अकाल आयोग का गठन क्या है | औपनिवेशिक भारत के प्रमुख अकाल आयोग का वर्णन करें , कैम्पबेल , मैकडोनाल्ड आयोग

जाने – अकाल आयोग का गठन क्या है | औपनिवेशिक भारत के प्रमुख अकाल आयोग का वर्णन करें , कैम्पबेल , मैकडोनाल्ड आयोग ?

प्रश्न: क्राउन के शासन में अकाल एवं अकाल नीति की समीक्षा कीजिए।
उत्तर: समिति एवं आयोगों का गठन शुरू किया गया। इनकी सिफारिशों के आधार पर अकाल नीति का ढांचा तैयार किया गया।
प्रथम अकाल (1860-61) – आगरा, दिल्ली
लार्ड बेयर्ड कमेटी नियुक्त। लेकिन कोई विशेष कार्यवाही नहीं।
द्वितीय अकाल (1866) –
जार्ज केम्पवेल कमेटी नियुक्त। निम्नलिखित सिफारिशें की गई- 1. रोजगार सृजन, 2. अकाल राहत कार्य, 3. लेकिन ठोस नीति नहीं।
तृतीय अकाल (1876-78) – मद्रास, बंबई, पंजाब, उत्तर प्रदेश
रिचर्ड स्ट्रेची कमीशन (रायल कमीशन) (1880) नियुक्त किया गया। जिसने निम्नलिखित सिफारिशें की –
1. पहली बार दुर्भिक्ष नीति घोषित की।
2. राज्य के द्वारा अकाल राहत कार्य किए जाए।
3. भू राजस्व में छूट दी जाए।
4. आंकड़ों को एकत्रित किया जाए।
5. दुर्भिक्ष संहिता का निर्माण किया जा सकता है।
6. दुर्भिक्ष कोष की स्थापना (1 करोड़ रु. से) की गई।
दुर्भिक्ष संहिता – 1883
इसके तहत निम्नलिखित प्रावधान किए गए
1. राहत कार्य
2. सामान्य परिस्थितियों में सावधानी बरतना।
3. राहत कार्य के अंतर्गत कर्तव्य।
4. प्रभावित क्षेत्रों का वर्गीकरण।
1896-97 में संपूर्ण देश में अकाल पड़ा। जेम्स लॉयल कमीशन बिठाया गया जिसने दुर्भिक्ष नीति को बल पूर्वक लागू करने का सुझाव दिया।
1899-1900 में संपूर्ण देश में अकाल पड़ा।
कर्जन द्वारा निम्नलिखित अकाल आयोग स्थापित किए गए-
1. मेक्डोनल कमीशन (1900)
2. कॉलिन स्कोट कमीशन (1901)
आयोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाओं की अनुशंसा की गई।
1942-43 में बंगाल में अकाल पड़ा।
जॉन युहेड़ आयोग नियुक्त किया गया जिसने निम्नलिखित सिफारिशें की –
1. अखिल भारतीय खाद्य विभाग की स्थापना
2. खाद्य एवं कृषि विभाग का एकीकरण
3. खाद्यान्न फसलों के उत्पादन में वृद्धि
दुर्भिक्ष नीति के सकारात्मक पक्ष: दुर्भिक्ष के दौरान पूर्व की अपेक्षा राहत कार्यों पर बल दिया गया।
दुर्भिक्ष नीति के नकारात्मक पक्ष: धीमी गति से नीति का विकास, क्रियान्वयन के कमजोर पक्ष, पर्याप्त कोष की कमी
प्रश्न: अंग्रेज शासकों द्वारा भारत में प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए अधिनियमित प्रमुख विनियमों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर: सर्वप्रथम 1799 ई. में लार्ड वेलेजली ने फ्रांस आक्रमण के भय से समाचार पत्रों का पत्रेक्षण अधिनियम लागू किया जिसके अनुसार प्रकाशित होने वाले सभी पत्रों के साथ संपादक और स्वामी का नाम छापना पड़ता था और सरकार के सम्मुख पेश करना अनिवार्य था। हालांकि लार्ड हेस्टिंग्स ने अपने प्रगतिशील विचारों के कारण इसमें कुछ छूट अवश्य दी। लेकिन जनहित को उद्धेलित करने वाले विषयों के ऊपर रोक लगी रही। जॉन एडम्स ने 1823 ई. में बिना लाइसेंस लिए प्रकाशन पर रोक लगा दी इसके तहत मिरातुल अखबार पर प्रतिबंध लगा दिया। लार्ड बैंटिक के प्रयासों को लार्ड मेटकॉफ ने लागू कर इस नियम को रद्द कर दिया और यह स्थिति तकरीबन 1857 ई. तक लागू रही।
1857 ई. में पंजीकरण अधिनियम (गैगिंग एक्ट) के तहत मुद्रणालयों और समाचार पत्रों को नियमित किया गया किंत सरकार से अनुमति लेने का सिलसिला जारी रहा। 1869-70 ई. में धारा 124 (ए) जोड़ी गयी जिसके तहत राजद्रोहियों को आजीवन निर्वासन तथा जुर्माना किया गया। लार्ड लिटन ने 1878 ई. में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट के तहत देशी समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार के विरुद्ध बढ़ती हुई भावनाओं तथा कटु आलोचना को रोकने के लिए 1908 ई. में दी न्यूज पेपर्स एक्ट पास किया। इस अधिनियम के अधीन ऐसे किसी भी समाचार के प्रकाशन के परिणामस्वरूप जिससे हिंसा अथवा हत्या को प्रेरणा मिले, मुद्रणालय को तथा उसकी संपत्ति को जब्त किया जा सकता था। इस अधिनियम के अंतर्गत नयी बात यह थी कि मुद्रणालय जब्त होने के पश्चात् 15 दिन के अंदर उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती थी।
इंडियन प्रेस एक्ट 1910 में पास किया गया। जिसके अधीन सामाचार पत्र के प्रकाशक से कम से कम ₹ 500 तथा अधिक से अधिक ₹2,000 की पंजीकरण जमानत लेने का स्थानीय सरकार को अधिकार था। विश्व युद्ध के दौरान समाचार पत्र संबंधी कानूनों की समीक्षा के लिए 1921 में प्रेस कमेटी की नियुक्ति की गयी जिसके अध्यक्ष सर तेज बहादुर सप्रू थे। उस कमेटी की सिफारिश के आधार पर 1908 तथा 1910 के प्रेस से संबंधित नियमों को रदै कर दिया गया। इंडियन प्रेस एमरजेंसी एक्ट 1931 में लागू किया गया। 1931 के इस अधिनियम ने 1910 के प्रेस संबंधी अधिनियम को फिर से लागू कर दिया। 1932 में क्रिामनल एमेडमेंट एक्ट लागू किया गया जो 1931 के एक्ट का विस्तृत रूप था।
प्रश्न: ‘‘मुक्त व्यापार के बलों ने और व्यापार एवं निवेश के सहायक राजनीतिक एवं प्रशासनिक परिवेश का निर्माण करने के अंग्रेजों के निश्चय ने, उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत के प्रति ब्रिटिश नीति को रूप प्रदान किया था।‘‘ सविस्तार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की जड़े प्लासी युद्ध (1757) के पश्चात् जम गई थीं, जब कम्पनी का बंगाल पर आधिपत्य स्थापित हो गया। ये एक ऐसी घटना थी, जिसके पश्चात् भारत की लूट का सिलसिला शुरू हो गया। इस समय तक भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सभी प्रतिस्पर्धी कम्पनियाँ हाशिए पर चली गई थीं। बक्सर युद्ध के पश्चात् कम्पनी को बंगाल एवं उड़ीसा का दीवानी का अधिकतर मिला तब से तो कम्पनी एवं कम्पनी के कर्मचारी व्यक्तिगत रूप से लूट-खसोट में शामिल होकर भारत की पारम्परिक अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। यद्यपि इस समय भारतीय व्यापार तंत्र पर केवल ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया का ही एकाधिकार था तथा उसने भारतीय व्यापार पर पूर्णतः कब्जा कर लिया। जो 1757 से 1813 ई. तक आमतौर पर वाणिज्यिक पूँजीवाद के पैटर्न पर चलता रहा। इस क्रम में कम्पनी द्वारा ब्रिटेन सहित अन्य यूरोपीय देशों को कम कीमत पर तैयार भारतीय माल का निर्यात कर अच्छा लाभ कमाया गया। इस समय कम्पनी ने भारतीय धन वसूलकर इस धन को भारतीय माल खरीदने में लगाया। इस लाभ से संचित हुई पूँजी ने ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति को मजबूत आधार प्रदान किया।
औद्योगिक प्रगति के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए पूंजीपति वर्गों ने भारत में ईस्ट इण्डिया के एकाधिकार का विरोध प्रारम्भ किया। चूंकि वे भी भारत की लूट में शामिल होकर अप्रत्याशित लाभ प्राप्त करना चाहते थे। तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता पर इस पूँजीपति वर्ग के दबाव के परिणामस्वरूप भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार समाप्त हो गए, जैसा कि 1813 एवं 1833 ई. के चार्टर एक्ट में देखने को मिलता है। इस बदली हुई परिस्थिति में मुक्त व्यापार का जोरदार सिलसिला प्रारम्भ हुआ, जो औद्योगिक मुक्त व्यापार कहलाया। भारतीय व्यापार सभी ब्रिटिशवासियों के लिए खोल दिए गए। इस मुक्त व्यापार के तहत राज्यों को आर्थिक क्षेत्र में अहस्तक्षेप की नीति के पालन का समर्थन किया गया। एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘वेल्थ ऑफ नेशन‘ में राज्यों की हस्तक्षेप नीति की निन्दा की एवं उद्यमियों को अपने व्यापारिक हितों में मुक्त रूप से व्यापार करने की इजाजत का समर्थन किया तथा आर्थिक नीतियों का निर्धारण बाजार के मापदण्डों के अनुकूल होने की बात तय की गई। इस नवीन पूँजीवादी सिद्धान्त को काफी लोकप्रियता मिली। इस नीति के तहत बिना शुल्क के भारत में ब्रिटिश वस्तुओं का आयात होने लगा जबकि भारतीय निर्यातित वस्तुओं पर व्यापक निर्यात कर लगाया गया अर्थात् हम कह सकते हैं कि भारत ने इन पूँजीपति वर्गों हेतु सुरक्षित कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता एवं बाजार के रूप में बेहतर विकल्प प्रस्तुत किया।
परन्तु 1860 ई. के पश्चात् भारत में वित्तीय पूँजीवाद का प्रचलन हुआ। अर्थात् इस समय वृहत पैमाने पर ब्रिटिश पूँजीपति वर्ग की पूँजी का निवेश विभिन्न क्षेत्रों ( जैसे – खनन उद्योग, बागान, पटसन मिलों, परिवहन अंगों, बैंकिंग, बीमा, आयात-निर्यात संस्थाएँ आदि में किया गया। इसने एक सुरक्षित एवं अधिक मुनाफा कमाने का विकल्प प्रस्तुत किया। अतः स्वाभाविक रूप से इन पूँजीपतियों के निवेश को सुरक्षित करने एवं बढ़ावा देने को सुनिश्चित करने हेतु ब्रिटिश सत्ता को भारत में नए व सशक्त प्रशासनिक ढाँचे की आवश्यकता महसूस हुई। भारत पर अपनी पकड़ को मजबूत करने हेतु ब्रिटिश सत्ता द्वारा वित्तीय, प्रशासनिक एवं राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की नीति का अवलम्बन किया गया। साथ ही आवश्यक रूप से इसमें कुछ भारतीयों को भी भागीदार बनाकर भारतीय क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष व गहरा नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया।
प्रश्न: ‘‘रेलवे ने जिस प्रकार कि पश्चिमी यूरोप और यूएसए में एक औद्योगिक क्रान्ति के उत्प्रेरक के रूप में कार्य किया था, उसके बजाय भारत में रेलवे ने ‘पूर्ण उपनिवेशीकरण के उत्प्रेरक‘ के रूप में कार्य किया।‘‘ परीक्षण कीजिए।
उत्तर: भारत में औपनिवेशिक हितों के संरक्षण हेतु लॉर्ड डलहौजी ने सैनिक और आर्थिक कारणों से रेलवे परियोजना में सक्रियता दिवाई। यद्यपि इसमें डलहौजी की मंशा थी कि रेलवे ब्रिटिश सैन्य बल की गतिशीलता एवं शक्ति में वृद्धि करेगी। क्षेत्र साथ ही दूरदराज के क्षेत्रों तक ब्रिटिश वस्तुओं की पहुंच एवं संसाधन( जैसे – खनन, बागान अथवा अनाज के मुख्य उत्पादक क्षेत्र को बन्दरगाह तक जोड़ने का कार्य करेगी और तब यह संसाधन सुचारु रूप से ब्रिटेन तक पहुंचेगा। इस समय बिटिश पंजीपतियों द्वारा अपनी पूंजी के सुरक्षित एवं फायदेमंद निवेश हेतु रेलवे क्षेत्र भारत में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। भारतीय रेल में ब्रिटिश निवेश की शुरुआत को देखते हुए कार्ल मार्क्स ने यह भविष्यवाणी की थी कि इससे इस उपमहाद्वीपीय क्षेत्र में आने वाले समय में औद्योगीकरण हो जाएगा, क्योंकि इससे रेलों एवं इंजनों का यथा समय भारत में निर्माण होने लगेगा एवं संचार के दूसरे साधनों का विकास भी होगा, परन्तु रेलवे की भमिका का सक्ष्म अवलोकन करें तो यह पाएंगे कि इसने भारत में औद्योगीकरण के बजाय औपनिवेशीकरण के लिए ही उत्प्रेरक के रूप में श्रम किया था। यद्यपि यह एक अलग बात है कि रेलवे से भारत को कुछ सकारात्मक लाभ ही हुए जैसे – भौगोलिक दूरियाँ कम हुई, सांस्कृतिक सम्पर्क स्थापित हुआ और साथ में बाजार का एकीकरण सम्भव हो पाया। परन्त इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों में ही इस क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया था।
रेलवे निर्माण के उद्देश्य में कहीं भी भारत में औद्योगीकरण की प्रगति की बात नहीं दिखती है. क्योंकि इंजन, रेलवे पलों के लिए इस्पात निर्मित वस्तुएँ आदि सभी चीजें ब्रिटेन से आयात की गई न कि भारत में इससे सम्बद्ध गतिविधियों को बढावा देने हेतु कोई सार्थक प्रयास किया गया। 1869 ई. में स्वेज नहर के खल जाने के पश्चात समद्रीय परिवहन में बहुत बडा सधार होने से यह कार्य और आसान हो गया, जिसका अनुमान सम्भवतः कार्ल मार्क्स नहीं लगा सके थे। वस्तुतः अन्य पश्चिमी देशों में ऐसा देखा गया कि रेलवे ने वहां औद्योगीकरण को पर्याप्त बढ़ावा दिया। रेलवे निर्माण के क्रम में ही वहाँ के देशों में संबंधित उद्योगों का विकास हुआ, परन्तु ब्रिटिश औपनिवेशिक क्षेत्र में भारत में सम्बद्ध उद्योगों के विकास हेत प्रयास नहीं किया गया और प्रत्यक्ष तौर से सभी सामग्रियाँ ब्रिटेन से आयात कर ली गई। भारत में रेलवे का निर्माण एवं किराया इस पद्धति पर तय किया गया था कि यहां के कच्चे माल का निर्यात एवं तैयार माल का आयात को बढ़ावा मिलता।
अन्ततः हम कह सकते हैं कि रेलतंत्र देश के सबसे भीतरी अंग की संचार व्यवस्था में न तो सुधार की दृष्टि से और न ही अर्थव्यवस्था एवं लाभप्रदता की दृष्टि से नियोजित किया गया इसका विस्तार कृषि एवं खनन जैसे उत्पाद केन्द्रों को महत्वपूर्ण बन्दरगाहों से जोड़ने ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं को देश के दूर-दराज के क्षेत्रों तक पहुँचाने एवं रणनीतिक कारणों की दृष्टि से किया गया। इसका अभिप्राय भारत के उत्तर में मैदानी क्षेत्रों एवं पश्चिमोत्तर सीमान्त पर ध्यान देना और सामान्यतः दक्षिण तथा आन्तरिक क्षेत्रों की उपेक्षा करना था। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि रेलवे भारत में औपनिवेशिक हितों के संरक्षण का मजबूत माध्यम बना जबकि यह अन्य देशों की तुलना में औद्योगीकरण को बढ़ावा नहीं दे सका।

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