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अगमनात्मक उपागम (Inductive Approach in hindi) निगनात्मक उपागम (Deductive Approach in hindi)
स्थलरूपाों का विकास
(EVOLUTION OF LAND – FORMS)
स्थलरूपाों का विविध प्रकार से अध्ययन हम इसके पूर्व कर चुके है। प्रथम व द्वितीय श्रेणी रूपा तृतीय श्रेणी के स्थलरूपाों के विकास का आधार बनते है। तृतीय श्रेणी के भू-रूपा जैसे जल प्रकार शिला, कन्दरा, सर्क आदि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के प्रक्रमों के द्वारा निर्मित किये जाते है जो स्थलरूपाों का विकास क्रमिक रूपा से लम्बी अवधि में होता है। ये अत्यन्त जटिल प्रक्रियाओं द्वारा होते है व इइनके निर्माण को अनेक तत्व प्रभावित करते है। जलवायु, चट्टानों की संरचना वनस्पति का स्वरूपा, समय, आदि अनेक तत्व किसी भू-रूपा के निर्माण को निश्चित करते है। एक ही प्रक्रम अलग क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के भू-रूपों का निर्माण करते है। हर नदी घाटी भिन्नता रखती है, यद्यपि ट होगा पर गहराई व चैड़ाई में अन्तर पाया जायेगा। प्रक्रम की तीव्रता व शिथिलता भी विकास पर प्रभाव डालती है। मरूस्थलीय इलाकों में हवा की तीव्रता से छत्रक शिला का निमार्ण होता है, परन्तु नभ प्रदेशों में हवा के कार्य स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं पड़ते है। स्थलरूपों के विकास में समय निर्णायक तत्व होता है। कितनी अवधि से प्रक्रम की क्रियाशीलता पर समय का प्रभाव भी अलग-अलग देखने को मिलता है। बहता जल जितने समय में एक प्रदेश को काटकर समतल कर सकता है, हिमानी या हवा नही कर सकते, इसीजिए हिगिन्स के अनुसार किसी निर्णायक सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता जो स्थलरूपों की विशेषताओं के विकास को स्पष्ट कर सके।
भू-आकृति के विकास के विश्लेषण के लिये अनेक विद्वानों ने कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, जिन प्रमख है डेविस, पेन्क किंग हैक मेरी मेरीसोवा आदि. परन्त किसी का भी मत स्थलरूपाो की जटिलता व परिवर्तनशीलता तथा विभिन्नता के कारण सफल नहीं हो पाया है। वर्तमान मे स्थलरूपों के विकास को समझने के दो उपागम प्रयुक्त किये जाते हैं-
(1) अगमनात्मक उपागम (Inductive Approach)
(2) निगनात्मक उपागम (Deductive Approach)
अगमनात्मक उपागम का उपयोग अपरदन के दीर्घकालीन चक्रों के विश्लेषण में किया गया है। इसी क्रम में स्थलरूपा में परिवर्तन की दर स्थलरूपाों पर क्रियाशील प्रक्रमों की पहचान तथा परिवर्तित आकार के विश्लेषण के आधार पर विकासवादी प्रतिरूपा प्रतिपादित किये गये है। डेविस व पेन्क के स्थलरूपों का विश्लेषण इसी क्रम में आते हैं।
निगनात्मक उपागम के अन्तर्गत स्थलरूपा के विकास में घटित विशिष्ट घटनाओं को पहचानकर उनका तिधिकारण किया जाता है। स्थलरूपाों के विकास का यक्तिपूर्ण विश्लेषण किया जाता है। इसमें साख्यिकीय विश्लेषण सम्मिलित रहता है। निगमनातक उपागम में निक्षेपण एवं अपरदन की दर, मात्रा, अवधि की गणना एवं तिरिकी के सिद्धान्त का अध्ययन किया जाता है। यह उपागम बहुत ही निगमित है क्योंकि बहुत मश्या एक घटनाओं के आधार पर बहे क्षेत्र के दीर्घकालीन और अज्ञात भू-आकृतिक इतिहास को ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है।
भू-आकृतियों का विकास बक्रीय पद्धति से होता है इस मत को भौतिक में बहुत अधिक मान्यता मिली है। विभिन्न प्रकार के पर्यावरण में भू-आकृतियों के विकास का एक क्रम पााया जाता है, जिसमें एक अवस्था से दूसरी अवस्था तथा अन्तिम अवस्था तक पहुंचती है। फिर एक नये वक्र का प्रारम्भ हो जाता है। नये चक्र का जन्म आधार तल में परिवर्तन होने के कारण होता है, जिसमें जल में परिवर्तन होता है व अपरदन के लिये नयी ऊर्जा प्राप्त होती है।
स्थलरूपों के विकास अनुमान लगाना एक कठिन कार्य है. क्योंकि स्थलरूपा जटिल होते हैं तथा अनेक तत्व उनके विकास को प्रभावित करते हैं। कुछ विद्वानों ने अपरदन सतह (Erosional Surface) अथवा समतल सतह (Plantation Surface) को स्थलरूपाों के विकास का सूचक मान्न है। इनके आधार पर भू- आकृतिक इतिहास की पुनर्कल्पना में पर्याप्त सहायता मिलती है। अपरदन सतह वह समतल सलह होती है, जो अनाच्छदन के प्रक्रमों द्वारा विभिन्न प्रकार की चट्टानों एवं संरचनाओं को अपरदित कर बनायी जाते है। इसमें कहीं-कहीं ऊँचे घर्षित टीले शेष रह जाते हैं। इसे पेनीप्लेन (Peniplain) पेनीप्लेन Penplain Patialaint विक्षारण मैदान (Etch plain) आदि नामों से जाना जाता है। अपरदन सतह को वर्तमान स्थिति उसकी आधारभूत चट्टानों की संरचना एवं वर्तमान में क्रियाशील प्रक्रमों के आधार पर स्थलरूपाों के विकास गी गति का आकलन किया जाता है। इसमें अपरदन सतह की आकृति आधार बनती है। अपरदन सलाद के विश्लेषण से वैज्ञानिकों ने गणना कर बताया है कि सागर तली में कई बार परिवर्तन हुए हैं। ऐसा विश्वास है कि टर्शियरी यग में सागर तल 2000 फिट ऊँचा था एवं क्वार्टनरी युग में 600 फिट ऊँचा था। 600 से 2000 फिट की ऊँचाई के मध्य विकसित स्थलरूपा निश्चय की क्वार्टनरी युग के होंगे। इस प्रकार अपरदन सतह के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। चट्टानों की संरचना का इसमें विशेष ध्यान रखा जाता है। कटोर चट्टानों वाली अपरदन सतह अधिक पुरानी होगी, जब नवीन या अवसादी चट्टानों को अपरदन सतह नवीन हगी। ऐसा प्रदेश जहाँ इस तरह की भिन्न-भिन्न अपरदन सतहें उपस्थित हों तो कई अपरदन चक्र से गुजरा साना तथा वहा के स्थलरूपा जटिल होंगे। जल विभाजकों, शिखरों, कगार आदिको उपस्थिति प्रदेश के स्थलरूपाों के विकास को समझने में सहायक होती है।
अतः यह एक निर्विवादित सत्य है कि स्थलरूपाों का विकास एक जटिल व दीर्घकालिक प्रक्रिया है, जो भू-तल पर निरन्तर चलती रहती है। पृथ्वी का प्रत्येक स्थलरूपा परिवर्तनशील होता है। एक नहीं अनेक बार इन्हें अपरदनकारी तत्व काट-छाँट कर नष्ट करते हैं व पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियाँ इन्हें पुनर्जीवित कर देती है। हारबर्ग ने नस्थलरूपाों के विकास के आधार पर समस्त स्थलरूपाों को पाँच भागों में बांटा है-
(1) साधारण स्थलरूपा, (2) मिश्रित स्थलरूपा,
(3) एक चक्रीय स्थलरूपा (4) बहुचक्रीय स्थलरूपा (5) पुर्नजीवित स्थलरूप
(1) साधारण स्थलरूपा – साधारण स्थलरूपा का निर्माण एक ही प्रक्रम द्वारा होता है। यह भू-तल घर बना हुआ नवीन स्थलरूपा होता है, जिसमें जटिलतायें या अत्यधिक परिवर्तन नहीं होते है। जैसे बालू का स्तूप का निर्माण वायु द्वारा बालू के निक्षेप से होता है। चूना प्रदेश में जल के घोलीकरण से छिद्र, यक पोलजे जेसी आकृतियों का निर्माण होता है। इन्हें साधारण स्थलरूपा कहा जा सकता है, परन्तु सिर्फ घोलीक मात्र इनके निर्माण का कारण है, ऐसा कहना उचित नहीं होगा। अपक्षय एवं धरातलीय जल का भी दार थोड़ा बहुत सहयोग होता है। स्पष्ट है कि स्थलरूपा केवल एक प्रक्रम की एक क्रिया का परिणाम नहीं हैं, अपितु एक से अधिक प्रक्रमों के सम्मिलित कार्यों का परिणाम होता है।
(2) मिश्रित स्थलरूपा – जब किसी स्थलरूपा का निर्माण एक से अधिक प्रक्रमों द्वारा होता है। मिश्रित स्थलरूपा कहा जाता है। पृथ्वी पर अधिकांश स्थलरूपा मिश्रित स्थलरूपा होते हैं। जैसे मरुस्थलीय भागों में पवन का कार्य सर्वाधिक प्रभावी होता है, परन्तु इसी भाग में जल का कार्य भी अत्यधिक महत्व होता है। मरुस्थलों में बजाड़ा व प्लेया के निर्माण, आकस्मिक होने वाली वर्षा का महत्वपूर्ण हाथ हो है। इसी प्रकार तटीय क्षेत्रों में लहरों के कटाव के साथ हवा की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है।
(3) एक चक्रीय स्थलरूपा – एक ही अपरदन चक्र के दौरान विकसित स्थलरूपाों को एक चली स्थलरूपा कहते है। एक विस्तृत प्रदेश के समस्त स्थलरूपा इसमें सम्मिलित होते हैं। मैदानी व सागर तरी भागों में एक चक्रीय स्थलरूपाों की प्रधानता होती है।
(4) बहुचक्रीय स्थलरूपा – जिस क्षेत्र में उत्थान या अवतलन एक या अनेक बार होता है, वहाँ के स्थलरूपाों की आकृति जटिल हो जाती है। पठारी, प्राचीन भू-खण्डों, पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ उत्थान पाया जाता है या जिन क्षेत्रों में सागर तली में परिवर्तन हआ है वहाँ स्थलकृतियों में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। प्राचीन अपरदन के ऊपर नवीन अपरदन प्रारंभ हो जाता है। एक अपरदन चक्र जब पूरा हो जाता है तब सन्तुलन बनाए रखने के लिए उत्थान होता है तथा पुनः नवीन अपरदन चक्र शुरू हो जाता है। जैसे सागर तल के नीचा हो जाने से नदी का नवोन्मेष हो जाता है। वह अपनी घाटी को फिर से गहरा करना शुरू कर देती है। अन्तिम अवस्था में नदी जो विसर्प बनाती है, उसमें पुनः निम्न अपरदन अधिक होने से अन्तःकार्तित विसर्प का निर्माण हो जाता है। भू-तल पर वर्तमान में अधिकांश स्थलरूपा चक्रीय होते हैं।
(5) पुनर्जीवित स्थलरूपा – जब प्राचीन स्थलरूपा या अवसाद भूगर्भिक हलचलों या अन्य कारणों से दब जाते हैं व पुनः किसी कारणवश भूपृष्ठ पर प्रकट होते हैं, उन्हें पुनर्जीवित स्थलरूपा कहा जाता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण पर्वतों पर हिम आवरण पीछे हट रहा है, जिससे हिम से दबे स्थलरूपा बाहर आ रहे हैं व पुनः नवीन अपरदन से प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे स्थलरूपाों को पुनर्जीवित स्थलरूपा कहा जाता है। सुनामी व भूकम्प के झटकों से तटों के उत्थान से नवीन स्थलरूपा बनते हैं इन्हें हम पुनर्जीवित स्थलरूपा कह सकते हैं।
पृथ्वी तल पर उपरोक्त सभी प्रकार के स्थलरूपा पाये जाते हैं। कुछ साधारण व प्रथम अपरदन चक्र का भाग होते हैं तथा कुछ कई अपरदन चक्रों का प्रतिफल होते हैं। अपरदन व निक्षेपण हर पल प्रक्रमों द्वारा किया जाता है, जिसके फलस्वरूपा स्थलरूपाों के स्वरूपा में परिवर्तन होता रहता है। यद्यपि नग्न आँखों से हमें इसका अनुमान कम होता है। इसीलिये यह कहा जाता है कि प्रकृति परिवर्तनशील है न कोई आदि है न अन्त।
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