात मालवा शैली निम्नलिखित विशेषताओं के चलते इस अवधि की पर्यावरण अनुकूलन के सर्वश्रेष्ठ नमूनों में से एक हैः
विशालकाय खिड़कियों का उपयोग भवनों और कक्षों को भली-भांति हवादार बनाता था।
मंडप थोड़े धनुषाकार होते थे। यह विशेषता उन्हें हवादार बनाती थी और गर्मियों में भी ये भवन ठंडे बने रहते थे।
परिसर में जल भंडारण हेतु ‘बावली‘ के रूप में ज्ञात कृत्रिम जलाशयों का निर्माण करवाया गया था।
स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्री का उपयोग किया गया था।
तुगलकों द्वारा प्रचलित बट्टार प्रणाली का उपयोग करके भवनों को मजबूत बनाया गया था।
उदाहरणः रानी रूपमती का मंडप, जहाज महल, अशरफी महल आदि।
ऽ जौनपुर शैलीः शर्की शासकों के संरक्षण में जौनपुर कला और सांस्कृतिक गतिविधियों का महान केंद्र बन गया था। वास्तुकला की इस शैली को शर्की शैली के रूप में भी जाना जाने लगा था और पठान शैली की भांति इसमें भी मीनारों के उपयोग से बचा गया था। यहां के भवनों की एक अनूठी विशेषता प्रार्थना हॉल के केंद्र और बगल के खण्डों में विशाल स्क्रीनों पर चित्रित मोटे और सशक्त अक्षरों का उपयोग है।
उदाहरणः अटाला मस्जिद, आदि
ऽ बीजापुर शैलीः आदिल शाह के संरक्षण के अंतर्गत बीजापुर शैली या वास्तुकला की दक्कन शैली का विकास हुआ। उसने अनेक मस्जिदों, मकबरों और महलों का निर्माण करवाया था। इनका अनूठापन 3-मेहराबों वाले अग्रभाग और बल्बनुमा गुंबदों का उपयोग था। ये सभी लगभग गोलाकार और संकरी गर्दन वाले थे। उसने कार्निस का उपयोग भी प्रचलित किया। बीजापुर शैली की एक प्रमुख
विशेषता इसकी छतों का व्यवहार था। छतें किसी भी स्पष्ट सहारे के बिना टिकी थीं। लोहे के क्लैम्पों और गारे के मजबूत प्लास्टर का उपयोग भवनों को मजबूती देने के लिए किया गया था। दीवारें समृद्ध नक्काशियों से अलंकृत थीं।
उदाहरणः बीजापुर में गोल गुम्बद, आदिल शाह का मकबरा।
मुगल वास्तुकला
मुगल कला और स्थापत्य कला के महान संरक्षक थे। उनके अधीन वास्तुकला ने पुनः अपना महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया क्योंकि नए भवनों का निर्माण महान दृष्टि और कलात्मक प्रेरणा के साथ करवाया गया।
बाबर
बाबर ने पानीपत और रुहेलखंड में मस्जिदों का निर्माण आरंभ करवाया। दोनों मस्जिदें 1526 ईस्वी में बन कर तैयार हुईं। फिर भी, उसका शासनकाल किसी भी नई शैली या तकनीकि को प्रेरित करने के लिए बहुत अल्पकालिक था।
हुमायूं
हुमायूं के शासनकाल की विशेषता शेरशाह सूरी के साथ निरंतर सत्ता संघर्ष था। इसलिए वह कला और स्थापत्य कला की ओर अधिक ध्यान नहीं दे पाया। उसने दीनपनाह नामक नगर की नींव डालीं, लेकिन वह इसे पूरा नहीं कर पाया। इस अवधि की वास्तुकला में फारसी शैली छायी रही।
शेरशाह
अपने शासनकाल के दौरान, शेरशाह ने किला-ए-कुहना मस्जिद का निर्माण करवाया। उसने ग्रैंड ट्रंक रोड और सासाराम में अपने मकबरे का भी निर्माण करवाया। शेरशाह के अधीन निर्माण कार्यों में दिल्ली सल्तनत काल की परंपराओं को जारी रखा गया।
1526 में दिल्ली के सिंहासन पर अकबर के बैठने के बाद, मुगल कला और स्थापत्य कला का स्वर्णिम युग आरंभ हुआ।
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