वंशानुगति का गुणसूत्रीय सिद्धान्त क्रोमोसोमवाद (chromosomal theory of heredity)

(chromosomal theory of heredity in hindi ) वंशानुगति का गुणसूत्रीय सिद्धान्त क्रोमोसोमवाद –

वल्टर सदन व थियोडोर बोमेरी 1902:-

सटन और बीमेरी ने गुणसूत्र की संख्या एवं जीव विनिमय की क्रिया विधि को मेण्डलीय नियमों केसाथ जोडकर अनुगाँशिकता का एक नया सिद्धान्त दिया जिसे वंशानुगति का गुणसूत्रीय सिद्धान्त कहा जाता है।

इसके अनुसार:- गुणसूत्र जीव जोडे में होते है।

1 गुणसूत्र पर जीन पाये जाते है।

2 एक पीढी से दूसरी पीढी में लक्षणों की वंशानुगति का नियंत्रण

3 गुणसूत्र एवं इन पर स्थित जीनों का द्वारा होता है।

प्रयोगिक सत्यापन   T.H  मार्गन थामस हट मार्गन

अध्ययन के लिए चुना    फल मक्खी (fruit fly) सिल ड्रोलोफिला मैलनोगेस्टर

1 इसे प्रयोगशाला में सरल कृत्रिम माध्यम पर आसानी से रखा जा सकता है।

2 इनका जीवन चक्र छोटा होता है।

3 इनमें स्पष्ट लिंग भेद पाया जाता है।

4 एकल मैथून से बहुत अधिक मात्रा में सन्तति उत्पन्न की जाती है।

5 इसमें अनेक ऐसे स्पष्ट आनुवाशिक लक्षण पाये जाते है जिन्हें नग्न आॅंखों से अथवा कम शक्ति के सूक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है।

लिंग-निर्धारण(sex delermination) नर विषमयुग्मता (male helerogamety)

उदाहरण:-  मनुष्य में

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2-कीटो में:- नर कीट- (शुक्राणु गुणसूत्र युक्त या रहित)

मादा कीट-

विषम युग्मकता :-

1- पक्षियों में – नर मादा

वंशावली विश्लेषण पेडिग्री ऐनालिसिल:-

किसी विशेष लक्षण की वंशानुगति के लिए उसके वंश के इतिहास का अध्ययन किया जाता है इस प्रकार लगातार कई पीढीयों तक लक्षणों के अध्ययन की क्रियाविधि को वंशावली विश्लेषण कहते है। इसके लिए वंश वृक्ष बनाकर अध्ययन करते है तथा कुछ मानक प्रतिकों का प्रयोग करते है।

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महत्वः-वंश के इतिहास का अन्तर करने में 2 असामान्यता या रोज का पता लगाने में।

उत्परिवर्तन जीनो में अक्समता होने वाले परिवर्तन जो वंशानुगत होते है उनके उत्परिवर्तन कहते है। इनमें क्छ। क्षारकों में परिवर्तन होता है जिससे जीन के जीनोटाइप एवं फनोटाइप लक्षण बदल जाते है।