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अजंता में कितनी गुफाएं हैं , अजंता में गुफाओं की संख्या कितनी है गुफाओं का निर्माण किस राजवंश के काल में हुआ
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अजंता, बाघ, सित्तनवासल : अजंता में 29 गुफाएं हैं ये सभी अर्धगेलाकार चट्टानी कगार में खुदाई करके बनाई गई हैं। गुफा संख्या 9,10,19 और 26 चैत्य हैं, और बाकी विहार या भिक्षु आवास हैं। 9 और 10 नंबर की गुफाओं में बने चित्र शुंगकालीन हैं (ईसा पूर्व पहली सदी) बाकी चित्रों के पीछे गुप्तकालीन प्रेरणा है। इन चित्रों के विषय हैं सज्जा, आकृति रेखांकन और विषयपरक विवरण। इन भित्तिचित्रों में मुख्यतः बुद्ध के जीवन और जातकों के प्रसंग दर्शाए गए हैं। एक से दूसरे दृश्य के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं है। एक चित्र दूसरे में, और दूसरा तीसरे में मिलता जाता है। गौण आकृतियां तथा चित्रकला की प्रक्रिया अत्यंत कुशलतापूर्वक दृष्टि को हर चित्र की केंद्रीय आकृति की ओर आकर्षित करती है। चित्रांकन में परिप्रेक्ष्य नहीं है, लेकिन पृष्ठभूमि की आकृतियों को चित्र में आगे बनी आकृतियों से कुछ ऊपर रेखांकित करके गहराई का भ्रम दिया गया है। यह प्रभाव आकृतियों को दीवार से अलग उभरते हुए दर्शाता है। अलंकरण रूपों में अभिरचनाएं, कुंडलित सज्जापट्टी, पशु आकृतियां, फूल और पेड़ हैं। सुंदर आकृतियां अथवा असाधारण और मिथकीय चरित्र, जैसे सुपर्ण,गरुड़, यक्ष, गंधर्व और अप्सराओं की आकृतियों को चित्रों में स्थान के आपूरण में मुक्त भाव से उपयोग में लाया गया है। गुफा संख्या 1 और 2 के चित्र इस शृंखला में नवीनतम हैं और वे सातवीं शताब्दी की रचना हो सकते हैं। ‘मृत्युशय्या पर राजकुमारी’ के दृश्य चित्र में दर्शित कारुणिकता और भाव प्रवणता की अभिव्यंजना तथा एक कथा के माध्यम से बताने की स्पष्ट शैली को भूरि-भूरि प्रशंसा मिली है। मां और शिशु विषय पर बने चित्रों की शृंखला को अजंता कला का एक सर्वाधिक आकर्षक उदाहरण कहा गया है। सिंहों और हाथियों के शिकार वाले दृश्य प्रकाश और छाया के रंग संयोजन में बना, गए हैं जिनका कला के संसार में कोई सानी नहीं है और यह पूरी शृंखला विचित्र रीति से नैसग्रिक और आधुनिक है। शिल्पकला तथा अजंता में बने चित्रों में शरीर सौष्ठव और आत्मिक भाव की अभिव्यंजना है जो यथार्थ की भारतीय अवधारणा की अपनी विशिष्टता है।
मालवा में बाघ की चित्रकारी अजंता शैली का ही एक विस्तार कही जा सकती है और आकल्पन वैविध्य, सबल चित्रांकन और अलंकरण की गुणवत्ता की दृष्टि से उन्हें अजंता के चित्रों के समकक्ष ही कहा जा सकता है।
दक्षिण में यह शास्त्रीय परंपरा सित्तनवसल, कांचीपुरम, मलयादिपट्टी और तिरुमलैपुरम में दृष्टिगोचर होती है। सित्तनवसल के चित्र जैन विषयों और बिम्ब प्रतीकों पर आधारित हैं। जबकि अन्य केंद्रों में उनकी भावभूमि की प्रेरणा शैव या वैष्णव है। चोलकालीन भित्ति चित्र (11वीं शताब्दी) भी कला की दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान हैं। आरंभिक लघु चित्र, जैसे बड़े आकार के दीर्घ भित्ति चित्र शैली की प्रतिक्रिया के रूप में उभरे थे। लघु चित्रकला पूर्वी और पश्चिमी भारत में 9वीं से 11वीं शताब्दियों में विकसित हुई।
भीम बैठका के शैलचित्रः भारत की नदी घाटी सभ्यताओं में नर्मदा-घाटी सभ्यता का अपना विशिष्ट स्थान है। उल्लेखनीय है कि यही भू-भाग है जहां आदि मानव की सभ्यता से लेकर ताम्र-पाषाण युगीन सभ्यताओं के साथ-साथ ऐतिहासिक युग का इतिहास भी दृष्टिगोचर होता है। दरअसल यह सम्पूर्ण क्षेत्र विन्ध्य व सतपुड़ा पहाड़ी की उपत्यकाओं में आदि मानव द्वारा चित्रित शैलचित्रों के रूप में चिन्हित, आदमगढ़ (होशंगाबाद), भीम बैठका (रायसेन), पान भूराड़िया आदि के लिए जागा जाता है। भीमबैठका के शैलचित्र समूहों को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में सम्मिलित किया गया है।
भीमबैठका में आदि मानव का निवास पूर्व पाषाणकाल अर्थात् लगभग 6 से 8 लाख वर्ष पूर्व जागा गया है, परंतु शैलचित्रों का प्रारंभ उत्तर पाषाण काल या मध्याश्म काल से माना गया है (लगभग 10,000 वर्ष पूर्व) जिनका क्रम निरंतर मध्य युग तक चलता है।
भीमबैठका में पांच सौ से अधिक शैलाश्रय हैं जिनमें शैलचित्र हैं। इनके बनाने में लाल, सफेद तथा हरे रंग का प्रयोग किया गया है। लाल रंग के चित्र लाल गेरू तथा हेमेटाइट पत्थर से बना, गए थे जिनके कुछ टुकड़े पुरातात्विक उत्खनन से भी प्राप्त हुए हैं। हरे रंग के चित्र बेहद कम मात्रा में मिलते हैं। शैलचित्रों में तत्कालीन राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन की विशेष रूप से जागकारी होती है। खान-पान, रहन-सहन, पहनावा, पशुपालन तथा आखेट विषयक जागकारी वास्तव में अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। प्रारंभिक चित्रों में घोड़े के चित्र नहीं मिलते हैं। बाद के चित्रों के प्रदर्शित युद्ध दृश्य में घुड़सवार दिखाए गए हैं जिनके ऊपर बैठे सवारों की वेशभूषा कुषाणकालीन व गुप्तकालीन प्रतीत होती है।
भीमबैठका के शैलचित्रों में प्रमुख रूप से आखेट दृश्य, युद्ध दृश्य, पशु पक्षी एवं जलचर दृश्य, व्यक्ति चित्र, नृत्य, धार्मिक चित्रण किया गया है और आंशिक रूप से उत्कीर्ण लेख पाए गए हैं।
प्रारंभिक लघु चित्रकला
बड़े पैमाने पर भित्ति चित्रकला के प्रतिक्रिया स्वरूप, नवीं से गयारहवीं शताब्दी में पूर्वी एवं पश्चिमी भारत में सूक्ष्म चित्रकला का विकास हुआ। लघु चित्रकला पुस्तकों एवं एलबम के लि, ताड़पत्रों, कागज एवं कपड़ों जैसे नाशवान पदार्थों पर बेहद छोटे पैमाने पर की गई।
पूर्व में बंगाल की पाल शैली (नवीं से बारहवीं शताब्दी) की चित्रकला का विकास ताड़पत्रों और कागज की पांडुलिपियों तथा उनके काष्ठ आवरणों पर चित्रांकन से हुआ। ये सभी चित्रांकन बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा से प्रेरित हैं। इस कला की विशिष्टताएं घुमावदार रेखांकन, दमित रंग प्रयोग और सादा संघटन है। फिर भी लघु चित्रकला पुस्तक चित्रण की कोई अलग शैली नहीं है। वस्तुतः ये दीवार चित्रों के संक्षिप्त रूप ही हैं। उनका लोक कला से कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि उनमें पहले से ही विकसित आकृति और प्रविधि विद्यमान है जो बाघ और अजंता चित्र शैली की निरंतरता से गहनता से जुड़ी हुई है। औपचारिक और मनोवैज्ञानिक रूप से लघु चित्र अपने स्वरूप में पारम्परिक हैं। शैली की दृष्टि से वे पाल और सेन काल के प्लास्टिक कला के चित्रित समरूप ही हैं।
पाल शैली का प्रतिरूप है लघु चित्रकला की अपभ्रंश शैली, जो पश्चिम भारत में पांच शताब्दियों (11वीं से 15वीं सदी) की निरंतर परंपरा के रूप में प्रचलित रही। इसके दो चरण हैं पहला है ताड़पत्रों पर चित्रित पांडुलिपियों का और बाद वाला चरण कागज पर चित्रांकन का है। सर्वश्रेष्ठ चित्रकारी संक्रमण कालीन (1350-1450 ईस्वी) है जब कागज ताड़पत्रों का साथ देने के लिए सुलभ हो गया था। इन आकृति चित्रों की विशिष्टताएं कोंणीय चेहरे जिनका सिर्फ 3/4 भाग ही दृष्टिगोचर होता है, व नुकीली नाक व बड़ी आंखें, सादगीपूर्ण अलंकरण तथा अनेक प्रकार के विवरण चित्र द्वारा प्रकट होते हैं। इनकी विषयवस्तु तीन प्रकार की है आंरभिक चरण में जैन धर्म ग्रंथ और बाद में वैष्णव विषय, जैसे गीत-गोविंद और भौतिक प्रेम।
संक्रमण काल
इस्लाम के आगमन के बाद का संक्रमण काल 14वीं शताब्दी में एक सांस्कृतिक नवजागरण का परिणाम था। यह युग संश्लेषण का था जिसमें पश्चिमी भारत में चित्रकला की पारंपरिक शैली ही बची रह सकी।
विजयनगर काल की चित्रकला शैली की जड़ें दक्कन में एलोरा और दक्षिण में चोलकालीन चित्रों में निहित थी। लोकप्रिय और सर्वाधिक संरक्षित चित्र वीरभद्र मंदिर में हैं। छत के फलक 11 मीटर तक लम्बे हैं (एक की लम्बाई तो 18 मीटर है), चित्रित सीमांत अमूर्त रूपांकनों को उनकी वास्तुशिल्पीय संरचना से अलग करते हैं।
लेपाक्षी चित्रकला की विशेषता उनकी धरती वर्णता और नीले रंग का नितांत अभाव है। वस्तुतः सारे प्राथमिक रंगों का यहां उपयोग नहीं हुआ है। आकृतियों के रूप और उनके परिधान विवरण काले रंग में रेखांकित हैं तथा अन्य रंगों का उपयोग सपाट ढंग से किया गया है। इन चित्रों में चेहरे प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर नहीं होते अपितु उनका आधा भाग ही दिखाई देता है। वृक्ष, चट्टानें और भूदृश्य के दूसरे तत्व वस्त्र रूप में संयोजित हैं, जिनमें खाली स्थान का भराव किया गया है और दृश्यांकन करते समय वास्तविक दृश्य संगम की सभ्यता के अनुरूपेण का कोई प्रयास नहीं किया गया है। पूर्ववर्ती भारतीय परंपराओं की तरह यथार्थवाद इनकी मुख्य चिंता नहीं रही है।
गुफा एवं भित्तिचित्र
भित्तिचित्र ठोस संरचना की दीवारों पर किया गया एक व्यापक कार्य है। भारत में, भित्तिचित्र कार्य के प्रमाण प्राचीन समय से ईसापूर्व दूसरी शताब्दी से 8वीं-दसवीं शताब्दी ई. तक मौजूद हैं। भारत के चारों ओर ऐसे कई स्थान हैं जो भित्तिचित्रों के लिए जागे जाते हैं, मुख्य रूप से प्राकृतिक गुफाओं एवं शैलकत्र्त गुफाओं में। इस समय की महान उपलब्धियों में अजंता, बाद्य,सित्तनवासल, अरमामलई गुफाएं, रावण छाया शैल आश्रय, और एलोरा की गुफाओं में कैलाशनाथ मंदिर हैं। इस समय के शैलचित्रों की कथाएं या विषय मुख्य रूप से बौद्ध, जैन एवं हिंदू धर्मों से लिए गए हैं।
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